एटीएम नहीं हैं खेत
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान बिहार के कोसी इलाके में किसानी जीवन जीते हुए जिस फसल ने सबसे अधिक अपनी माया के जाल में फांसने की कोशिश की है, वह है- मक्का. यह नकदी फसल है. कहा जाता है कि किसानी समुदाय के लोग इस फसल से ही पक्का मकान का सफर तय करते […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
बिहार के कोसी इलाके में किसानी जीवन जीते हुए जिस फसल ने सबसे अधिक अपनी माया के जाल में फांसने की कोशिश की है, वह है- मक्का. यह नकदी फसल है. कहा जाता है कि किसानी समुदाय के लोग इस फसल से ही पक्का मकान का सफर तय करते हैं.मक्का ने पटसन (जूट) को किनारे कर किसान के घर में जगह बनायी है.
अब मक्का के दूसरे चेहरे की बात. जनवरी में आलू उपजाने के बाद से ही हम सब मक्का में डूब जाते हैं, डूबना इस कदर की एक खेत में दो बार हम मक्का उपजा लेते हैं. आप इससे अनुमान लगा सकते हैं धरती मइया की पीड़ा का. अधिक अधिक से उपज और पैसे के लिए हम किसानी समुदाय के लोग खेत को आराम नहीं दे रहे हैं. अधिक से अधिक मात्रा में रासायनिक खाद और बेपरवाह होकर पंपसेट से पटवन का नतीजा हम अब भोगने लगे हैं. घटता जल स्तर अब चिंता का विषय बन गया है.’बोरिंग फेल’ यह शब्द किसानी कर रहे लोगों की जुबान पर हमेशा आने लगा है. दोषी हम सब हैं.
किसानी की प्रक्रिया अब बाजार के अनुसार तय होने लगी है. अब सरसों या मूंग जैसे फसलों की खेती करनेवाला पिछड़ जाता है, जबकि मुझे याद है पहले ये दोनों फसलें अनिवार्य रूप से होती थी ताकि खेत को आराम मिल सके, लेकिन धरती मइया की परवाह अब हमें कहां है, ऐसे में जल संकट या फिर पैदावार के संकट को भी हमें ही झेलना होगा, लेकिन दुख इस बात का है, हम अब भी सचेत नहीं हुए हैं.
महाराष्ट्र की तरह जल संकट हमें भी भोगना होगा, यदि अब भी सचेत नहीं हुए. हम किसानों ने पटसन की जगह पर मक्का को इसलिए चुना, क्योंकि पटसन के लिए पानी की आवश्यकता होती है. फसल को काट कर पानी में कुछ दिनों तक सड़ने के लिए रखा जाता है, तब जाकर उससे जूट का रेशा निकलता है. जब नदी-नाले को भी माटी से भर कर खेत में तब्दील कर दिया गया हो, तब आप प्रकृति से क्या उम्मीद रखेंगे. गांव-घर में छोटी नदियां अब नहीं के बराबर है.
हाल ही में पड़ोस के एक गांव गया था, वहां मैंने जो दृश्य देखा, उसने मुझे बेचैन कर दिया. करीब एक एकड़ में फैले पोखर में बच्चों की एक टोली क्रिकेट खेल रही थी. पोखर अब फील्ड बन चुका था. अब आप ही बताइए, हम कहां जा रहे हैं! मछली के व्यवसाय से जुड़े लोगबाग मजदूर बन कर पलायन कर रहे हैं या फिर लीज पर खेत लेकर मक्का आदि उपजा रहे हैं. किसानी में भी पलायन का रंग बदल गया है, आप कह सकते है ‘किसानों का काम ही बदलने लगा है’.
हर साल आंधी – तूफान की वजह से हम अपनी आंखों के सामने फसलों को बरबाद होते देखते हैं, और हां, जिस फसल को सबसे अधिक क्षति पहुंच रही है, वह मक्का ही है. इस बार भी किसानों को नुकसान हुआ है. सूखे की वजह से हम जी-जान से जवान मक्का के पौधों तक पानी पहुंचाते हैं और अगले ही दिन तेज आंधी मक्के को धरती मइया की गोद में सुला कर किसानों से सब कुछ छीन लेती है. लेकिन, गांव के बूढ़े – बुजुर्ग बताते हैं कि पटसन में ऐसा नहीं होता था.
एक फसल के बाद धरती मइया भी आराम मांगती है, किसानी समुदाय को इन मुद्दों पर सोचना होगा, नहीं तो स्थिति और गंभीर होगी. प्रकृति हमें सचेत कर रही है और एक हम हैं, जो अपने खेत को एटीएम वाली मशीन बनाने में लगे हुए हैं.