नाम बदलने का पुराना बुखार
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया केंपेगौड़ा एयरपोर्ट पर फ्लाइट लैंड कर रही है. एयर होस्टेस घोषणा करती है कि अब आप ‘बेंगलोरू’ या ‘बेंगलुरू’ में उतरने जा रहे हैं. साल 2014 में कर्नाटक के 11 अन्य शहरों के साथ भाजपा ने बैंगलौर शहर का नाम बदल कर बेंगलुरू रखा था, तब से ज्यादातर […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
केंपेगौड़ा एयरपोर्ट पर फ्लाइट लैंड कर रही है. एयर होस्टेस घोषणा करती है कि अब आप ‘बेंगलोरू’ या ‘बेंगलुरू’ में उतरने जा रहे हैं. साल 2014 में कर्नाटक के 11 अन्य शहरों के साथ भाजपा ने बैंगलौर शहर का नाम बदल कर बेंगलुरू रखा था, तब से ज्यादातर लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं. कर्नाटक से बाहर के लोग इस नये नाम से परिचित नहीं हैं, इसलिए बेंगलुरू नाम को लेकर भ्रम की स्थिति में रहते हैं.
अब भाजपा ने हरियाणा के गुड़गांव का नाम बदल कर ‘गुरुग्राम’ रख दिया है. लंबे अरसे से गुड़गांव को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ गुरुग्राम कहता आ रहा है, िजसे सरकार ने आधिकारिक तौर पर मान लिया है. समर्थक कहते हैं िक यह नाम बदलना आवश्यक था, क्योंकि गुड़गांव शब्द अपने मूल नाम का बिगड़ा हुआ एक रूप है.
यह वह जगह है, जहां महाभारत समय में पांडवों के योद्धा गुरु द्रोण रहते थे. दूसरी ओर नाम बदलने का विरोध करनेवाले दिल्ली से सटे संपन्न क्षेत्रों के धनाढ्य और व्यापारी लोग हैं, जो मानते हैं कि नाम बदलने से गुड़गांव नाम के ‘ब्रांड’ पर असर पड़ेगा. गुड़गांव उत्तर भारत का सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर और आइटी सेवा हब बन चुका है. गुड़गांव में दुनिया के बहुत-सी वैश्विक कंपनियों के कार्यालय हैं. सवाल यह है कि सही कौन है? क्या वे सही हैं जो नाम बदलने का समर्थन करते हैं, या वे जो इसके िखलाफ हैं?
शहरों के नये नाम रखने की प्रक्रिया भारत में 20 साल पहले साल 1996 में शुरू हुआ था, जब भाजपा और शिवसेना ने बंबई का नया नाम मुंबई कर दिया था. लेकिन तब मुुंबई का मामला मौजूदा गुरुग्राम से कुछ अलग था, क्योंकि ज्यादातर लोग इसको अपनी बोलचाल के हिसाब से बंबई, मुंबई या फिर बुंबई के नाम से पुकारते थे. उस वक्त भी इसका विरोध हुआ था और तर्क दिया गया था कि मुंबई नाम रखने से बंबई नाम के ब्रांड का नुकसान होगा. पीछे मुड़ कर बंबई को मुंबई बने हुए 20 साल को देखते हैं, तो यह कतई नहीं लगता कि उस शहर का नाम बदलने से उसके ब्रांड का कुछ नुकसान हुआ है.
मुंबई की समस्या संरचनात्मक है. यह शहर बाहरी लोगों को काम तो देता है, लेकिन उन्हें यह बहुत खराब जीवन स्तर में रखता है. एक मध्य वर्गीय व्यक्ति के लिए अकेले या अपने परिवार के साथ मुंबई में अच्छी तरह रहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इसकी कुछ जगहें न्यू याॅर्क और लंदन से भी महंगी हैं. मुंबई का पब्लिक ट्रांसपोर्ट तीसरी दुनिया की तरह है और लोकल ट्रेन की पटरियों पर हादसे में रोजाना तकरीबन 10 लोगों की मृत्यु हो जाती है. इन्हीं सब चीजों को देख कर लोग शहरों में निवेश करते हैं, न कि उसके नाम को देख कर.
मुंबई के बाद मद्रास का नाम बदल कर चेन्नई कर दिया गया. चेन्नई नाम से सबसे ज्यादा परेशानी गैर-तमिलों को हुई, जिन्होंने चेन्नई शब्द को 1990 के पहले तक कभी नहीं सुना था. मद्रास को अंगरेजों ने बसाया था और अंगरेजों का पहला किला – फोर्ट सेंट जॉर्ज भी यहीं अस्तित्व में आया, जो वर्तमान में अब तमिलनाडु विधानसभा है. फिर वामपंथियों ने कलकत्ता का नाम बदल दिया. तब कलकत्ता शहर को तीन नामों से पुकारा जाता था.
बंगाली इसे कोलकाता कहते थे, अंगरेजी में इसे कलकत्ता कहा जाता था और हिंदी या गुजराती में इसे कलकोत्ता कहा जाता था. बेंगलुरु की तरह ही कोलकाता नाम से भी कुछ लोग अपरिचित थे. वाम शासन के दौरान ही कोलकाता के एक सड़क का नाम भी बदल दिया गया और हैरिंगटन स्ट्रीट का नया नाम ‘हो ची मिन्ह सरनी’ हो गया. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि वहां अमेरिकी वाणिज्य दूतावास स्थित था. मुझे नहीं लगता कि अमेरिकी इन सबसे परेशान हैं और यह जो कुछ भी हुआ, उसमें कोई परिपक्वता नहीं थी. ऐसा विरोध न तो कोई बहादूरी है और न ही कोई चालाकी.
अब शहरों के नामों के उच्चारण की समस्या पर आते हैं. नाम बदलने का समर्थन करनेवालों कहते हैं कि यह काम विदेशी मूल्यों को अस्वीकार करना और स्थानीय पहचान को मजबूत करने जैसा है. लेकिन, इससे यह धारणा खुद ही कमजोर हो जाती है, क्योंकि भारतीय किसी भी जगह के नाम का उच्चारण सही नहीं करते.
लंबे समय से भाजपा अहमदाबाद का नाम बदलने की मांग करती रही है. अहमदाबाद को 600 साल पहले गुजरात सल्तनत में पहले अहमदी ने बसाया था. भाजपा चाहती थी िक इस शहर को कर्णावती कहा जाये, जो सोलंकी राजा कर्ण के नाम पर है. यह तो अभी मुमकिन नहीं हो पाया है, लेकिन अहमदाबाद का नाम गैर आधिकारिक रूप से बदल गया है, क्योंकि सभी गुजराती इसे ‘अमदावाद’ कहते हैं. िसर्फ बाहरी लोग ही अहमदबाद को उसके असली नाम से पुकारते हैं.
भले ही शहरों के नाम बदलने से बहुत से लोग खीजें, लेकिन नाम बदलने से कोई नुकसान या फायदा नहीं दिखता. सवाल यह है कि शहरों के नाम बदलने का 20 साल पुराना बुखार बार-बार क्यों चढ़ता है? इसका सीधा जवाब यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए कुछ दिन तक खबरों में बने रहने का यह बेहद आसान तरीका है. मीडिया की रुचि भी ऐसी चीजों में ही ज्यादा रहती है, भले ही उसका परिणाम पूरी तरह से सांकेतिक ही िनकले.
वास्तविक बदलाव, जो खराब संरचना वाले हमारे अव्यवस्थित शहरों को स्मार्ट सिटी में बदल दे, ऐसा करना बहुत ही मुश्किल है. ऐसा करने के लिए हमारे पास न तो संसाधन ही हैं और न ही यह हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए. ऐसा इसलिए, क्योंकि गरीबी, अशिक्षा, हिंसा, स्वास्थ्य और भुखमरी आदि हमारी वास्तविक समस्याएं हैं. बेहतर शहर (स्मार्ट सिटी कह सकते हैं) हमारी प्राथमिकता नहीं हो सकते. जब वास्तविक बदलाव मुमकिन न हो, तो शहरों के नाम बदल कर ही हमें खुद को संतुष्ट कर लेना चाहिए.