पहले लोकसभा चुनाव के पहले, गुरु गोलवलकर से परामर्श के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 21 अक्तूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी. पहले तीन लोकसभा चुनावों में उसके सांसदों की संख्या 3,4,14 थी, जो चाैथे चुनाव में बढ़ कर 35 हो गयी. भारतीय जनसंघ तीसरा प्रमुख दल था. तब नामवर ने लिखा था- ‘भारतीय जनमत की इस अप्रत्याशित अभिव्यक्ति के नितांत उदासीन मस्तिष्क को भी झकझोर कर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है… स्वतंत्र-जनसंघ आदि की बहुसंख्यक जीत और राजाओं-जागीरदारों के राजनीति में एकबारगी प्रवेश से खतरा पैदा हुआ है.’ दो वर्ष बाद ही 1969 में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवानिया प्रेस से क्रेग वैबस्टर की पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘दि जनसंघ : ए बायोग्राफी ऑफ ऐन इंडियन पाॅलिटिकल पार्टी’.
संघ परिवार का ‘एकमात्र लक्ष्य’ ‘हिंदू राज और हिंदू पद-पादशाही की स्थापना’ माना. 29 मई 2000 की रात जेएनयू में घटी घटना की चर्चा की और यह सवाल किया- ‘यदि एक विश्वविद्यालय की संस्कृति रणांगण बनती है, तो उसके लिए जिम्मेवार कौन है?’ नामवर ने उस समय ‘हिंदू फासीवाद की ताकत’ को कम न समझने की बात कही थी. यह भी लिखा था- ‘किसी प्रकार का विरोध देशद्रोह कहलायेगा. देशभक्ति की ऐसी हवा चलेगी कि अल्पसंख्यक अपने आप काबू में रहेंगे.’ नामवर ने ‘हिंदुत्ववादी संघ परिवार के मुसोलिनी और हिटलर की पार्टियों से सीधे संपर्क’ की याद दिलायी.
जेएनयू की घटना के विरुद्ध पूरे विश्व के लेखकों, प्रोफेसरों, बुद्धिजीवियों ने एकजुट होकर चिंताएं व्यक्त की. साहित्य सदैव सत्ता के विरुद्ध रहा है. उत्पीड़ितों के साथ, उत्पीड़काें के विरुद्ध. संविधान और लोकतंत्र का भी वह रक्षक है. उसकी आवाज सदैव सुनी जानी चाहिए. फासिस्टों का सैद्धांतिक लेखन सदैव कमजोर रहा है. सोलह वर्ष पहले नामवर ने ‘हिंदू फासीवाद’ की सही पहचान की थी.
फासीवाद तिरंगा में भी ‘राष्ट्रप्रेम’ लपेट कर आ सकता है. नामवर जिस जेएनयू में थे, उसे नक्सलियों-माओवादियों का गढ़ कहा गया. फासीवाद सत्तावादी अधिकार-सर्वाधिकारवादी, एक दलीय, राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारधारा है. साहित्य में आलोचक की भूमिका कहीं बड़ी है. आलोचना धर्म का निर्वाह फासीवाद के विरुद्ध खड़ा होकर किया जाना चाहिए. इस समय नामवर की चुप्पी अनेक लोगों को अखर रही है.