कांग्रेस पार्टी की गिरती साख
विधानसभा चुनावों का मौजूदा दौर गांधी परिवार के लिए बुरी खबर लेकर आयेगा. तब फिर से देश में कांग्रेस-मुक्त भारत के मसले पर बहस की वापसी होगी. इस बार यह सवाल नहीं उठेगा कि यदि ऐसा होने जा रहा है, तो कब? भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा हमने पहली बार साल 2014 के आम […]
विधानसभा चुनावों का मौजूदा दौर गांधी परिवार के लिए बुरी खबर लेकर आयेगा. तब फिर से देश में कांग्रेस-मुक्त भारत के मसले पर बहस की वापसी होगी. इस बार यह सवाल नहीं उठेगा कि यदि ऐसा होने जा रहा है, तो कब?
भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा हमने पहली बार साल 2014 के आम चुनाव के प्रचार में सुना. इस नारे का अर्थ है कांग्रेस पार्टी का सफाया. भाजपा अपने इस वादे पर कितनी खरी उतरी है, आइए देखते हैं.
देश के सात राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं. पूर्वोत्तर के तीन छोटे राजों- मिजोरम, मणिपुर व मेघालय में, दक्षिण के दो मुख्य राज्यों- केरल व कर्नाटक में और उत्तर के दो छोटे राज्यों- हिमाचल प्रदेश व उत्तरखंड में. उत्तराखंड में अनिश्चितता बनी हुई है कि वहां कांग्रेस अपनी सरकार बचा पायेगी या नहीं, इसलिए अभी इसे विश्लेषण के दायरे से बाहर रखते हैं. वहां अगले साल चुनाव होने हैं, यदि उससे पहले चुनाव होते हैं, तो इसकी उम्मीद कम ही है कि वहां कांग्रेस दोबारा चुनाव जीत जायेगी, क्योंकि पिछले चार चुनावों में वहां वैकल्पिक सरकारें बनती रही हैं.
हिमाचल में भी अगले साल चुनाव होने हैं. वैकल्पिक सरकार बनने जैसी स्थिति है, इसलिए यहां भी कांग्रेस के लिए दोबारा सरकार बचा पाने की मुश्किल नजर आ रही है. आय से अधिक संपत्ति के मामले में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर सीबीआइ जांच चल रही है और यह कहना आसान नहीं है कि वे इससे कब तक उबर पायेंगे. दूसरी बात यह है कि भाजपा के चमकते सितारों में से एक अनुराग ठाकुर वहां विपक्ष में हैं. अनुराग भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सचिव हैं. हिमाचल में कांग्रेस के पास उनके जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं है.
केरल में चुनाव के पहले के सर्वेक्षण बताते हैं कि वहां वाम मोर्चा से कांग्रेस हार जायेगी, जब 19 मई को चुनाव परिणामों की घोषणा होगी. केरल की राजनीति पर अपनी पारखी नजर रखनेवालों के लिए कांग्रेस की हार कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. दो बातें ध्यान देनेवाली होंगी कि जिस वाम मोर्चे का देश से सफाया होता जा रहा है, कांग्रेस उससे हार जायेगी. दूसरी बात यह कि मलयाली हिंदुओं के बढ़ते समर्थन से भाजपा का वोटशेयर बढ़ेगा.
कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री का कई घोटालों में नाम आ चुका है, जिसमें एक मामला लग्जरी घड़ियां पहनने का है, जिसे वे अफोर्ड नहीं कर सकते (वे घड़ियों को उपहार में मिलीं बताते हैं). उनका बेटे की एक ऐसी कंपनी में हिस्सेदारी है, जिस कंपनी को सरकारी ठेके मिले हुए हैं. दूसरी अहम बात यह है कि राज्य में पार्टी नेता के रूप में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री की येदियुरप्पा की वापसी हुई है. येदियुरप्पा को भी भ्रष्टाचार के आरोप के चलते पिछले विधानसभा में इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन बड़े लिंगायत समुदाय के बीच वे अब भी लोकप्रिय बने हुए हैं. कर्नाटक में आगामी दो-तीन साल में चुनाव होने हैं, जहां येदियुरप्पा की वापसी के चलते भाजपा के जीतने की संभावना बढ़ गयी है.
अभी दो राज्यों में चुनाव चल रहे हैं. एक असम में, जहां कांग्रेस की सरकार है और दूसरे पश्चिम बंगाल में. चुनावी सर्वेक्षण बताते हैं कि असम में भाजपा आसानी से जीत जायेगी. भाजपा की यह जीत वैसी ही होगी, जैसी 2014 के आम चुनाव में मिली थी. राज्य में बांग्लादेशी मुसलमानों के आकर रहने को लेकर एक बहस जारी है, जिसका लाभ भाजपा को मिलना तय है. वहीं बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस राज्य में कमजोर वाम मोर्चे के साथ मिली हुई है. ममता की पार्टी पर लगे भ्रष्टाचार, अक्षमता, काम न करने और अन्य कई आरोपों के बावजूद चुनावी पूर्व सर्वेक्षण बताते हैं कि वाम-कांग्रेस और ममता के बीच कांटे की टक्कर है, लेकिन ममता ही जीतेंगी.
कुल मिला कर यही लगता है कि जिन राज्यों में कांग्रेस की जमीनी उपस्थिति है और सत्ता विरोधी लहर भी है, फिर भी वहां चुनावी जीत दर्ज करने के लिए कांग्रेस के पास ऊर्जा ही नहीं है. कुछ ऐसा ही सच कई अन्य कई राज्यों का भी है, जिसमें ओड़िशा, आंध्र प्रदेश और बीजेपी शासित गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं.
पूर्वाेत्तर की राजनीति में विचारधारा मायने नहीं रखती. इन राज्यों के स्थानीय नेता उसी पार्टी के साथ शामिल हो जाते हैं, जिस पार्टी की केंद्र में सरकार होती है. यह संभव है कि यहां की सभी तीन कांग्रेस की सरकारें सता से बाहर हो जायेंगी. वहां एक भी राज्य नहीं है, जहां कांग्रेस कुछ मजबूत दिखे. राजनीति से बाहर और राष्ट्रीय मीडिया में साल 2011 के अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से ही कांग्रेस की साख लगातार कम हो रही है. राष्ट्रीयता, आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसे मसलों पर भी कांग्रेस रक्षात्मक रही है. मीडिया कवरेज में भी कांग्रेस शख्सीयतों जैसे राहुल गांधी और उनके जीजा रॉबर्ट वाड्रा की छवि नकारात्मक रही है. दिल्ली में कोई महत्वपूर्ण बदलाव करने के मामले में भाजपा की असमर्थता का लाभ उठाने में भी कांग्रेस कमजोर ही रही है.
अब गांधी परिवार के लोग यह तय नहीं करते कि मीडिया का एजेंडा क्या हो, जैसा कि वे तब करते थे, जब देश में कांग्रेस की सरकार थी. अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां और नीतीश कुमार जैसे राज्य के नेताओं कांग्रेस की कीमत पर विपक्ष के नेता के रूप में अपनी विश्वसनीयता बढ़ायी है. विधानसभा चुनावों का मौजूदा दौर गांधी परिवार के लिए बुरी खबर लेकर आयेगा. और तब फिर से देश में कांग्रेस-मुक्त भारत के मसले पर बहस की वापसी होगी. इस बार यह सवाल नहीं उठेगा कि यदि ऐसा होने जा रहा है, तो कब?
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@me.com