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चुनौतियों से मुंह न मोड़े आप

पिछले दिनों आप (आम आदमी पार्टी) का उत्तरार्ध शीर्षक से हरिवंश जी का लिखा लेख पढ़ा. उन्होंने लिखा है कि आप का पूर्वार्ध शानदार है और व्यवस्था विरोध का प्रतीक भी, जिसने परंपरागत राजनैतिक शैली, जो प्राय: कांग्रेस की देन रही है, उसको नकार कर स्तब्धकारी चुनौती वर्तमान राजनीतिक दलों के लिए पेश की है. […]

पिछले दिनों आप (आम आदमी पार्टी) का उत्तरार्ध शीर्षक से हरिवंश जी का लिखा लेख पढ़ा. उन्होंने लिखा है कि आप का पूर्वार्ध शानदार है और व्यवस्था विरोध का प्रतीक भी, जिसने परंपरागत राजनैतिक शैली, जो प्राय: कांग्रेस की देन रही है, उसको नकार कर स्तब्धकारी चुनौती वर्तमान राजनीतिक दलों के लिए पेश की है. आगे उन्होंने लिखा है कि उक्त व्यवस्था विरोध का रोजा लग्जमबर्ग, लेनिन, स्टालिन, गांधी, लोहिया और जयप्रकाश ने भी अनुसरण किया था, लेकिन आम आदमी के पक्ष में व्यवस्था परिवर्तन जिस मात्र में संविधान के अनुरूप अपेक्षित था, वह आजादी के 66 वर्षो के बाद भी नहीं हो सका है.

मेरा मानना है कि व्यवस्था प्रर्वितन के लिए आप की राह भी कठिन है, लेकिन असंभव नहीं. कोई भी दल देश की आबादी में 80 फीसदी हिस्सा रखनेवाले आम आदमी के सर्मथन के बूते ही सरकार बनाता है. जिस तिलस्म को आम आदमी आजादी के 66 वर्ष बीत जाने के बावजूद नहीं जान सका है और खुद को ठगा हुआ महसूस करता है, उसी आम आदमी को केजरीवाल जी ने अपने आंदोलन के जरिये आवाज देने की कोशिश की है.

लेख में भारत की पूर्व सरकारों की देश-विदेश की नीतियों से लेकर जनसंख्या विस्फोट तथा गलत अर्थनीतियों से होनेवाली विसंगतियों की चर्चा है, जिससे ज्यादा प्रभावित आम जनता ही होती है. लेखक ने केजरीवाल को सलाह देते हुए ठीक ही कहा है कि परंपरागत राजनीतिक दलों तथा उसके राजनीतिज्ञों द्वारा जो तिलस्म पैदा कर डराने की कोशिश की जा रही है, उससे डरने या चिंतित होने की जरूरत नहीं है, बल्कि उसे आम जनता के हित में उक्त चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है.
प्रो ब्रजकिशोर भंडारी, ई-मेल से

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