रेणु के गांव में मूंगफली
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान खेती-बाड़ी करते हुए अक्सर अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के गांव आना-जाना लगा रहता है. हर बार वहां से लौट कर कुछ नया ‘मन’ में लाता आया हूं. बीते शनिवार को राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम चनका आये थे, उन्हीं के संग रेणु के ‘गाम-घर’ जाना हुआ. […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
खेती-बाड़ी करते हुए अक्सर अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के गांव आना-जाना लगा रहता है. हर बार वहां से लौट कर कुछ नया ‘मन’ में लाता आया हूं. बीते शनिवार को राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम चनका आये थे, उन्हीं के संग रेणु के ‘गाम-घर’ जाना हुआ. किताबों और लेखकों के दुनिया में रमे रहनेवाले निरूपम भाई से जब गांव में मुलाकात हुई, तो उनका एक अलग ही मन पढ़ने को मिला. उनके भीतर किसान का मन भी है.
रेणु भी अक्सर किताबों की दुनिया में रमे रहनेवालों को अपने खेतों में घुमाते थे. उन्होंने एक संस्मरण लिखा है- ‘कई बार चाहा कि, त्रिलोचन से पूछूं- आप कभी पूर्णिया जिले की ओर किसी भी हैसियत से, किसी कबिराहा-मठ पर गये हैं? किंतु पूछ कर इस भरम को दूर नहीं करना चाहता हूं. इसलिए, जब त्रिलोचन से मिलता हूं, हाथ जोड़ कर, मन ही मन कहता हूं- सा-हे-ब! बं-द-गी!’ मुझे भी इच्छा रहती है कि कोई गाम आये, तो उसे पहले खेतों में घुमाऊं. उससे कुछ सीखूं. कबीर की वाणी है- ‘अनुभव गावे सो गीता’.
प्रचंड गरमी में निरूपम भाई चनका के मक्का के खेतों में टहलते हुए थके नहीं, बल्कि समझाने लगे कि मक्का के अलावा और क्या-क्या हो सकता है. कोसी का क्षेत्र जिसे मक्का का ‘हब’ कहा जाता है, वहां का किसानी समाज अब फसल चक्र को छोड़ने लगा है. अब एक ही फसल पर सब आश्रित हैं. हालांकि, मक्का से नकद आता है, लेकिन माटी खराब हो रही है. इस बात से निरूपम भाई चिंतित नजर आये.
मैं और चिन्मयानंद उन्हें लेकर रेणु के गांव औराही हिंगना निकल पड़े. रेणु के घर के समीप एक खेत दिखा, जिसे देख कर लगा मानो किसी ने हरी चादर बिछा दी हो. मेरे मन में रेणु बजने लगे- ‘आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान!’ मेरे मन में रेणु बज ही रहे थे कि निरूपम भाई ने कहा, ‘यह जो आप देख रहे हैं न, मैं खेती की इसी शैली की बात करना चाहता हूं’. अब उनके चेहरे की रौनक लौट आयी.
खेत में मूंगफली की फसल थी, एकदम हरे चादर के माफिक. साठ के दशक में रेणु की लिखी एक बात याद आ गयी, जिसमें वे धान के अलावा गेहूं की खेती कहानी के अंदाज में सुनाते हैं. सच कहें, तो निरूपम भाई के आने की वजह से रेणु के गांव में मूंगफली की खेती देख कर मन मजबूत हुआ कुछ अलग करने के लिए. दरअसल, हमें सामान्य किसानी से हट कर बहुफसली, नकदी और स्थायी फसलों के चक्र को अपनाना होगा. तिलहन फसलों में मूंगफली का मुख्य स्थान है.
इसे जहां तिलहन फसलों का राजा कहा जाता है, वहीं इसे गरीबों का बादाम की संज्ञा भी दी गयी है. इसमें लगभग 45-55 प्रतिशत तेल (वसा) पाया जाता है, जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों के रूप में होता है. इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं. तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने और साथ ही क्रीम आदि तैयार करने में भी किया जाता है.
पहले इस क्षेत्र में रेतवाली मिट्टी में मूंगफली उगायी जाती थी. फिर सूरजमुखी की तरफ किसान मुड़े, लेकिन नब्बे के दशक में किसानों ने पटसन और मक्का को गले लगा लिया. लेकिन, अब चेतने का वक्त है.
बहुफसलों की तरफ हमें मुड़ना होगा. पारंपरिक खेती के साथ-साथ किसानों को अब रिस्क उठाना होगा. दरअसल, देशभर में हर किसान की एक ही तकलीफ है, वह नकद के लिए भाग रहा है. घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है. सरकारें किसानों के लिए कई एलान करने में जुटी हैं, लेकिन जमीन पर बड़े बदलाव नहीं हो रहे हैं. आइए, हम सब मिल कर किसानी की दुनिया में भी कुछ अलग करते हैं.