गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जरूरी
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया गुजरात विश्वविद्यालय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पत्राचार पाठ्यक्रम की डिग्री खोज ली है. कुलपति एमएन पटेल के हवाले से छपी खबरों के अनुसार, मोदी ने 1983 में राजनीति विज्ञान में एमए का पाठ्यक्रम पूरा किया था और उन्हें कुल 800 अंकों में से 499 अंक मिले थे. […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
गुजरात विश्वविद्यालय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पत्राचार पाठ्यक्रम की डिग्री खोज ली है. कुलपति एमएन पटेल के हवाले से छपी खबरों के अनुसार, मोदी ने 1983 में राजनीति विज्ञान में एमए का पाठ्यक्रम पूरा किया था और उन्हें कुल 800 अंकों में से 499 अंक मिले थे. यानी उन्होंने 62.37 फीसदी अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की थी. मैं चाहता हूं कि मेरी डिप्लोमा का भी पता लगाया जाये. मैंने 1987-89 में बड़ौदा के एमएस विश्वविद्यालय से दो वर्षों का पाठ्यक्रम पूरा किया था. परंतु, अंतिम परीक्षा के बाद बिना प्रमाणपत्र लिए ही निकल गया था.
मैंने इसलिए प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं समझी थी, क्योंकि यह पाठ्यक्रम समय की बरबादी और कमोबेश बिना किसी काम का था. मेरे लिए यह उल्लिखित करना सांकेतिक है, क्योंकि मेन्यूफैक्चरिंग को भारत में बेरोजगारी की व्यापक समस्या के समाधान के रूप में देखा जाता है. क्या वाकई ऐसा है? मुझे नहीं लगता. आइए, देखते हैं.
वर्ष 2011 में हार्वर्ड विवि के केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के लैंट प्रिशेट ने भारत में शिक्षा के बारे में कहा था- ‘(भारतीय) अभिजात्य वर्ग को सही में बहुत अच्छी शिक्षा मिलती है… यदि नजर डालें कि वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक 10 फीसदी में कौन-से वे देश हैं, जहां से अधिकतर 15-वर्षीय छात्र निकलते हैं, भारत इस सूची में है. भारत वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक 10 फीसदी में एक लाख छात्र हर साल पैदा करता है. इसके बावजूद लोगों को यह मानने में मुश्किल है कि जो अर्थव्यवस्था सर्वाधिक 10 फीसदी में एक लाख छात्र सालाना जोड़ती है, वह शून्य कौशल के साथ करोड़ों रुपये पैदा कर रही है.’
क्या ये शब्द कठोर हैं? मेरा मानना है कि नहीं, और जो मेरा अनुभव है, वह इसे सत्यापित करता है. भारत में खराब शिक्षा, जिसका हवाला प्रिशेट दे रहे हैं, का पहला पहलू हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था है. स्कूली बच्चों के पढ़ने और गिनती करने की गुणवत्ता पर बहुत शोध प्रकाशित हो चुके हैं. दूसरा पहलू है उच्च शिक्षा की गुणवत्ता का, खासकर विशेषज्ञता के क्षेत्र में. कुछ दिन पहले एसोसिएशन ऑफ इंडियाज चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) के एक अध्ययन में बताया गया कि भारत के एमबीए डिग्रीधारियों में सिर्फ सात फीसदी ही रोजगार के योग्य हैं.
इसी तरह के आंकड़े सूचना तकनीकी उद्योग में दिखते हैं. नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) के एक अध्ययन के अनुसार, 90 फीसदी ग्रेजुएट और 75 फीसदी इंजीनियर प्रशिक्षण पाने के लायक नहीं हैं.
हमारे संस्थान रोजगार के अयोग्य भारतीय पैदा कर रहे हैं. यदि मेक इन इंडिया एक वृहत रणनीति है, तो लोगों को खेतिहर काम से हटा कर प्रशिक्षण के साथ फैक्टरियों की ओर ले जाना होगा. यह काम महाविद्यालय के स्तर पर पॉलिटेक्निक्स द्वारा किया जाता है. मैंने टेक्स्टाइल तकनीक में डिप्लोमा के लिए पढ़ाई की, जिसमें हमें बुनना, सूत और कपड़ा तैयार करना आदि सिखाया जाना था.
पहली बात जानने की यह है कि पॉलिटेक्निक में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जो वहां नहीं रहना चाहते. हम छात्रों में से अधिकतर 16 या 17 वर्ष के थे, जो हाल में दसवीं कक्षा से निकले थे. वे आगे पढ़ने के इच्छुक नहीं थे या उतने पढ़ाकू नहीं थे. और जो उम्र में बड़े थे यानी हाइस्कूल से पास थे, उन्होंने दाखिला इसलिए लिया था, क्योंकि उन्हें डिग्री कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल सका था. मुझे ऐसे किसी व्यक्ति की याद नहीं है, जिसने ब्लू कॉलर जॉब के लिए इस पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था.
दो सालों की पॉलिटेक्निक शिक्षा का मेरा अनुभव इस प्रकार हैः कोई भी मशीन ठीक से काम नहीं करती थी यानी हम उन्हें महसूस तो कर सकते थे, पर चला नहीं सकते थे. एक कामगार के रूप में हमने उनका प्रयोग कभी नहीं किया.
साजो-सामान बहुत पुराने हो चुके थे (उनमें वे मशीनें भी थीं, जिनका उद्घाटन नेहरू ने या उनसे भी पहले किसी ने किया था). हमें जैक्वाॅर्ड और डॉबीज जैसे बुनाई के तरीके ज्यादातर निष्क्रिय मशीनों पर सिखाये गये. वहां कोई वाटर जेट लूम और कोई अन्य आधुनिक उपकरण नहीं था. पाठ्यक्रम में मुख्य रूप से कपास की बुनाई थी, जिसे अहमदाबाद के कारखाने दशकों पहले इस्तेमाल करते थे. हमें पॉलीयेस्टर निकालना और बुनना सैद्धांतिक रूप से सिखाया गया, जिसका अर्थ यह है कि हमें यह काम करना नहीं आता था. यहां तक कि कॉटन मशीनें भी सामान्यतः बिजली से नहीं चलती थीं. हमारे सभी शिक्षक व्हाॅइट कॉलर थे. वे खुद भी मशीनों का इस्तेमाल करना नहीं जानते थे. ब्लू कॉलर कर्मचारियों के पास मिलों का कुछ अनुभव था, पर वे हमें नहीं पढ़ाते थे. कुल मिला कर, हमें व्यावहारिक प्रशिक्षण नहीं मिल सका था.
कक्षाएं अंगरेजी माध्यम में होती थीं. हमारी लिखित और मौखिक परीक्षाएं बिना मशीनों पर वास्तव में काम किये बगैर होती थीं. तब धारणा यह थी कि हमें सिर्फ लोगों को आदेश देना होगा, और यह जानने की जरूरत नहीं समझी जाती थी कि वे लोग अधिक क्षमता से किस तरह काम कर सकते हैं. सभी छात्र मध्यवर्गीय थे, और उनमें से अधिकतर ने रुचि से अधिक विकल्पों की कमी के कारण पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था.
बाद में सभी छात्रों की इच्छा डिग्री कोर्स में जाने की थी, और पारिवारिक व्यापार की पृष्ठभूमि से आनेवालों को छोड़ कर अधिकतर ने ऐसा किया भी. हममें से किसी ने भी फोरमैन की नौकरी नहीं की. पाठ्यक्रम के तुरंत बाद मैं पॉलीयेस्टर निकालने और बुनने के पारिवारिक व्यवसाय में लग गया, लेकिन मुझे हर बात शुरू से ही सीखनी पड़ी.
किसी फैक्टरी में मेरा कोई भी सहपाठी सक्षमता से काम नहीं कर सकता था, क्योंकि हमें यह करने के लिए प्रशिक्षण ही नहीं मिला था. यदि मुझे एमएस विश्वविद्यालय से मेरा डिप्लोमा मिलता है, तो मैं उसे एक प्रमाण के रूप में फ्रेम करा कर रखूंगा, जो मुझे याद दिलाता रहेगा कि मेरी जिंदगी के दो बरबाद साल कैसे थे. इसका और कोई उपयोग नहीं हो सकता है.