साधुओं की चमक-दमक
विष्णु नागर वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार पिछले दिनों मैं उज्जैन में था, जहां इन दिनों हर 12 साल बाद लगनेवाला सिंहस्थ या कुंभ मेला लगा हुआ है. मैं मूल रूप से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र का हूं, इसलिए पहली बार छह बरस की उम्र में वहां गया था और कुछ ऐसा संयोग रहा कि […]
विष्णु नागर
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार
पिछले दिनों मैं उज्जैन में था, जहां इन दिनों हर 12 साल बाद लगनेवाला सिंहस्थ या कुंभ मेला लगा हुआ है. मैं मूल रूप से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र का हूं, इसलिए पहली बार छह बरस की उम्र में वहां गया था और कुछ ऐसा संयोग रहा कि तब से अब तक कुल छह बार उसमें जा चुका हूं. हूं तो मैं नास्तिक, मगर मुझे मेले-ठेलों, भीड़-भाड़ के बीच जाना, पैदल घूमना अच्छा लगता है और पत्नी की आस्तिकता भी ऐसी जगहों पर जाने का कारण बनती है.
इस बार यह ज्यादा चुभा कि बाजार हम सबके दिलो-दिमाग पर इस कदर छा गया है कि न उसके प्रभाव से साधारण लोग बचे हैं और न वे लोग, जिन्हें साधारणजन मानते हैं कि ये साधु-संन्यासी हैं. इनका संन्यास बहुत करके इनके भगवा वस्त्रों मे सिमट कर रह गया है, बाकी ये हम जैसे ही साधारण हैं या हमसे भी अधिक साधारण.
पिछली बार से कहीं ज्यादा इस बार ‘संतों’ की प्रदर्शनप्रियता थी. जिनके पास धन रूपी साधन ज्यादा नहीं है, वे तरह-तरह की विचित्रताओं को प्रचार का साधन बना रहे हैं. जिनके पास धन छलका पड़ रहा है, वे इसके भव्य प्रदर्शन के जरिये लोगों को आकर्षित कर रहे हैं. इनमें से एक-दो ज्यादा ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं, जिनमें अवधेशानंद और नित्यानंद के डेरे शामिल हैं.
हर कोई पूछता है कि आप इनके यहां गये? यदि नहीं गये तो आपका सिंहस्थ आना अकारथ रहा. पहले की तरह इस बार भी संख्या की दृष्टि से धर्म के सबसे बड़े ग्राहक गरीब और निम्न-मध्यवर्ग के लोग जान पड़े, जिनकी धर्म और धार्मिकजनों में आस्था इतनी प्रबल है कि उसके आगे वे हर विसंगति को अनदेखा कर देते हैं. वैसे पैसे की चमक-दमक क्या-कैसी होती है, इसका सही-सही अंदाजा भी उन्हें इन ‘साधु-संतों’ के डेरों पर आकर ही हो पाता है, जहां वे बेरोक-टोक आ सकते हैं, जबकि गांव के या शहर के अमीरों की भव्यता बाहर से देखी जा सकती है, वह भी ज्यादा देर तक नहीं, वरना चोर होने का शक किया जायेगा.
नागा साधु हर कुंभ मेले की तरह यहां भी थे, मगर ऐसा लगा कि उनके पास धनरूपी संसाधन अधिक नहीं है. परंपरा ने साधुवेश में इन नागा साधुओं का अलफ नंगा रहना-घूमना स्वीकार्य बना दिया है. ये लोग अपने डेरों पर ही नहीं, बाहर भी इसी तरह घूम रहे थे. गरीब वर्ग को शायद लगता है कि जिन्हें कपड़ा पहनने तक की परवाह नहीं हैं, वे शायद अधिक श्रद्धेय हों.
एक और बात की ओर ध्यान गया कि एकाध को छोड़ कर जिन डेरों ने अन्न क्षेत्र खोल रखे थे, उनमें नामी-गिरामी अपवाद स्वरूप थे. नामी-गिरामियों के यहां पीने का पानी था और बेचने के लिए किताबें और सीडी थीं. खाने-ठहरने की जातिगत व्यवस्थाएं भी कई थीं. इस कारण मेला क्षेत्र में होटल न के बराबर थे. जिन लोगों ने यह सोच कर अपने घर के कमरे सिंहस्थ के लिए किराये पर देकर मोटी कमाई करने का अनुमान लगाया था, उनमें से अधिकांश निराश हुए हैं.
इस बार शिवराज सिंह चौहान सरकार ने सिंहस्थ के प्रचार में जी-जान लगा दी है. अखबारों-टीवी चैनलों को तो भरपूर विज्ञापन दिये ही गये हैं, दिये जा रहे हैं, बल्कि रेलों-बसों-हवाई जहाजों सब में महीनों पहले जगहें छेंक ली गयी हैं.
एयर इंडिया के विमान से दिसंबर में सफर किया था, तब उसकी हर सीट के सामने सिंहस्थ का विज्ञापन था, मगर पहले शाही स्नान को अगर पैमाना माना जाये, तो अनुमान से केवल दस प्रतिशत लोग ही आये, जिसने निराशा का माहौल बना दिया. कारण यह भी था कि यातायात व्यवस्था इतनी कष्टकारी थी कि क्या कार, क्या दोपहिया-तिपहिया, क्या पैदल, सब बेहद परेशान थे. बीते 28 को जब दिल्ली के निजामुद्दीन स्टेशन पर सरायकालेखां की तरफ उतरा, तो वहां छोटी-सी जगह में सिंहस्थ से कहीं ज्यादा भीड़ थी.