तरक्की तले बढ़ता अंधेरा
इक्कीसवीं सदी के वर्षों में भारत और चीन में, खास कर सत्ताधारी वर्ग में, खुद को दुनिया की उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति कहने का चलन बढ़ा है. विकसित देशों के नेतागण, नीति-निर्माता और व्यवसायी भी जब-तब अपनी बातों से इन दोनों देशों के सत्ताधारी वर्ग की इस धारणा की पुष्टि करते रहते हैं. लेकिन, एशिया-प्रशांत […]
इक्कीसवीं सदी के वर्षों में भारत और चीन में, खास कर सत्ताधारी वर्ग में, खुद को दुनिया की उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति कहने का चलन बढ़ा है. विकसित देशों के नेतागण, नीति-निर्माता और व्यवसायी भी जब-तब अपनी बातों से इन दोनों देशों के सत्ताधारी वर्ग की इस धारणा की पुष्टि करते रहते हैं.
लेकिन, एशिया-प्रशांत क्षेत्र के आर्थिक परिदृश्य पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की ताजा रिपोर्ट इस धारणा की विडंबनाओं को उजागर कर रही है. रिपोर्ट कहती है कि भारत और चीन में तेज आर्थिक-प्रगति और गरीबी तेजी से घटने के साथ-साथ लोगों के बीच आर्थिक असमानता भी तेजी से बढ़ी है.
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे ज्यादा आर्थिक असमानता इन्हीं दोनों पड़ोसी देशों में है. दोनों देशों ने अपने लाखों लोगों को गरीबी के जाल से निकालने में सफलता तो हासिल की है, लेकिन इन दोनों ही देशों में विकास को समतामूलक बनाना अभी शेष है. रिपोर्ट में खबरदार भी किया गया है कि समय रहते आर्थिक असमानता को कम न किया गया, तो यहां सामाजिक सद्भाव के मोर्चे पर सूरतेहाल बिगड़ कर बेकाबू हो सकते हैं.
हालांकि, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की यह रिपोर्ट भले नयी हो, भारत में आर्थिक असमानता की कड़वी हकीकत का अनुमान नया नहीं है. ज्यादा साल नहीं हुए हैं अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट को आये हुए.
सात साल पहले (अप्रैल, 2009 में) आयी इस रिपोर्ट में कहा गया था कि तेज आर्थिक प्रगति के बहुत से वर्षों के गुजर जाने के बावजूद देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम के खर्च में अपना गुजारा चलाने को बाध्य है और उसकी बड़ी वजह है- खेती का लगातार अलाभकर होते जाना तथा देश की श्रमबल के 86 फीसदी हिस्से का अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में होना, जहां काम की स्थितियों से लेकर मजदूरी तक का मामला हमेशा नियोक्ता की मनमर्जी पर निर्भर करता है. समिति ने यह भी कहा था कि गरीबों में सर्वाधिक संख्या अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल लोगों और मुसलमानों की है.
उक्त रिपोर्ट चूंकि जीडीपी की दर पर आधारित तेज आर्थिक विकास की विडंबना को उजागर करनेवाली थी, इसलिए बहसों में इसके खिलाफ तर्क गढ़े गये और आधिकारिक रिपोर्टों में कोशिश हुई कि इसके निष्कर्षों को भुला दिया जाये. आलम यह है कि जीडीपी के आंकड़ों पर आधारित विकास की अवधारणा को सबसे चमकदार और सर्वहितैषी बता कर पेश करने के लिए 2014 में सरकार ने कह दिया कि देश में गरीबों की संख्या वर्ष 2004-05 के 40.74 करोड़ से घट कर 2011-12 में सिर्फ 27 करोड़ रह गयी है. विश्वबैंक ने तो गरीबी की गणना की अपनी नयी पद्धति के हवाले से यह संख्या और भी कम करनी चाही है.
लेकिन, ऐसी कोशिशों के बीच यह बात एकदम से भुला दी गयी है कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे होने के लिए जो मानक तय किये गये हैं, वे असल में भुखमरी की स्थिति में होने के सूचक हैं. इक्कीसवीं सदी की सरकारों की नयी आर्थिक नीतियों में बड़ी चतुराई से गरीबी और कंगाली, निर्धनता और दरिद्रता के बीच के फर्क को मिटाने की कोशिशें हुई हैं.
पिछले साल पेश हुई सामाजिक-आर्थिक जनगणना की रिपोर्ट ने भारत में विद्यमान आर्थिक असमानता की पोल फिर से खोल दी. इसने बताया है कि देश में 9.16 करोड़ परिवार (कुल 24.39 करोड़ का 51.14 प्रतिशत) दिहाड़ी मजदूरी, जबकि 5.39 करोड़ परिवार (कुल का 30.10 प्रतिशत) खेती पर आश्रित हैं.
अनुसूचित जनजाति के 38 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं और गांवों में रहनेवाले अनुसूचित जाति समुदाय के मात्र एक फीसदी परिवारों में 10 हजार रुपये या इससे अधिक की मासिक रकम कमानेवाला कोई सदस्य है. ऐसी भयावह असमानता के बाद बाद किसी को 25 नवंबर, 1949 को कहा गया बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर का यह वाक्य याद आ जाये तो क्या अचरज, कि ‘हमलोग आज से राजनीतिक समानता के युग तो प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक और सामाजिक धरातल पर हमलोग बहुत ज्यादा असमान रहेंगे. अगर हम इस विरोधाभास को खत्म नहीं करते हैं, तो असमानता हमारे लोकतंत्र को बर्बाद कर देगी.’
नागरिक संगठन मांग कर रहे हैं कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना के सभी राज्यवार आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाये, ताकि उसमें दर्ज स्थितियों के मुताबिक वंचित सामाजिक वर्गों के सशक्तीकरण के लिए आरक्षण दिया जा सके. उनकी यह मांग देश की जमीनी हकीकत के आकलन से उपजी है.
आज गुजरात हो या हरियाणा, खेती-बाड़ी के सहारे जीनेवाली जातियों में आर्थिक असमानता से उपजता आक्रोश जगह-जगह उग्र आंदोलन के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की ताजा रिपोर्ट हमें इस आक्रोश की वजहों को समझने और बाबा साहेब की उक्ति तथा अर्जुनसेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट पर नये सिरे से गौर करने के लिए कह रही है. लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारे नीति-निर्माता समय रहते चेतेंगे?