डिग्रियों पर उठते सवाल
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी निर्वाचित पद के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं है; परंतु निर्वाचन या मनोनयन के समय उन्हें शपथ-पत्र में अपनी आयु, शिक्षा और आय-व्यय का विवरण देना होता है. ऐसे ही विवरणों में प्रधानमंत्री और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा घोषित शैक्षणिक उपाधियों पर सवाल उठाये जा […]
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी निर्वाचित पद के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं है; परंतु निर्वाचन या मनोनयन के समय उन्हें शपथ-पत्र में अपनी आयु, शिक्षा और आय-व्यय का विवरण देना होता है. ऐसे ही विवरणों में प्रधानमंत्री और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा घोषित शैक्षणिक उपाधियों पर सवाल उठाये जा रहे हैं.
प्रधानमंत्री के शैक्षणिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने का निर्देश केंद्रीय सूचना आयोग ने दिया है, तो मंत्री का मामला न्यायालय में विचाराधीन है. प्रधानमंत्री की शिक्षा के बारे में दिल्ली और गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा दी गयी जानकारियों पर उनके विरोधी आश्वस्त नहीं हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने दिल्ली विवि द्वारा निर्गत प्रधानमंत्री की स्नातक डिग्री को सीधे तौर पर फर्जी करार दिया है. दूसरी ओर, इसी विश्वविद्यालय ने अदालत में बताया है कि मानव संसाधन विकास मंत्री की डिग्री उसे नहीं मिल रही है.
ऐसे में सरकार की चुप्पी पूरे प्रकरण की जटिलता को बढ़ा ही रही है. यह ठीक है कि प्रधानमंत्री से हर छोटे-बड़े मुद्दे पर जवाब की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, लेकिन यदि मामला उनके शपथपत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा हो, तब उनकी चुप्पी को जायज नहीं ठहराया जा सकता.
यही बात मंत्री के साथ भी लागू होती है. चुनावी प्रक्रिया का समुचित पालन व्यापक लोकतांत्रिक शुचिता का एक महत्वपूर्ण आधार है. ऐसे विवादों से उस प्रणाली और संबंधित व्यक्तियों पर प्रश्नचिह्न लगता है. इसलिए इस संबंध में सही जानकारी बिना किसी देरी के सामने आनी चाहिए. हालांकि, कुछ महीने पहले फर्जी डिग्री बनवाने और उसका उपयोग करने के मामले में दिल्ली सरकार द्वारा अपने एक मंत्री के विरुद्ध हुई कार्रवाई एक उदाहरण है, जो इंगित करता है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और सत्यनिष्ठा के साथ समझौता व्यापक देशहित के विरुद्ध है.
डिग्री के सही-गलत होने को लेकर प्रधानमंत्री या किसी मंत्री पर उठते सवालों को सतही राजनीतिक मुद्दा मानना उचित नहीं है. अच्छा होता यदि इन सवालों का विश्वसनीय जवाब सूचना आयोग और अदालत में जाने से पहले ही देश के सामने आ जाता. बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन विवादों से जल्द परदा उठेगा और डिग्रियों से जुड़े सच सामने आयेंगे.