व्यापक विपक्षी एकता जरूरी

पवन के वर्मा पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य कभी-कभी राजनीतिक बहसों की गर्मी में सही मुद्दे किनारे हो जाते हैं. गौण चीजें सुर्खियां बन जाती हैं. यह बात मैं नीतीश कुमार की भावी योजनाओं पर मीडिया के एक हिस्से में चल रही बहस के संदर्भ में कह रहा हूं. नीतीश ने एक जरूरी और मुख्य […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 11, 2016 6:00 AM

पवन के वर्मा

पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य

कभी-कभी राजनीतिक बहसों की गर्मी में सही मुद्दे किनारे हो जाते हैं. गौण चीजें सुर्खियां बन जाती हैं. यह बात मैं नीतीश कुमार की भावी योजनाओं पर मीडिया के एक हिस्से में चल रही बहस के संदर्भ में कह रहा हूं. नीतीश ने एक जरूरी और मुख्य बात कही है- भाजपा-आरएसएस का विरोध करनेवाली सभी ताकतों को सर्वसम्मत, सतत और प्रभावी साझा कार्यक्रम के आधार पर एकजुट होने की शुरुआत करनी चाहिए.

मौजूदा स्तर पर इस साझेदारी का मतलब जरूरी रूप से विलय या गंठबंधन नहीं है. वे राजनीतिक संभावनाओं की रणनीतिक तलाश के आधार पर राजनीतिक ताकतों के ध्रुवीकरण की बात कर रहे हैं, जो भविष्य में भाजपा को परास्त करने में राजनीतिक और विचाराधारात्मक रूप से सफल हो सके.

यह आह्वान वर्तमान परिस्थितियों के विश्लेषण के बाद किया गया है, जो जद(यू) के राष्ट्रीय परिषद् के प्रस्ताव में स्पष्टता के साथ व्यक्त किया गया है. यह तो बिल्कुल साफ है कि भारी बहुमत के साथ सत्ता में आयी भाजपा लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने में असफल रही है.

इसने जान-बूझ कर सीधे तौर पर कालाधन, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि या रोजगार बढ़ाने जैसे अपने चुनावी वादों को भुला दिया है. स्वतंत्रता के बाद किसी भी सरकार ने इस स्तर पर सामाजिक भेदभाव को न तो सहा है, न ही बढ़ावा दिया है और न ही जान-बूझ कर उकसाया है. ‘घर-वापसी’, ‘लव-जिहाद’, ‘बीफ पॉलिटिक्स’ जैसे कृत्रिम घृणास्पद अभियानों से लेकर भाजपा नेताओं के भड़काऊ बयान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के लिए छद्म-राष्ट्रवाद का इस्तेमाल तक समाज को बांटने के लिए सोची-समझी कोशिशें की गयी हैं.

इस सरकार से सबसे बड़ी निराशा संभवतः आर्थिक मोर्चे पर हुई है. हालांकि, सकल घरेलू उत्पादन के सात फीसदी के आसपास होने के विवादित आंकड़े के आधार पर भाजपा दावा करती है, पर लगभग किसी भी क्षेत्र में बढ़ोतरी दिखाई नहीं पड़ती है. निर्यात बीते 15 महीनों के सबसे निचले स्तर पर है और इसमें 13 फीसदी से अधिक की कमी आयी है. औद्योगिक उत्पादन घट रहा है.

वर्ष 2015 के पहले आठ महीनों में हुए निवेश में पूर्ववर्ती वर्ष की तुलना में 30 फीसदी की कमी आयी. कंपनियों की बिक्री में करीब छह फीसदी की गिरावट आयी है. पांच लाख करोड़ से अधिक के डूबे कर्जों के बोझ से बैंकिंग सेक्टर तबाह है. खुदरा मुद्रास्फीति, खासकर खाद्य मुद्रास्फीति, चिंताजनक है. यह निराशाजनक प्रदर्शन कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दामों में भारी कमी के अनुकूल माहौल के बावजूद है.

इस उपेक्षा का बड़ा शिकार कृषि क्षेत्र हुआ है. पिछले साल कृषि विकास की दर 0.02 फीसदी तक गिर गयी थी. इस अभूतपूर्व संकट की स्थिति में हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. दो वर्षों से सूखे की स्थिति है. इसके बावजूद खेती के लिए बजट आवंटन समुचित नहीं है, किसानों की लागत बढ़ी है. मनरेगा के भुगतान कम कर दिये गये और उनमें देरी की जा रही है. रोजगार के क्षेत्र में युवाओं को बड़ी निराशा हुई है.

भाजपा ने दो करोड़ नौकरियाें का वादा किया था. लेकिन ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात में रोजगार के सृजन में पिछले साल 43 हजार नौकरियां कम हुई हैं, जो कि पिछले छह वर्षों का सबसे खराब प्रदर्शन है. दरअसल, आरक्षण के लिए गुजरात में पाटीदारों, हरियाणा में जाटों, आंध्र प्रदेश में कापू और महाराष्ट्र में मराठों के व्यापक आंदोलन का कारण आर्थिक गिरावट और नौकरियों की भारी कमी ही है.

भाजपा ने ‘कोऑपरेटिव फेडरलिज्म’ का नारा भी दिया था. लेकिन अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में उसकी हरकतों ने इस नारे का मजाक बना दिया है तथा उसने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को फिर से प्रचलन में ला दिया है. केंद्र-राज्य संबंधों को सिर्फ केंद्र के हितों के पक्षपाती नजरिये से देखा जा रहा है.

भाजपा सरकार की विदेश नीति भी निराशाजनक है. विदेश नीति कोई इवेंट मैनेजमेंट की कवायद नहीं होती है. इसमें सावधानी से रणनीतिक योजनाएं बनायी जाती हैं. पड़ोसी देशों के मामले में यह योजनाबद्धता साफ दिखती है, जहां पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध बिखर चुके हैं और नेपाल के मामले में भारी रणनीतिक लापरवाही बरती गयी है.

भाजपा सरकार ने न तो शासन-संबंधी अपने वादों को पूरा किया, न ही ‘सबका साथ, सबका विकास’. भाजपा-आरएसएस की विरोधी राजनीतिक शक्तियों की एकजुटता के नीतीश कुमार के आह्वान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. इस आह्वान को प्रधानमंत्री की आकांक्षा के साथ जोड़ कर देखना गलत है. व्यापक विपक्षी एकता का उनका आह्वान सूक्ष्म विश्लेषण, वैचारिक स्पष्टता, व्यावहारिक राजनीति और भावी रणनीतिक योजना पर आधारित है, न कि व्यक्तिपरकता पर.

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