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सूखे पर कोर्ट की चिंता

यह भारतीय राजनीति की एक विडंबना ही है कि जो समस्या कार्यपालिका के स्तर पर सुलझ सकती है, उसे सुलझाने के लिए अक्सर सुप्रीम कोर्ट को आगे आना पड़ता है. सूखे की स्थिति को ही लें. मॉनसून की लगातार दो साल की बेरुखी से बेहाल खेतिहर भारत की तरफ केंद्र सरकार की नजर तब गयी, […]

यह भारतीय राजनीति की एक विडंबना ही है कि जो समस्या कार्यपालिका के स्तर पर सुलझ सकती है, उसे सुलझाने के लिए अक्सर सुप्रीम कोर्ट को आगे आना पड़ता है. सूखे की स्थिति को ही लें.
मॉनसून की लगातार दो साल की बेरुखी से बेहाल खेतिहर भारत की तरफ केंद्र सरकार की नजर तब गयी, जब एक स्वयंसेवी संगठन (स्वराज अभियान) ने सूखाग्रस्त इलाकों में राहत की मांग वाली जनहित याचिका के साथ अदालत का दरवाजा खटखटाया. याचिका पर सुनवाई के बाद अपने फैसले के पहले हिस्से में कोर्ट ने सूखे पर सरकारी उदासीनता को भांपते हुए टिप्पणी की है कि कमी संसाधनों की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की है.
सूखे की खबरों के बीच बीते नवंबर और दिसंबर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में हुए एक सर्वे से जाहिर हुआ कि लोगों को दो जून की रोटी तक नसीब नहीं हो रही है, पशुचारे की भारी कमी से मवेशी मर रहे हैं और कुएं-तालाब-बावड़ियों के सूखने से लोगों को पेयजल तक के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही है.
सूखे की मार झेल रहे महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक आदि में भी लोगों को फौरी राहत पहुंचाने की मांग नागरिक-संगठनों की तरफ से ही होती रही, जिसमें मनरेगा के तहत ज्यादा रोजगार और पीडीएस के जरिये फौरी तौर पर अनाज देने की मांग प्रमुख थी, लेकिन सरकार नहीं चेती.
स्थिति यह है कि बुंदेलखंड के कुछ इलाकों पर केंद्रित एक नया सर्वेक्षण फिर आया है और इसके निष्कर्षों के मुताबिक मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के 40 प्रतिशत गांवों में दो या उससे भी कम चापाकल चालू स्थिति में हैं, बस पांच प्रतिशत गांवों में मनरेगा का काम चल रहा है. वहीं यूपी के बुंदेलखंड इलाके में 41 प्रतिशत गांवों में पशुचारे की कमी के कारण पशुओं की मौत की रिपोर्ट है और 59 प्रतिशत गांवों में कुछ परिवार भयावह भुखमरी की हालत में हैं. यह स्थिति तब है, जबकि कृषिमंत्री 33 करोड़ लोगों के सूखा-प्रभावित होने की बात स्वीकारते हुए राहत-कार्यों की तफ्सील संसद को बता चुके हैं.
ऐसे में सरकार की तफ्सील और जमीनी हकीकत के बीच अंतर पाकर सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही निर्देश दिया है कि सरकार सूखे जैसी आपदा से निपटने के लिए विशेष कोष बनाये, आपदा-प्रबंधन अधिनियम को लागू करे और ऐसी योजना लेकर आये, जिससे समय रहते सूखे की स्थिति से निपटा जा सके. कोर्ट के निर्देश संकेत कर रहे हैं कि ग्रामीण भारत में व्यापे संकट को पहचानने और समाधान ढूंढ़ने की संवेदनशीलता सरकारें खोती जा रही हैं, इसलिए सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए नागरिक-समाज को सतर्क और संगठित रहना होगा.

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