खेत-खलिहान और किसान

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान मक्का की तैयारी के बाद खेत में धान सजाने की तैयारी शुरू हो चुकी है. खेत की जुताई कर अभी कुछ दिन छोड़ देना है. वैसे जिनके पास गड्ढे वाली ज़मीन है, वे इन दिनों गरमा धान की फसल काटने में लगे हैं. प्रकृति किसानी कर रहे लोगों के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 17, 2016 12:00 AM

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

मक्का की तैयारी के बाद खेत में धान सजाने की तैयारी शुरू हो चुकी है. खेत की जुताई कर अभी कुछ दिन छोड़ देना है. वैसे जिनके पास गड्ढे वाली ज़मीन है, वे इन दिनों गरमा धान की फसल काटने में लगे हैं. प्रकृति किसानी कर रहे लोगों के मन में ही अलार्म लगा देती है, ताकि हम नियम से मौसम के अनुसार कदम बढ़ाते रहें. किसानी में जुटे लोग-बाग इन दिनों खुश हैं. फसल अच्छी नहीं हुई है, इसके बावजूद खुश हैं.

दरअसल, किसान कम में भी खुश होना जानता है. इस बार मक्का की फसल बेमौसम बारिश और आंधी से प्रभावित हुई है, इसके बावजूद खेत से जितना भी खलिहान पहुंचा है, हम उससे खुश हैं. हम मक्का या अन्य किसी भी नकदी फसल के लिए बहुत कुछ दावं पर लगा देते हैं. नकदी फसल के रूप में मकई का कोई जोड़ नहीं है. मक्का की तैयारी जोर-शोर से हो रही है. ट्रैक्टर की फटफट आवाज देर रात तक सुनाई दे रही है. किसानों के लिए यह महीना सबसे थकाऊ साबित होता है. हम फरवरी से खेतों में लगातार उलझे रहते हैं. यह किसानी का सबसे लंबा फसल चक्र होता है.

अंचल में दिन और रात का अंतर अभी पता नहीं चल पा रहा है. धूल-धूसरित शरीर और माटी में डूबा मन इन दिनों माटी की कविता-कहानी में डुबकी लगा रहा है. मक्का खेत में ही तैयार होता है और कई किसान तो वहीं से फसल बाजार भेज देते हैं. हर किसान खेत में लगायी अपनी पूंजी निकालने में जुटा है.

किसानों के हाथों में कुछ पूंजी आ चुकी है. कोई भगैत करवा रहा है, तो कोई ग्राम्य देवता की पूजा-अर्चना. गाम के रामठाकुर स्थान से देर रात तक ढोलक की थाप सुनाई देती है. पलटन ऋषि की आवाज और हारमोनियम की धुन कान तक जब पहुंचती है, मन साधो-साधो करने लगता है. वहीं कबीर मठ से भी आवाज आ रही है. यह सब लिखते हुए मन बार-बार पूछ रहा है कि अंचल अब कैसा लग रहा है?

सवाल सुन कर मन ही मन मुस्कुराता हूं और कबीर की पाती बुदबुदाने लगता हूं- ‘कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर…’ पटवन और खाद-बीज के कर्ज में डूबा किसानी समाज मक्का की उपज से संतुष्ट है. कर्ज अदायगी के बाद उनका मन हरा दिख रहा है. नयी फसल से उन्हें काफी उम्मीदें हैं. बिहार में इन दिनों पंचायत चुनाव के लिए मतदान हो रहे हैं. खेती-बाड़ी का असर ग्रामीण राजनीति पर भी दिख रहा है. फसल से हुई आमदनी चुनावी गणित हल करने में भी जा रही है.

खैर, अंचल की रात मुझे इन दिनों लिखते रहने की सलाह दे रहा है. मौसम की मार सह कर भी अंचल मुझे बता रहा है कि लिखते रहो, ठीक वैसे ही जैसे धरती फसल देती रहती है. फसल की तरह शब्दों की भी खेती करते रहने की सोचने लगा हूं. फिलहाल नहर के उस पार से कुछ आवाजें आ रही हैं. घड़ी की तरफ देखता हूं तो सुबह के तीन बज रहे हैं. भैंसवार की आवाज पहचान जाता हूं. पस्सर खोलने का समय है, भैंसवार गीत गा रहा है. आवाज में विरह है, बिना शास्त्रीय ज्ञान के ही भैंसवार हमें शास्त्रीय संगीत सुना रहा है.

आंखों से नींद गायब है और मैं किसानी के संग रेणु की लिखी बातों में डूबने लगता हूं. घर के आगे जूट के बोरे में मक्का को देख कर अनायस ही फणीश्वर नाथ रेणु की एक चिट्ठी का स्मरण हो जाता है. उसमें रेणु कोसी इलाके में बलुआही जमीन पर हो रही खेती का जिक्र करते हैं. वे लिखते हैं- ‘पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से हमारे इलाके उत्तर बिहार के कोसी कवलित अंचल में एक नयी जिंदगी आ रही है.

हरियाली फैल रही है… फैलती जा रही है ‘बालूचरों’ पर. बंजर धूसर पर रोज-रोज हरे, पीले और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं.’

सचमुच बंजर जमीन पर कदंब के संग धान-मक्का और गेहूं की खेती मुझे पेंटिंग ही लगती है. खेत मेरे लिए कैनवास बन जाता है और किसानी कर रहे लोग पेंटर की तरह नजर आने लगते हैं. मन शांत हो जाता है.

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