छद्म-धर्मनिरपेक्षता पर निशाना

उदारता अपने नजदीक पनपती कट्टरता की अनदेखी कर खुद को खतरे में डालती है. मिसाल के लिए, धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों के सिद्धांत को हवा देनेवाले जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के तुरंत बाद अपने मुल्क के भावी सेक्युलर चरित्र की नींव रखने की कोशिश में कहा कि राजकीय मामलों के लिहाज से न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 17, 2016 12:01 AM
उदारता अपने नजदीक पनपती कट्टरता की अनदेखी कर खुद को खतरे में डालती है. मिसाल के लिए, धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों के सिद्धांत को हवा देनेवाले जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के तुरंत बाद अपने मुल्क के भावी सेक्युलर चरित्र की नींव रखने की कोशिश में कहा कि राजकीय मामलों के लिहाज से न तो कोई मुसलमान होगा और न ही कोई हिंदू.
लेकिन, जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान की संविधान सभा पर हावी कट्टरपंथी तत्वों ने उनके सोच से किनारा करते हुए प्रस्ताव रखा, कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने पाकिस्तानी जनता के माध्यम से राजसत्ता को अधिकार प्रदान किया है कि वह ईश्वरीय आज्ञा के दायरे में रहते हुए शासन चलाये. इस प्रस्ताव के विरोध में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से कांग्रेस के सदस्य श्रीशचंद्र चट्टोपाध्याय ने दो बेजोड़ तर्क दिये थे.
एक तो यह कि लोकतंत्र में जनता साधन नहीं, संप्रभु होती है; सो किसी ईश्वर द्वारा जनता को साधन बनाने का सवाल ही नहीं उठता. दूसरे, लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजसत्ता का जन-कल्याण के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं होता, सो धर्म चाहे अल्पसंख्यकों का हो या बहुसंख्यकों का, लोकतंत्र में राजसत्ता उसके प्रति तटस्थ रूप अपनाती है; किसी धर्म को कोई रियायत नहीं देती, न ही किसी के प्रति विशेष सहिष्णुता का बर्ताव करती है.
श्रीशचंद्र की इसी समझ की झलक उनके हमवतन तसलीमा नसरीन की उन टिप्पणियों में भी बार-बार मिलती रही है, जिनमें वे धार्मिक कट्टरता को लेकर चलनेवाली बहसों के पूर्वाग्रहों को निशाना बनाती हैं. एक हालिया साक्षात्कार में तसलीमा ने फिर कहा है कि भारत के वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवी हिंदू कट्टरपंथ की तेवर के साथ आलोचना करते हैं, लेकिन इसलामी कट्टरपंथ पर चुप्पी मार जाते हैं, जबकि इसलामी कट्टरपंथ भी समान रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, महिलाओं के हक या कह लें सामाजिक लोकतंत्र का विरोधी है.
धर्मनिरपेक्षता हर किस्म की कट्टरता के विरुद्ध है, इस तथ्य की अवहेलना करने के चलते ही वाम एवं उदारवादी बुद्धिजीवियों पर छद्म-सेक्युलर होने के आरोप लगते रहे हैं. जाहिर है, ये बुद्धिजीवी जब तक यह नहीं स्वीकार कर लेते कि कट्टरता का रंग भगवा हो या हरा, हर हाल में आदमी की मूलभूत जरूरत यानी स्वतंत्रता की विरोधी है, तब तक धार्मिक कट्टपरपंथ की उनकी आलोचनाएं एकांगी ही रहेंगी.

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