संभल कर बोलें नेता
कर्म, व्यवहार और वाणी की शुचिता मानव जीवन के महत्वपूर्ण मूल्य हैं. सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों के लिए ये मूल्य और भी जरूरी हो जाते हैं. ऐसे में यह चिंताजनक है कि आज के बहुत से राजनेताओं में इन मूल्यों का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है. उत्तेजक बयान, तीखी टिप्पणियां और अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप उनकी […]
कर्म, व्यवहार और वाणी की शुचिता मानव जीवन के महत्वपूर्ण मूल्य हैं. सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों के लिए ये मूल्य और भी जरूरी हो जाते हैं. ऐसे में यह चिंताजनक है कि आज के बहुत से राजनेताओं में इन मूल्यों का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है. उत्तेजक बयान, तीखी टिप्पणियां और अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप उनकी राजनीति के मूल स्वर बनते जा रहे हैं. इसी कड़ी में पिछले दिनों एक टेलीविजन चैनल के कार्यक्रम में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संदर्भ में एक बेमानी टिप्पणी की. अल्वी अनुभवी नेता हैं.
उन्हें किसी बात के कहे जाने के मतलब और उस पर होनेवाली संभावित प्रतिक्रियाओं की समझ भी है. इसलिए यह स्वीकार कर पाना कठिन है कि उनका इरादा गूगल सर्च द्वारा प्रधानमंत्री को ‘दुनिया का सबसे मूर्ख प्रधानमंत्री’ बताये जाने पर सरकार द्वारा कार्रवाई नहीं करने की आलोचना करना था. उनके हाव-भाव और ऐसे बेतुके मुद्दे को उठाने से स्पष्ट है कि वे जान-बूझ कर इस पर विवाद खड़ा करना चाहते थे. अल्वी इस निंदनीय खेल के मंजे खिलाड़ी भी हैं. वर्ष 2013 में उन्होंने नरेंद्र मोदी को ‘यमराज’ कह दिया था.
देश में लोकतंत्र और संसदीय मर्यादाओं को स्थापित करने में कांग्रेस की उल्लेखनीय भूमिका रही है. यदि वर्तमान कांग्रेस पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की विरासत का वारिस होने का दावा करती है, तो उसे उन राजनीतिक आदर्शों पर भी गौर करना चाहिए, जो उन नेताओं ने अपने आचार-व्यवहार से स्थापित किये हैं. उन नेताओं को भी विरोधी पार्टियों की आलोचना का सामना करना पड़ता था. नीतियों और विचारधाराओं पर टकराव तब भी होते थे. लेकिन, असहमतियों और कठोर आलोचनाओं को झेलने के बावजूद, यह नहीं कहा जा सकता है कि नेहरू, इंदिरा या राजीव गांधी ने कभी अपने विरोधियों को घटिया शब्दों के प्रयोग से अपमानित करने की कोशिश की. नेहरू अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के परम पक्षधर थे, लेकिन 1951 में एक संसदीय चर्चा में उन्होंने कहा था कि इस अधिकार की एक सीमा निर्धारित होनी चाहिए. उन्होंने संस्कृति के बारे में कहा था कि इसका संबंध मन-मस्तिष्क के विस्तार से है तथा इसमें सोच की संकीर्णता के लिए स्थान नहीं है.
नेहरू के बारे में उनके धुर आलोचक पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कभी कहा था कि ‘इस व्यक्ति ने मनुष्य के स्वभाव की दो सबसे बड़ी कमियों पर जीत हासिल कर ली है- वे न तो भय को जानते हैं और न ही घृणा को’. चर्चिल के इस कथन को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1988 में ‘गांधी मार्ग’ के लिए लिखे आलेख में उद्धृत किया था. व्यापक तौर पर लोकप्रिय और प्रभावशाली नेहरू संसद के भीतर और बाहर अपने विरोधियों का मान रखते थे और उनकी आलोचनाओं को ध्यान से सुनते थे. कमोबेश यह गुण इंदिरा गांधी और राजीव गांधी समेत कांग्रेस के पूर्व के बड़े नेताओं में भी रहा है. इसलिए पार्टी के मौजूदा नेताओं से इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वे अपने महान नेताओं के बारे में जानें, समझें और उनसे सीखें. क्या कांग्रेस अल्वी के रवैये की अलोचना करेगी और वे स्वयं आत्ममंथन कर भविष्य में ऐसी गलती से परहेज करेंगे?
बहरहाल, इस कमजोरी से सिर्फ कांग्रेस ही ग्रस्त नहीं है. कई अन्य पार्टियों के नेता भी ऐसे अनर्गल बयान देते रहते हैं, जो न सिर्फ अमर्यादित होते हैं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक परंपरा के विकास के लिए घातक भी होते हैं. दो दिन पहले वरिष्ठ भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बारे में कहा कि वे ‘मानसिक रूप से पूरी तरह भारतीय नहीं हैं’. ऐसे अनर्गल प्रलाप और अपमानजनक संज्ञाएं देना स्वामी की राजनीति बन गयी है. भाजपा के कुछ मंत्री और सांसद बात-बात पर विरोधियों को पाकिस्तान भेजने जैसी बेतुकी धमकियां भी देते रहते हैं. किसी को भी ‘देशद्रोही’ बता देना उनकी आदत सी बन गयी है. इसलिए भाजपा नेतृत्व को भी ऐसे अपमानजनक एवं भड़काऊ बयानों को रोकने की कोशिश करनी चाहिए.
दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि ऐसे नेताओं के जरिये आरोप-प्रत्यारोपों द्वारा अभद्रता की हर सीमा को लांघ जाना अब चुनाव प्रचार की देशव्यापी विशेषता बन रही है. राजनीतिक मंचों के आगे यह बीमारी नेताओं की सोशल मीडिया गतिविधियों में भी दिखने लगी है, जहां वे मान-मर्यादा से परे सतही टिप्पणियों या ट्वीट से विरोधियों की चुटकी लेते हैं. जब राजनेता ऐसी निंदनीय हरकत करेंगे, तब उनके समर्थक भी ऐसा ही रास्ता अपनायेंगे. यह हो भी रहा है. कई मौकों पर राजनीतिक विरोध सामाजिक शत्रुता का रूप ले लेता है. इससे विरोधियों के बीच स्वस्थ बहसों और विचारों के आदान-प्रदान की गुंजाइश कमतर होती जा रही है. यह लोकतंत्र के संकटग्रस्त होने की सूचना है. इस संकट के समाधान के लिए राजनीतिक दलों तथा मर्यादा, मूल्यों और आदर्शों की परवाह करनेवाले वरिष्ठ राजनेताओं को सामूहिक रूप से पहल करनी होगी, अन्यथा लोकतंत्र की मजबूती और विकास की आकांक्षाओं को पूरा कर पाना कठिन हो जायेगा.