असम का संदेश दूर तक जायेगा

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार गुरुवार को चुनाव का ट्रेंड आने के थोड़ी देर बाद ही राहुल गांधी के दफ्तर ने ट्वीट किया, ‘हम विनम्रता से जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं. चुनाव जीतनेवाले दलों को मेरी शुभकामनाएं.’ एक और ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘पार्टी लोगों का भरोसा जीतने तक कड़ी मेहनत करती रहेगी.’ इस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 20, 2016 12:40 AM
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
गुरुवार को चुनाव का ट्रेंड आने के थोड़ी देर बाद ही राहुल गांधी के दफ्तर ने ट्वीट किया, ‘हम विनम्रता से जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं. चुनाव जीतनेवाले दलों को मेरी शुभकामनाएं.’ एक और ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘पार्टी लोगों का भरोसा जीतने तक कड़ी मेहनत करती रहेगी.’ इस औपचारिक सदाशयता को अलग रखते हुए सवाल पूछें कि अब पार्टी के सामने विकल्प क्या हैं? वह ऐसा क्या करेगी, जिससे लोगों का भरोसा दोबारा जीता जा सके. पांच राज्यों की विधानसभाओं के परिणामों का निहितार्थ अगले साल होनेवाले चुनावों में देखने की कोशिश करनी चाहिए.
पिछले दो साल में कांग्रेस को हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में हार मिली है. इस दौरान उसे अकेली जीत अरुणाचल में मिली थी, जहां बगावत के बाद वह सरकार भी हाथ से गयी. यह कहानी उत्तराखंड में भी दोहरायी गयी, पर बीजेपी की केंद्रीय सरकार की उतावली और नादानी के कारण वह बगावत विफल हो गयी, पर वह अभी तक तार्किक परिणति तक नहीं पहुंची है. अब कांग्रेस के हाथ से असम और केरल दो राज्य और चले गये. कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा है, शेष हैं-उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम. इसलिए इन चुनाव परिणामों का बड़ा संदेश कांग्रेस के नाम है.
केरल में पराजय के पीछे स्वाभाविक ‘एंटी इनकम्बैंसी’ है. मुख्यमंत्री ओमान चैंडी और कुछ मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं. पार्टी को वाममोर्चे ने हराया है, जो बंगाल में उसका सहयोगी दल है. ‘बंगाल में दोस्ती और केरल में कुश्ती’ की रणनीति कांग्रेसी रणनीति के दोषों को उजागर करती है. ये परिणाम अगले साल होनेवाले चुनावों को और उनके बाद होनेवाले चुनावों को भी प्रभावित करेंगे. अंततः यह कहानी 2019 के लोकसभा चुनाव पर खत्म होगी?
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे. पिछले साल कांग्रेस ने जेडीयू और आरजेडी के साथ महागंठबंधन का रास्ता चुना था.
लेकिन, असम में एआइयूडीएफ के साथ गठबंधन के लिए पार्टी तैयार नहीं हुई. बंगाल और असम में मुसलिम वोट महत्वपूर्ण था. यह वोट उत्तर प्रदेश में भी महत्वपूर्ण होगा, पर वहां कोई प्रभावशाली दोस्त अभी तक नहीं मिला है. यूपी में इस वोट पर मुलायम सिंह का कब्जा है. पार्टी यदि असम और बंगाल में सफल होती, तभी उत्तर प्रदेश पर असर पड़ता, भले ही वह केरल में हार जाती. दिक्कत यह है कि पार्टी को मुसलिम वोट चाहिए, मुसलिम परस्त पार्टी की छवि नहीं चाहिए. उसे बीजेपी का विरोध करना है, पर हिंदू विरोधी छवि नहीं चाहिए.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा कि वे कार्यकर्ताओं से पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिंदू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है. पचास के दशक में जब हिंदू कोड बिल पास हुआ था, तबसे कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं. पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आयी. साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिंदू विरोधी साबित नहीं कर सका.
अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी छवि हिंदू-मुखी बनाने का प्रयास किया. राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि आंदोलन का रुख अपनी ओर मोड़ने की कोशिश भी की. अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास कराने के कार्यक्रम कांग्रेस सरकार के इशारे पर ही हुए थे. लोकसभा चुनाव के बाद एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव वाली अपनी छवि को सुधारना होगा.
असम में बीजेपी ने ‘बाहरी लोगों’ को लेकर इस राज्य की बेचैनी का फायदा उठाया. लगे हाथ कांग्रेस से आये हिमंत विश्व शर्मा का लाभ भी पार्टी को मिला. हिमंत ने कांग्रेस क्यों छोड़ी? राहुल गांधी के कारण. पार्टी में सुनवाई नहीं होती. यह शिकायत पंजाब और यूपी के कार्यकर्ताओं को भी है. पंजाब में अकाली दल की बदनामी का लाभ कांग्रेस उठाने की स्थिति में नहीं है.
शायद आम आदमी पार्टी बगैर मजबूत संगठनात्मक आधार से लाभ उठा लें. अगले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे. राज्यों में पराजय का मतलब है दीर्घकालीन नुकसान. लोकसभा चुनाव के पहले 2018 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे. इन चारों राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दांव पर होगी.
इन चुनावों के साथ गुजरात, झारखंड, तेलंगाना और यूपी में उप चुनाव भी हुए हैं. उत्तर प्रदेश में बिलारी और जंगीपुर की दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली है. सपा के लिए यह प्रतिष्ठा का सवाल बना हुआ था, क्योंकि हाल में मुजफ्फरनगर उपचुनाव में भाजपा ने सपा प्रत्याशी को हरा दिया था. इसके बाद शामली जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में भी सपा प्रत्याशी की हार हुई थी. लोकसभा चुनाव के बाद 2014 में बिहार और उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों में भाजपा की हार हुई थी.
बिहार के उप चुनावों ने महागंठबंधन की परिकल्पना को जन्म दिया था. पर इस बार असम में ऐसा गंठबंधन नहीं बन सका. पंजाब में इस किस्म के गंठबंधन की खास संभावना नहीं है. उत्तराखंड में चुनाव फरवरी में होने हैं. संभावना इस बात की है कि कांग्रेस उससे पहले विधानसभा भंग कराने का फैसला कर सकती है, ताकि हमदर्दी के वोट मिलें. उत्तराखंड, गुजरात, गोवा और हिमाचल में कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला होगा.
बीजेपी को असम में मिली सफलता यूपी में मनोबल बढ़ायेगी. उत्तर प्रदेश में पार्टी दलित और ओबीसी वोट को अपनी ओर खींचना चाहती है. इसीलिए उसने केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष बनाया है. इसके साथ वह मंदिर का मसला भी उठायेगी. असम में उसने बांग्लादेशी घुसपैठियों का सवाल उठाया था. लेकिन, पंजाब में यह मसला ज्यादा मदद नहीं करेगा, बल्कि अकाली दल का साथ नुकसान पहुंचायेगा. ‘एंटी इनकम्बैंसी’ का सामना उसे करना होगा.

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