राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग
कर्नाटक के चुनाव परिणाम यह साबित करते हैं कि पार्टी व्यवस्था में सामंती गवर्नेस के दिन लद गये हैं. अब राज्य खुद को संप्रभु और स्वतंत्र राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर देखने लगे हैं. बीते काफी समय से राष्ट्रीय चुनावों के नतीजे राज्यों के चुनाव परिणामों के कुल जोड़ का रूप ले चुके हैं. ऐसे […]
कर्नाटक के चुनाव परिणाम यह साबित करते हैं कि पार्टी व्यवस्था में सामंती गवर्नेस के दिन लद गये हैं. अब राज्य खुद को संप्रभु और स्वतंत्र राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर देखने लगे हैं.
बीते काफी समय से राष्ट्रीय चुनावों के नतीजे राज्यों के चुनाव परिणामों के कुल जोड़ का रूप ले चुके हैं. ऐसे में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इस धारणा को पुख्ता कर दिया है कि 2014 के आम चुनाव की उल्टी-गिनती शुरू हो गयी है.
दिल्ली राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और मिजोरम में नवंबर में होनेवाले चुनाव 2014 के आम चुनाव के राष्ट्रीय एजेंडे को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे. हालांकि मतदाताओं का मूड अकसर परिवर्तनशील होता है और राज्य स्तरीय भावनाएं क्षेत्रों के हिसाब से बदलती हैं, लेकिन कर्नाटक के चुनावों ने यह साबित कर दिया है कि राज्य के मतदाता बदलाव को प्राथमिकता देते हैं. 1985 के बाद से वहां की जनता ने कभी भी सत्ताधारी दल को पुनर्निर्वाचित नहीं किया है.
दूसरे शब्दों में इस क्षेत्रीय परिणाम ने जरूर कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय चुनाव प्रबंधकों को प्रफुल्लित किया होगा और कर्नाटक के राजनीतिक मामलों का कुशल प्रबंधन करने के लिए पार्टी महासचिव मधुसूदन मिस्त्री के कद को बढ़ाया होगा.
कर्नाटक के नतीजे कांग्रेस में चल रही विभिन्न सामाजिक समूहों का गंठबंधन बनाने और मजबूत स्थानीय नेताओं को बढ़ावा देने पर टिकी क्षेत्र आधारित राजनीति की ओर बढ़ने की एक स्पष्ट प्रक्रिया की ओर भी इशारा कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी के पिछड़े कुरुबा समुदाय के लोकप्रिय नेता सिद्धरमैया को गुप्त मतदान के जरिये नेता चुनने के फैसले में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मजबूत क्षेत्रीय नेताओं को तैयार करने की रणनीति की छाप दिखाई देती है.
हालांकि योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन पूरी तरह से भाई-भतीजावाद या जोड़तोड़ से मुक्त नहीं था. इससे एसएम कृष्णा समेत कई वरिष्ठ नेता नाराज भी हो गये. लेकिन यह निश्चित तौर पर अधिक व्यवस्थित और सिद्धरमैया के ‘अहिंदा फॉमरूले’ पर आधारित था, जिसने अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी), दलितों और अल्पसंख्यकों के इंद्रधनुषी गंठबंधन का समर्थन सुनिश्चित किया.
केंद्रीय मंत्री मल्लिकाजरुन खड़गे और कर्नाटक प्रदेश अध्यक्ष जी परमेश्वरा के दलित होने ने भी अहिंदा की सफलता को लेकर जरूरी संदेश पहुंचाने का काम किया. यह देवराज उर्स के सोशल इंजीनियरिंग के उस फॉमरूले से प्रेरित था, जो दो प्रभावशाली जातियों- लिंगागत और वोक्कलिगा के महत्व को कम करता है और ओबीसी, दलितों और अल्पसंख्यकों का एक जिताऊ गंठबंधन खड़ा करता है.
सिद्धरमैया का अहिंदा (अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित) फॉमरूला, एक दौर में गुजरात में माधवसिंह सोलंकी द्वारा साधे गये खाम (क्षत्रिय, आदिवासी और मुसलिम) जैसा ही है. यह समीकरण कर्नाटक में शोषितों और गरीबों के सफल राजनीतिक गंठबंधन के प्रतीक के तौर पर उभरा है.
सोशल इंजीनियरिंग में यह विकास परंपरागत राजनीतिक की उस भव्य रणनीति के पुररुत्थान की संभावना को बल दे रहा है, जिसे प्रसिद्ध राजनीतिक विेषक रजनी कोठारी ने ‘राजनीतिक सामंजस्य’ कहा था. नेहरू के दौर में कांग्रेस ने मोलभाव और सामंजस्य की इस राजनीतिक कला में महारथ हासिल कर ली थी.
इसके उलट भाजपा ने येदियुरप्पा के लिंगायत वोट के मिथक को स्वीकार कर लिया और विभिन्न जातियों और वर्गो का गंठबंधन बनाने की समय की कसौटी पर खरी उतरी रणनीति को खारिज कर दिया. हिंदू कट्टरपंथी एजेंडे को लागू करने की कोशिशों ने सिर्फ आरएसएस से जुड़े संगठनों को ही उत्साहित किया.
यह हिंदू जातियों और वर्गो को जोड़ने में असफल रही. येदियुरप्पा के विद्रोह के बाद भाजपा की दिशाहीनता स्पष्ट थी. संगठनात्मक तौर पर कमजोर और सीमित सामाजिक आधार होने के कारण न ही भाजपा का लिंगायत वोट, न ही जनता दल(एस) का वोक्कलिगा वोट पर प्रभाव कांग्रेस को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने से रोक पाया. हालांकि कांग्रेस का वोट प्रतिशत 2008 के 34.76 प्रतिशत से बढ़ कर 2013 में 36.54 ही हुआ, लेकिन पार्टी 41 सीटें ज्यादा जीतने में कामयाब रही.
भाजपा के मत प्रतिशत में 2008 के 33.86 फीसदी की तुलना में 13 फीसदी की बड़ी गिरावट हुई. कर्नाटक में इस बार डाले गये कुल 3.12 करोड़ मतों में कांग्रेस को 1.14 करोड़ मत मिले. यह एक उपलब्धि है. अभी तक किसी राजनीतिक दल को यहां इतने वोट नहीं मिले. हालांकि कांग्रेस पिछले पांच वर्षो में दस लाख से भी कम मतदाताओं को अपने साथ जोड़ पायी. यह कर्नाटक के कमजोर इंद्रधनुषी गंठबंधन की ओर इशारा करता है.
कर्नाटक के चुनाव परिणाम यह साबित करते हैं कि पार्टी व्यवस्था में सामंती गवर्नेस के दिन लद गये हैं, और अब राज्य खुद को संप्रभु और स्वतंत्र राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर देखने लगे हैं.
इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी, नवीन पटनायक, रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान, ममता बनर्जी, जयललिता जैसे क्षेत्रीय नेता, क्षेत्रीय क्षत्रप जैसी उपाधि को पीछे छोड़, एक तरह से अपने-अपने क्षेत्र के शासक बन गये हैं. ऐसे में इंद्रधनुषी गंठबंधन की सफलता नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति के लिए खुशखबरी है.
उन्होंने पिछड़ी जातियों, खासकर अति पिछड़े समूहों, दलितों, अल्पसंख्यकों और उच्च जातियों के महत्वपूर्ण हिस्से, खासकर गरीब उच्च जातियों का गंठबंधन तैयार किया है. हालांकि वह नरेंद्र मोदी के ब्रांडवाली हिंदुत्व की राजनीति लगातार खारिज करते रहेंगे, लेकिन उनका ‘अतियों के गंठबंधन (कोलिशन ऑफ एक्सट्रीम्स) का प्रयोग बिहार में राजनीतिक सांमजस्य के एक अंतर्विरोधी लेकिन सफल मॉडल का उदाहरण पेश करता है. ऐसा प्रतीत होता है कि 2014 के चुनावों में यह अपनी सफलता को दोहरायेगा.
बिहार में इंद्रधनुषी गंठबंधन से रहित और जन राजनीति से दूर कांग्रेस की वापसी सिर्फ चमत्कार से ही हो सकती है.
इसके उलट लालू यादव की बड़ी परिवर्तन रैली आरजेडी में परिवार और सामंती राजनीति की दुखद गाथा को जारी रखने के रूप में ही खत्म हुई. वे अपने सालों से अपने बेटों की ओर सत्ता का हस्तांतरण करने को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. यह दुखद है कि लालू यादव बिहार के परिश्रमी, आधुनिकतावादी और उद्यमी जनता की आकांक्षाओं की लगातार अनदेखी कर रहे हैं.
परिवर्तन रैली की तुलना अहंकार रैली से कर एक मंत्री ने बिहार के मतदाताओं के राजनीतिक रुख का बेजोड़ आकलन किया. लालू यादव को कर्नाटक परिणामों से दो बातें सीखने की जरूरत है. पहला, उन्हें व्यापक सामाजिक सामंजस्य बनाना होगा. साथ ही यह समझना होगा कि नये बिहार में पति, पत्नी और पुत्र की राजनीति काम नहीं आयेगी.
।। अश्विनी कुमार ।।
(टीआइएसएस में प्रोफेसर)