रवैया सुधारें राजनीतिक दल
आज हम बेहताशा बढ़ते नगरीकरण, नष्ट होती खेती, दूषित पर्यावरण, विस्थापन, गरीबी, हिंसा तथा लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था आदि समस्याओं के उस गर्त की ओर बढ़ते जा रहे हैं, जहां से वापसी करना बड़ा मुश्किल है. हम अभी तक इन समस्याओं के कारण और निवारण की पहचान ही ढंग से नहीं कर पाये हैं. धीरे-धीरे ये समस्याएं […]
आज हम बेहताशा बढ़ते नगरीकरण, नष्ट होती खेती, दूषित पर्यावरण, विस्थापन, गरीबी, हिंसा तथा लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था आदि समस्याओं के उस गर्त की ओर बढ़ते जा रहे हैं, जहां से वापसी करना बड़ा मुश्किल है. हम अभी तक इन समस्याओं के कारण और निवारण की पहचान ही ढंग से नहीं कर पाये हैं. धीरे-धीरे ये समस्याएं लाइलाज बनती जा रही हैं, लेकिन अब भी इनके निराकरण के लिए गंभीर और सकारात्मक विमर्श होता कहीं नजर नहीं आ रहा है.
इस स्थिति के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां हैं. कांग्रेस ने तो आजादी के बाद से ही कुछ छोटे समयकाल को छोड़ कर लगातार देश पर राज किया. लेकिन राष्ट्रीय समस्याओं को ठोस और स्थायी निराकरण करने के बजाय वह ज्यादातर वोट बैंक बनाने और उसके बूते सत्ता में बने रहने के खेल में लगी रही. इसीलिए आज नये तरीके और नयी कार्यसंस्कृति को विकसित करने की क्षमता वह खो चुकी है. यही कारण है कि हालिया संपन्न विस चुनावों में दिल्ली सहित ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस की दुर्गति हुई.
चुनाव परिणाम जनता के गुस्से का प्रकटीकरण रहे. दिल्ली के परिणामों ने बीजेपी को भी आईना दिखा दिया कि समस्याओं के मूल पर चोट करने में सत्ता और विपक्ष में रहने के दौरान वह भी विफल रही. यदि सिर्फ दिल्ली की बात करें तो जिस ‘आप’ पार्टी ने बिजली की समस्या को उठा कर जनता को लामबंद किया, भाजपा उसमें विफल रही. अब उसके नेता हताशा में कह रहे हैं कि आप अन्ना आंदोलन की उपज हैं. लेकिन उस समय इन्होंने ही कहा था कि चुनाव लड़ो, सत्ता में आओ और खुद ही लोकपाल बना लो. अब भी वक्त है कि प्रमुख दल अपनी भूमिका पर आत्मचिंतन करें, अन्यथा जनता विकल्प तलाशेगी.
सूरजभान सिंह, गोमिया, बोकारो