अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
दो वर्ष पूर्व आज के ही दिन इतिहास रच मोदी-सरकार सत्तारूढ़ हुई थी. लगभग छह दशकों के संघर्ष और इंतजार के बाद दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी राजनीति का अपनी बहुमत की सरकार का सपना पूरा हुआ था. पर क्या देश की दशा और दिशा को बदलने के लिए मिले इस दुर्लभ अवसर का लाभ मोदी-सरकार उठा रही है? क्या एक बड़े तबके की उम्मीदों और समर्थन के सहारे सत्ता में आयी सरकार अपने वादों को निभा पा रही है?
सरकार के काम-काज पर सबसे प्रमाणिक मोहर भारतीय राजनीति के शीर्ष-पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने लगायी.उनके आकलन का महत्त्व है, क्योंकि वे बिना सोचे-विचारे कुछ नहीं कहते और अपनी राय बिना किसी दबाव के बेबाकी से रखते हैं. उन्होंने कहा कि इस सरकार ने लोगों की अपेक्षा से ज्यादा काम किया है और इतना किया है जितना किसी भी सरकार के दो वर्षों के कार्यकाल में नहीं हुआ. दरअसल, जिस तरह से बिना अवकाश के मोदी निरंतर कार्य कर रहे हैं और नित नयी योजनाओं को ला रहे हैं, उससे तो ऐसा ही लगता है.
देश में तरक्की के मानकों का रुख भी सकारात्मक है. हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर आज दुनिया में सबसे ज्यादा है. राजस्व-घाटा नगण्य रह गया है. मुद्रास्फीति की दर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी है. विदेशी-निवेश बढ़ रहा है. राजकोषीय-घाटा कम हो रहा है. शहरी और ग्रामीण गरीबों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास हो रहे हैं. सामाजिक-सुरक्षा की दिशा में बड़े कदम उठाये गये हैं. सब्सिडी का पैसा लाभार्थियों तक सीधे पहुंचाने से लेकर सरकारी कार्य-कलापों में पारदर्शिता बढ़ाने जैसे कदमों ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का कार्य किया है.
सार्थक और जनोपयोगी योजनाओं की तो जैसे बाढ़ आ गयी है- प्रधानमंत्री जन-धन योजना, मुद्रा-योजना, किसानों के लिए फसल-बीमा योजना व इ-ट्रेडिंग प्लेटफाॅर्म की सुविधा, सुकन्या-समृद्धि योजना, उज्ज्वला योजना, अटल पेंशन योजना, सांसद आदर्श-ग्राम योजना, प्रधानमंत्री ग्राम-सिंचाई योजना, जन-औषधि योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम-ज्योति योजना, ग्रामीण कौशल्य योजना आदि. साथ ही पूरे देश में लागू मेक-इन-इंडिया, स्वच्छ-भारत, डिजिटल-इंडिया व स्किल-इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों ने नयी आशाओं और आकांक्षाओं को जन्म दिया है.
ऐसा लगता है कि पिछले 60 साल की कमी को प्रधानमंत्री मोदी पांच सालों में ही पूरा करना चाहते हैं. पर इतने सब होने के बाद भी सभी खुश हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता. लोगों की अपेक्षाएं बहुत हैं. ऐसे में निराशाएं भी बड़ी हैं. सरकार के सकारात्मक कार्यों को सरकार के मंत्री और पार्टी-प्रवक्ता जनता तक पहुंचाने में नाकाम हो रहे हैं. पहुंच रही हैं, तो बस नकारात्मक खबरें.
अर्थशास्त्री आरोप लगा रहे हैं कि विकास भले ही हो रहा हो, रोजगार-सृजन नहीं हो रहा है. देश में बेरोजगारी बढ़ रही है. पार्टी के प्रवक्ता बचाव की मुद्रा में हैं. वे लोगों को सरकार के प्रयासों के बारे में नहीं बता पा रहे हैं.
उदाहरण के तौर पर, अकेले जहां प्रधानमंत्री मुद्रा-योजना में लगभग दो करोड़ छोटे उद्यमियों को 70 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के ऋण बांटे गये हैं, इससे निश्चय ही बड़ी मात्रा में रोजगार सृजित होगा.
उधर थोक-मुद्रास्फीति भले ही कम हुई हो, पर दालों की बढ़ती कीमतों और मौसम की मार से सब्जियों की कम आवक से खुदरा महंगाई बढ़ी है. तेल के अतंरराष्ट्रीय बाजार में दाम कम होने के बावजूद पेट्रोल-डीजल के दामों में पर्याप्त कमी न होने से भी महंगाई में इजाफा हुआ है. एक बड़ा तबका इससे नाराज है.
विदेश-नीति के मोर्चे पर मिश्रित उपलब्धि हासिल हुई है. एक ओर जहां विश्व में भारत का रुतबा बढ़ा है, वहीं पड़ोसियों के साथ हमारे संबंधों पर प्रश्नचिह्न भी लग रहे हैं.
देश के निर्यात में पिछले 19 महीनों से लगातार गिरावट हो रही है. कालेधन की वापसी को लेकर कदम तो उठाये गये हैं, पर चुनाव-पूर्व किये वादों को देखते हुए ये बहुत कम हैं. सरकार का मुख्य समर्थक मिडिल-क्लास बढ़ते टैक्स से नाराज है. सर्विस-टैक्स की बढ़ी दरों ने छोटे व्यापारियों के काम पर असर डाला है.
सरकार किसानों की हितैषी है, पर किसान बदस्तूर आत्महत्या कर रहे हैं. बुंदेलखंड में अब भी लोग भुखमरी से मर रहे हैं. इसका मुख्य कारण लगातार दो वर्षों से पड़नेवाला सूखा है, पर विरोधी इसके लिए सरकार को घेर रहे हैं. भाजपा नेता अपने क्षेत्रों में और प्रवक्ता टीवी चैनलों में सरकार की गलती न होते हुए भी सफाई देने में लगे हैं. नकारात्मकता सकारात्मकता पर हावी हो रही है. सत्ता के खुमार में डूबी पार्टी की अपने बड़े समर्थक वर्ग से दूरी बढ़ रही है. वही समर्थक जिन्होंने 2014 के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी की लड़ाई को अपनी लड़ाई बना लिया था. इस वर्ग को आज पार्टी ने भुला दिया लगता है. इसके चलते यह वर्ग आज सरकार के समर्थन में आगे नहीं आ रहा है.
दिल्ली स्थित पार्टी-मुख्यालय से कार्यकर्ता गायब हो गये हैं, और उनकी जगह वेतन-भोगी कर्मचारियों ने ले ली है. कभी पार्टी की जान रहे प्रकोष्ठों को बंद कर दिया गया है और उनकी जगह काॅरपोरेट की तर्ज पर ‘विभाग’ बना दिये गये हैं. पार्टी के ऑनलाइन सदस्यों की संख्या भले ही बढ़ी हो, पर जमीन पर कार्यकर्ता मिलने मुश्किल हो गये हैं.मोदी की जीत में हर वर्ग ने समर्थन दिया था, यह बात भुला दी गयी है.
संघ-परिवार के लोगों की पार्टी और सरकार में बड़ी संख्या में नियुक्ति हो रही है, पर पार्टी के आम-कार्यकर्ताओं की कोई पूछ नहीं है. सरकार में सतही और नाकाबिल लोगों को जगह देने के आरोप लग रहे हैं. पार्टी के हर रसूख वाले नेता के यहां मिठाई और फूल लिये लोगों की भीड़ दिखाई दे रही है. टिकटों के बिकने के आरोप लग रहे हैं. चापलूसों और परिचितों की सेटिंग हो रही है. मतलब, आज भाजपा में वह सब होने लगा है, जिसके लिए कभी कांग्रेस बदनाम रही है.
पार्टी का हर समर्थक चाहता है कि प्रधानमंत्री मोदी कम-से-कम 15-20 साल तक देश को नेतृत्व दें. लेकिन यह तभी होगा, जब पार्टी सबको साथ लेकर चलेगी और प्रधानमंत्री सरकार के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं की भी सुध लेंगे. नहीं तो 2019 भी मुश्किल हो जायेगा!