कांग्रेस का अधोपतन

स्वतंत्र भारत में राजनीति उत्थान और पतन के अनगिनत मोड़ों से गुजरी है, लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस द्वारा अपने नवनिर्वाचित विधायकों से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में पूर्ण निष्ठा रखने के शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर लेने की घटना न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और परंपराओं का खुला […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 27, 2016 6:21 AM
स्वतंत्र भारत में राजनीति उत्थान और पतन के अनगिनत मोड़ों से गुजरी है, लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस द्वारा अपने नवनिर्वाचित विधायकों से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में पूर्ण निष्ठा रखने के शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर लेने की घटना न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और परंपराओं का खुला उल्लंघन भी है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विचारधारा, नीतियां और कार्यक्रम दलगत निष्ठा के आधार होते हैं.
परंतु, बंगाल कांग्रेस का यह पैंतरा व्यक्ति-आधारित निष्ठा का निकृष्टतम उदाहरण है. हाल के दशकों में पार्टी में लगातार बढ़ी यह बीमारी ही उसके राजनीतिक वर्चस्व के सिमटते जाने का बड़ा कारण है. यह विडंबना ही है कि जिस कांग्रेस ने आजादी के बाद देश में लोकतंत्र की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभायी, वही लोकतांत्रिक परंपराओं को अधोपतन की ओर धकेलने में भी अगुवा बनी. आपातकाल के रूप में लोकतंत्र पर पहली और बड़ी चोट कांग्रेस ने ही दी.
तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो चाटुकारिता की सभी हदें तोड़ते हुए ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ कह दिया था. उस दौर में ऐसी कुप्रवृत्ति के कारण ही चंद्रशेखर, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम जैसे जनाधार वाले नेताओं को इंदिरा गांधी का विरोध करना पड़ा था. देश की राजनीति में परिवारवाद का बीज भी कांग्रेस ने ही डाला, लेकिन इससे पनपे परिवार-आधारित अन्य दलों में भी चाटुकारिता और दरबारी संस्कृति इस हद तक खुले रूप में नहीं दिखती है. बंगाल कांग्रेस के शपथ-पत्र से यही संकेत मिलता है कि अब एक परिवार-विशेष के नेतृत्व के प्रति निष्ठा ही पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों का सार है.
एक परिवार के प्रति कांग्रेस की यह अंधभक्ति न सिर्फ पार्टी और उसके राजनीतिक भविष्य के लिए, बल्कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी घातक है. विरोधियों द्वारा मजाक उड़ाये जाने के बाद भले ही कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से शपथ-पत्र से किनारा कर लिया है, लेकिन यह सवाल अब भी बना हुआ है कि क्या पार्टी चाटुकारिता और व्यक्ति-आधारित निष्ठा की संस्कृति से मुक्त होने के लिए तैयार है?
हालिया पराजयों के बाद नेतृत्व ने कहा था कि इसके कारणों की समीक्षा की जायेगी, लेकिन पार्टी में ऐसी कोई पहल नजर नहीं आ रही है. कांग्रेस को यदि राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहना है तो उसे परिवार विशेष के प्रति चाटुकारिता और भक्ति की ऐसी बीमारी का ठोस इलाज तलाशना ही होगा.

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