भारत-चीन संबंधों की जटिलताएं

।। प्रभात कुमार रॉय।। (पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद) भारत और चीन के बीच विलक्षण तौर पर सांस्कृतिक, धार्मिक समानताएं रही हैं. अनेक धर्मो, जातियों, नस्लों व भाषाओं वाला प्राचीन राष्ट्र है चीन. एक ऐतिहासिक दौर में बौद्ध धर्म ने चीन में अपना विशिष्ट स्थान कायम किया. चीन में इसलाम और ईसाई धर्म के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2014 4:09 AM

।। प्रभात कुमार रॉय।।

(पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद)

भारत और चीन के बीच विलक्षण तौर पर सांस्कृतिक, धार्मिक समानताएं रही हैं. अनेक धर्मो, जातियों, नस्लों व भाषाओं वाला प्राचीन राष्ट्र है चीन. एक ऐतिहासिक दौर में बौद्ध धर्म ने चीन में अपना विशिष्ट स्थान कायम किया. चीन में इसलाम और ईसाई धर्म के अनुयायियों की भी बड़ी तादाद रही है. चीन ने 1948 में कामरेड माओ और कम्युनिस्ट पार्टी की कयादत में सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ चाइना की बुनियाद डाली. कई ऐतिहासिक, सामाजिक उथल-पुथल के दौर से गुजरते हुए चीन ने 1978 में कम्युनिस्ट लीडर डेग शियाओ पिंग के नेतृत्व में नयी आर्थिक-सामाजिक करवट ली.

1978 में चीन द्वारा नये संविधान को अपनाया गया, जिसमें नागरिकों की धार्मिक व सांस्कृतिक आजादी को संविधान में समुचित स्थान दिया गया. 1980 के दशक में चीन ने कठोर समाजवादी अर्थव्यवस्था को बाजार की शक्तियों के हवाले करने का आगाज किया और धीरे-धीरे कम्युनिस्ट लौह आवरण को हटा कर अपने दरवाजे विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोल दिये. 1980 से प्रारंभ हुए बाजारपरस्त आर्थिक सुधारों ने चीन की राजनीतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक जिंदगी पर निर्णायक असर दिखाया. एकाधिकारिक कम्युनिस्ट शासन पद्धति के विरोध और बहुदलीय लोकतंत्र के समर्थन में चीनी नौजवानों का आंदोलन इतना प्रबल हो उठा था कि उसे चीनी हुकूमत द्वारा लाल फौज की ताकत से कुचलना पड़ा. बहुदलीय लोकतंत्र के हक में एक सशक्त राजनीतिक अंतरधारा चीन में आज भी विद्यमान है, जो कम्युनिस्ट पार्टी के एकदलीय शासन को खत्म कर बहुदलीय शासन व्यवस्था कायम करने के लिए कटिबद्ध है.

बाजारवादी समाजवाद के अभिनव आर्थिक प्रयोग ने चीन को आर्थिक तौर पर समृद्ध तो बना दिया, किंतु समाज में अमीरों और गरीबों के मध्य एक विराट आर्थिक खाई को भी जन्म दे डाला है. एक ज्वलंत तथ्य है कि बाजारवादी समाजवाद के दौर में चीन में अब भारत से कहीं अधिक खरबपति पैदा हो गये हैं. चीन में गरीबी और बेरोजगारी का कहर भारत सरीखा नहीं है. चीन में बालश्रमिक भी कदाचित विद्यमान नहीं हैं. सभी बच्चों के लिए शिक्षा उपलब्ध है. चीनी समाज में बुजुर्गो का खास ख्याल रखा जा रहा है, पर औद्योगिक रूप से संपन्न शहरों में मजदूरों की हालत संतोषजनक नहीं है और गांव-देहात में किसानों की हालत भी बहुत कुछ शहरी मजदूरों जैसी है, हालांकि भारत की तरह वे आत्महत्या करने पर विवश नहीं हैं. चीन के समाज में महिलाओं को बराबरी के हक हासिल हुए हैं. चीन की महिलाओं पर पाश्चात्य फैशन संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है. कामरेड माओ के शासनकाल से उलट सारांश में आजकल चीन में पछुवा हवा पुरवा हवा पर हावी हो रही है.

सांस्कृतिक और धार्मिक तौर पर गहन समानता वाले भारत और चीन को दशकों से जारी कटु सीमा विवाद ने एक-दूसरे से अलग-थलग कर दिया है, हालांकि दोनों देशों के बीच अरबों डॉलर का व्यापार जारी है. अत: जरूरी है कि दोनों देशों के आपसी कूटनीतिक उपलब्धियों और विफलताओं का लेखा-जोखा लिया जाये. उपलब्धियों से प्रारंभ करें तो दोनों राष्ट्रों के दरम्यान सीमा विवाद पर जो करार मुमकिन हुआ है, वह महत्वपूर्ण कूटनीतिक अर्थ रखता है. दोनों देशों की स्पष्ट कोशिश है कि सरहद पर सैन्य टकराहट और संघर्ष की स्थिति को कामयाबी से टाला जाये. यह भारत के लिए यह अवसर है कि वह चीनी सरहद के निकट जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं के तेजी से विकास को प्राथमिकता दे. भारत ने चीन के समक्ष पाक प्रायोजित आतंकवाद के मुद्दे को भी सफलतापूर्वक उठाया है. चीन ने भारत की बातों को गौर से सुना है, क्योंकि वह भी जिनजियांग में जेहादी आतंकवाद की आग ङोल रहा है.

लेकिन भारत और चीन के मध्य परस्पर व्यापार तेजी से बढ़ने का अर्थ यह कदापि नहीं कि इससे दोनों देशों के मध्य तनाव तत्काल कम होगा. चीन और जापान के संबंधों को ही देखें, तो दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध कायम रहे हैं, किंतु तीव्र तनाव भी विद्यमान है. चीन की यही स्थिति ताईवान, मलयेशिया, वियतनाम और फिलिपींस के साथ है. चीन इन देशों के इलाकों पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है. भारत को संजीदा कोशिश करनी चाहिए कि चीन के साथ वैसी ही जल संधि संपन्न हो, जैसी भारत ने पाकिस्तान के साथ कर रखी है.

भारत के कूटनीतिज्ञों ने चीन में सवाल उठाया कि मुद्दा भारत बनाम चीन क्यों रहता है, जो वस्तुत: भारत चीन सहयोग होना चाहिए? असल में, चीन को अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति पर कुछ अधिक ही गुमान हो गया है और वह स्वयं को महाशक्ति की कतार में शुमार करने लगा है. इसलिए भारत को चीन के मुकाबले एक बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बनने का भी प्रयास करना होगा, क्योंकि कूटनीतिक संबधों को संतुलित करने में आर्थिक और सैन्य शक्ति की भाषा की बड़ी भूमिका होती है.

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