अभी हाल में भाजपा ने आत्ममुग्ध कांग्रेस को पछाड़ कर असम का किला फतह किया है. अब प्रधानमंत्री मोदी के पूर्वोत्तरी राज्यों के दौरे के बाद यह दावा किया जाने लगा है कि उन्होंने ‘नॉर्थइस्ट वालों’ का दिल भी जीत लिया है. जाहिर है कि उनके आलोचक यह टिप्पणी जरूर करेंगे कि यह सब कोरी जुमलेबाजी है, आगामी चुनावों की तैयारी में ‘स्टंट’ है वगैरह. इस बहस में उलझे बगैर अगर इसी बहाने इस सामरिक दृष्टि से संवेदनशील समझे जानेवाले इलाके के बारे में देश के दूसरे हिस्सों में रहनेवाले ठंडे दिमाग से सोचने के लिए प्रेरित होते हैं, तो भी इस यात्रा को कामयाब समझा जाना चाहिए.
विडंबना यह है कि सामरिक संवेदनशीलता का निरंतर शोर मचाने के बावजूद पूर्वोत्तर की उपेक्षा केंद्र सरकारें करती रही हैं. अगर ऐसा न होता, तो अाज मोदी यह कैसे कह सकते कि पूर्वोत्तर विकास परिषद् में भाग लेने के लिए वहां पहुंचनेवाले वह ऐसे प्रधानमंत्री हैं, ऐसा पराक्रम साधनेवाले अपने पूर्ववर्ती के तीस बरस बाद वहां पहुंचे हैं! यह राज्य जिन्हें कभी ‘सात बहनें’ कहा जाता था, तभी सुर्खियों में छाती हैं, जब अलगाववादी उपद्रवी किसी खून-खराबे को अंजाम देते हैं या थोक के भाव दल-बदल से किसी दल की ‘निर्वाचित सरकार’ ‘दूसरे पाले’ में जा बैठती है.
मणिपुर हो या नगालैंड, मिजोरम हो या मेघालय, त्रिपुरा अौर अरुणाचल प्रदेश समेत सभी जगह दैत्याकार भ्रष्टाचारी घोटालों का भांडा भी फूटता रहा है. बची-खुची कसर तब पूरी हो जाती है, जब पूर्वोत्तर से मध्यदेश या दक्षिण में आये किसी निरीह व्यक्ति नस्लवादी उत्पीड़न तथा जानलेवा हिंसा का शिकार बनाया जाता है.
विविधता में एकता की बात करनेवाले मणिपुर में रासलीला तथा वैष्णव प्रभाव को रेखांकित करते नहीं थकते अौर सारे देश के शाक्तों के लिए कामाख्या धाम अतुलनीय तीर्थ है. अरुणाचल प्रदेश में परशुराम कुंड है, तो त्रिपुरा के साथ यादें जुड़ी हैं सचिन देव बर्मन अौर पंचम दा की. बौद्ध धर्म के अनुयाइयों के लिए तवांग का गोम्फा अौर सिक्किम में पेमियांचे, रुमटेक आकर्षण का केंद्र हैं. मगर यह सोचना घातक गलतफहमी है कि हमारा नाता पूर्वोत्तर से सिर्फ हिंदू मिथकों या बौद्ध धर्म के कारण ही है. यह नादानी कुछ वैसी ही है, जैसे चीन के हाथों 1962 वाली शर्मनाक हार के बाद इस सीमांत को सिर्फ सैनिक-सामरिक नजर से परख कर ही प्राथमिकता तय करना. यहां इस बात का विस्तार से बखान गैरजरूरी है कि कैसे नेहरू ने ईसाई मिशनरी वरियर अल्विन को इस इलाके के बारे में अपना पथ-प्रदर्शक बना लिया अौर इस का कितना नुकसान सभी को हुआ. जो बात अस्वीकार नहीं की जा सकती, वह यह है कि अाजादी के सत्तर साल बीतने के बाद भी यह क्षेत्र न केवल दुर्गम भौगोलिक दूरी की मार सहता है, बल्कि मनोवैज्ञानिक मर्ज सरीखी भावनात्मक दूरी का दर्द भी झेलता है. देश के दूसरे हिस्सों से वहां तैनात सरकारी अधिकारी इसे काला पानी जैसा दंड-द्वीप समझते हैं.
हम इस बात को जाने कैसे अनदेखा करते हैं कि पूर्वोत्तर के राज्यों की सीमा पांच-पांच विदेशी राज्यों को छूती है- नेपाल, भूटान, चीन, म्यांमार अौर बांग्लादेश. यह इलाका दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवेश के लिए दरवाजा हो सकता है. यदि सड़कों-पुलों का तेजी से निर्माण होगा, तो भौगोलिक अौर भावनात्मक दोनों ही खाइयां पाटी जा सकेंगी.
चुनौती इतनी ही नहीं कि इन राज्यों को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ना है, बल्कि यह समस्या भी विकट है कि इन राज्यों के बीच आपस में आवाजाही भी बढ़ सके. तभी व्यापार की तरक्की का फायदा सभी को होगा. देश के विभाजन के पहले असम के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आमदनी देश में सर्वाधिक थी. इमारती लकड़ी, तेल, चाय के उत्पादन के लिए यह राज्य विश्व प्रसिद्ध था. हां, आगंतुकों को लेकर तब भी तनाव पैदा होता रहता था. जहां असमिया बंगालियों से खिन्न रहते थे, शेष को (जो तब असम का ही हिस्सा थे) लगता था कि अहोम अहंकार के कारण ही नगा, मिजो, गारो, खासी, जैंतिया आदि पिछड़े समझे जाते थे अौर विकास में अपने हिस्से से वंचित रह गये थे. सिक्किम के भारत में विलय के बाद वहां की आबादी का चेहरा बदला है, मगर यह समस्या असम में अधिक विकराल है, जहां निरंकुश बांग्लादेशी आव्रजन से बोदो जैसी जनजातियां आक्रोष से भरी हैं. चुनाव जीतने में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मददगार हो सकता है. इससे दिल नहीं जीते जा सकते.
प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे को हम तभी सफल समझेंगे, जब उनकी राजधानी में वापसी के बाद भी पूर्वोत्तरी राज्य अच्छी खबरों के लिए लगातार चर्चित रहेंगे.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com