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कश्मीर में फिर तपिश का बढ़ना

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियां अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंदवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी यूनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गये अलगाववादियों की लाशों के जुलूस […]

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियां अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंदवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी यूनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गये अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाें ने और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आये तत्व भीड़ के बीच घुस कर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.
इसके पीछे साजिश नजर आती है. यह योजना पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ मुख्यालय से तैयार हुई है. खासतौर से सुरक्षा बलों को निशाना बनाने के प्रयास तेज हो रहे हैं. 1947 से पाकिस्तानी सेना छिप कर वार करती रही है. इस बार भी यही हुआ है. हंडवारा की घटनाएं इसका उदाहरण है. सेना के बंकरों में आग लगाने और सेना को कार्रवाई करने के लिए उकसाने के पीछे माहौल को बिगाड़ने का इरादा है. कोशिश यह भी है कि सेना का ध्यान राज्य के अंदरूनी इलाकों पर जाये और सीमा पर से हटे, जिससे घुसपैठियों को प्रवेश करने में आसानी हो.
उधर, अलगाववादियों को लग रहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के धागे फिर से जुड़ने जा रहे हैं. ऐसे में वे अलग-थलग पड़ जायेंगे. इसलिए भीड़ को उकसा कर वे अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. साल 2010 की गर्मियों में सैयद अली शाह गिलानी ने किशोरों को भड़का कर इस प्रकार का आंदोलन चलाया था, जिसकी वजह से स्कूल कॉलेज लंबे अरसे तक बंद रहे. हासिल उससे कुछ हुआ नहीं.
साल 2010 के असंतोष के बाद केंद्र सरकार ने एक संसदीय टीम को कश्मीर भेजा और एक विशेष कार्यदल कश्मीर गया. हालांकि, निष्कर्ष कुछ नहीं निकला, पर माहौल को सुधारने की संभावनाओं ने जन्म लिया था. कुछ महीने पहले भारत-पाक के बीच बातचीत का माहौल बना था, पर पठानकोट हमले के बाद से वह ठप है. राज्य सरकार भी पहल करके बड़ा कदम आगे बढ़ा सकती है. उसके लिए अलगाववादी तैयार नहीं होंगे. इसलिए कुल मिला कर स्थितियां निराशाजनक लगती हैं.
इस दौरान भारतीय सेना पर देश के प्रगतिशील तबके ने भी हमले बोले हैं. इससे अलगाववादियों के हौसले बढ़े हैं. दिल्ली में जेएनयू के घटनाक्रम ने कश्मीर में सेना की उपस्थिति को कमजोर किया है. सेना की जिस चौकी के बंकर को जलाया गया, वहां से पांच सड़कों पर एक साथ नजर रखी जा सकती थी. आसानी से समझ में आता है कि सेना को टारगेट बनानेवालों की मंशा क्या है. इसका राजनीतिक फलितार्थ भी है. महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं. यानी अलगाववादियों को लोकतांत्रिक गतिविधियां रास नहीं आतीं.
दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना का एक धड़ा कतई नहीं चाहता कि दोनों देशों के बीच संवाद कायम हो. पठानकोट की घटना ठीक तब हुई, जब सचिव स्तर की बातचीत का माहौल बन रहा था. जैसे ही पठानकोट की जांच करने पाक टीम भारत आयी, कुलभूषण जाधव का मामला खड़ा कर दिया गया. उधर जम्मू-कश्मीर सरकार ने पूर्व सैनिकों के लिए सैनिक कॉलोनी बनाने की घोषणा की है. साथ ही कश्मीरी पंडितों को वापस बुला कर उन्हें बसाने की योजना बनायी जा रही है. इन दोनों कार्यक्रमों का विरोध शुरू हो गया है. हुर्रियत काॅन्फ्रेंस का अपेक्षाकृत उदारवादी धड़ा भी इसके विरोध में है. अलगाववादी नहीं चाहते कि घाटी में उनके सामने खड़े होकर बात करनेवाला कोई तबका रह सके.
कश्मीर की हिंसा को केवल कश्मीर तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए. इसके पीछे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की रणनीति को समझना चाहिए. पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ ने अब जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा को भारतीय सेना पर सीधे हमलों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इसमें उन्हें चीन सरकार का संरक्षण प्राप्त है, वरना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जैश के खिलाफ कार्रवाई रुक न पाती.
पठानकोट पर हमले के फौरन बाद पाकिस्तान की नागरिक सरकार ने जैश के खिलाफ कार्रवाई का संकेत दिया था, पर कुछ हुआ नहीं. पाक सेना की रणनीति है कि जिस तरह तहरीक-ए-तालिबान पाक सेना के खिलाफ हमले बोल रहा है, उसी तरह कश्मीरी जेहादी भारतीय सेना को टारगेट बनायें. पाक सेना ने इसके साथ-साथ भारत पर बलूचिस्तान में गड़बड़ी करने का आरोप लगाना शुरू कर दिया है. पाक सेना की जन-संपर्क शाखा आइएसपीआर के ट्वीट इस बात की गवाही देते हैं.
पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मंत्री राणा सनाउल्ला ने हाल में स्वीकार किया कि जैश-ए-मुहम्मद और जमात-उद-दावा जैसे संगठनों को सरकार का समर्थन हासिल है. आज उन पर भले पाबंदी लगा दी गयी हो, लेकिन उनकी हरकतों के लिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. हालांकि, इन समूहों पर दुनिया को दिखाने के लिए सरकारी तौर पर प्रतिबंध है.
घाटी में इस बार पर्यटकों की संख्या बढ़ी है. माहौल ठीक रहा तो यह संख्या और बढ़ेगी. सरकार कोशिश कर रही है कि देशी-विदेशी सैलानी आयें. फिल्म निर्माता यहां शूटिंग करने आयें. साल 2015 में यहां सवा नौ लाख पर्यटक आये थे, जिनमें 28 हजार से ज्यादा विदेशी थे. यह उत्साहजनक खबर थी. पर, अचानक श्रीनगर से खबर आयी कि घात लगा कर तीन पुलिस वालों की गोली मार कर हत्या कर दी गयी.
किसी कार्रवाई से नाराज होकर ये हत्याएं नहीं की गयी थीं. इन दो हत्याओं की खबर फैल ही रही थी कि श्रीनगर के एक और इलाके से तीसरे पुलिस वाले की हत्या की खबर आयी, जिसकी रायफल भी हत्यारे छीन ले गये.

इन हत्याओं के बाद स्वाभाविक है कि सैलानियों के मन में दहशत फैलेगी. कश्मीर के युवाओं को भड़काना अब काफी आसान है, पर यह आंदोलन किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचेगा. साल 1947 से आज तक पाकिस्तान की कश्मीर नीति हिंसा, हत्या और विश्वासघात की रही है. इस समस्या का समाधान संवाद से ही होगा. यह संवाद पाकिस्तान से ही शुरू होना चाहिए, पर पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को समझना होगा कि बंदूक के जोर पर बात नहीं होती.

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com

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