लाइब्रेरी में तब्दीलियां
प्रभात रंजन कथाकार इन दिनों हिंदी में इस बात का खूब हल्ला है कि किताबों के पाठक बढ़ रहे हैं, हिंदी किताबों का बाजार बढ़ रहा है, लेखों और पाठकों के बीच सीधा संपर्क हो रहा है. सही भी है कि हिंदी को लेकर एक सकारात्मकता आयी है. हालांकि, अब भी यह कहनेवाले मिल ही […]
प्रभात रंजन
कथाकार
इन दिनों हिंदी में इस बात का खूब हल्ला है कि किताबों के पाठक बढ़ रहे हैं, हिंदी किताबों का बाजार बढ़ रहा है, लेखों और पाठकों के बीच सीधा संपर्क हो रहा है. सही भी है कि हिंदी को लेकर एक सकारात्मकता आयी है.
हालांकि, अब भी यह कहनेवाले मिल ही जाते हैं कि हिंदी कौन पढ़ता है, हिंदी पढ़ने से क्या होता है? बहरहाल, इस हो-हल्ले में हम पुस्तकालयों को भूल गये हैं. हम भूल गये हैं कि महानगरों से लेकर छोटे कस्बों तक में पुस्तकालयों ने बड़े समय तक पाठकों को किताबों से जोड़े रखने का काम किया.
मुझे याद आता है कि जब ‘नदिया के पार’ फिल्म आयी थी, तब मैं सीतामढ़ी में स्कूल में पढ़ता था.उस फिल्म के ट्रेलर में यह बताया जाता था कि केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित फिल्म है. तब मैंने शहर के सनातन धर्म पुस्तकालय में जाकर उस उपन्यास को खोज कर उसका वाचन किया था. जिस शहर में किताब की दुकानें तक नहीं होती थीं, उस शहर में मुझ जैसे न जाने कितने पाठकों को 10 रुपये मासिक चंदे पर इस तरह के पुस्तकालयों ने किताबों से जोड़ने में अहम भूमिका निभायी. हमारे देश में पुस्तकालय की यह संस्कृति अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है.
पिछले दिनों दिल्ली के एक प्रसिद्ध पुस्तकालय में एक समिति में सदस्य के रूप में काम करने का मौका मिला, तो मैंने पाया कि वहां सबसे अधिक प्रतियोगी पुस्तकों की खरीद होती है. पूछने पर पता चला कि वहां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनेवाले बच्चे ही पढ़ने आते हैं. लाइब्रेरियन ने बताया कि अगर वे भी न आयें, तो लाइब्रेरी बंद करनी पड़ जायेगी. जिन पुस्तकालयों में हमारी पीढ़ियों ने साहित्य का ज्ञान हासिल किया, वे एक-एक करके बंद होती जा रही हैं.
सचमुच, एक जमाने में पुस्तकालय एक संस्कृति थी, जो धीरे-धीरे खत्म होती चली गयी है और हमें पता भी नहीं चला. इसका असर महानगरों पर तो उतना नहीं दीखता है, लेकिन कस्बों में पढ़ने की संस्कृति, साहित्य से जुड़ने की संस्कृति इससे प्रभावित हुई है. क्योंकि इन कस्बों में किताब की दुकानें तो आज भी नहीं हैं, लेकिन पुस्तकालय संस्कृति के खत्म होते जाने के कारण किताबों का कल्चर भी प्रभावित हुआ है. हिंदी क्षेत्रों में सांस्कृतिक शून्य बढ़ता जा रहा है, कंपटीशन कल्चर बढ़ता जा रहा है, तो इसके पीछे बहुत बड़ा कारण पुस्तकालय संस्कृति का क्षरण ही है.
दिल्ली में पुस्तकालयों का अध्ययन करने पर मैंने एक दिलचस्प बात देखी कि दोपहर के वक्त आप किसी भी बड़े पुस्तकालय में चले जाइये, आपको बड़ी संख्या में बुजुर्ग वहां बैठे मिलेंगे. पुस्तकालय दिन के वक्त बड़े-बुजर्गों के आश्रय की तरह भी होते हैं, उनके अकेलेपन के साथी की तरह. पुस्तकालयों के बंद होते जाने से उनका यह सहारा भी छिनता जा रहा है, लेकिन हमने कभी इस बारे में नहीं सोचा.
किताबों की ऑनलाइन खरीदारी और उनकी होम डिलीवरी ने हमारे घर में पुस्तकालय जरूर बना दिया है, लेकिन पुस्तकों के उस संसार से हमें दूर कर दिया है. वहां जाने पर हमें जो अहसास होता था, उस अहसास से भी दूर कर दिया है. मुझे याद है कि दिल्ली के अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी में जब कोई नयी किताब आती थी, तो हम उसके लिए मांगपत्र भर कर इसका इंतजार करते थे. उस इंतजार का जो लुत्फ होता था, वह घर बैठे किताब मंगवाने में नहीं होता.
अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी में जब वार्षिक चंदे की व्यवस्था लागू हुई थी, हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने एक कविता लिखी थी ‘लाइब्रेरी में तब्दीलियां’. आज पुस्तकालय संस्कृति समाप्ति के कगार पर है, लेकिन किसी का ध्यान भी नहीं जा रहा है. सब मौन हैं!