अमेठी की भावनात्मक चुनावी जंग

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।(वरिष्ठ पत्रकार) आम आदमी पार्टी नेता कुमार विश्वास द्वारा अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के एलान को कैसे देखा जाये? जैसे हाल में अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ा था, या दो आम चुनाव पहले सुषमा स्वराज ने सोनिया के, 1977 में राजनारायण ने इंदिरा गांधी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 17, 2014 3:50 AM

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)

आम आदमी पार्टी नेता कुमार विश्वास द्वारा अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के एलान को कैसे देखा जाये? जैसे हाल में अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ा था, या दो आम चुनाव पहले सुषमा स्वराज ने सोनिया के, 1977 में राजनारायण ने इंदिरा गांधी के, या उनसे भी बहुत पहले राम मनोहर लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ लड़ा था? या फिर जैसे धरतीपकड़ नाम के एक शख्स जब भी और जिस भी शख्सियत के खिलाफ चुनावी ताल ठोंक देते थे? आपका जवाब जो भी हो, अमेठी अभी इस सवाल पर सोचने के मूड में नहीं है, क्योंकि उसके लिए इस एलान में कोई नयी बात है ही नहीं. उसने 1977, जब इंदिरा गांधी ने ‘युवा हृदय सम्राट’ संजय गांधी को यहां से कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया था, से लेकर अब तक भ्रष्टाचार और वंशवाद के खात्मे का बीड़ा उठाये कई शख्सियतों को ढोल-नगाड़े के साथ अमेठी आते और शिकस्त खाकर ‘आइंदा कभी न आने के लिए’ वापस लौट जाते देखा है.

1977 से पहले इस संसदीय सीट पर कांग्रेस के ही विद्याधर वाजपेयी जीतते थे, पर आपातकाल विरोधी लहर में संजय गांधी अपना पहला चुनाव जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह से हार गये थे. उस चुनाव में कांग्रेस को यूपी की 85 में से एक भी लोकसभा सीट हाथ नहीं लगी थी, लेकिन अगले चुनाव में संजय की जीत के साथ अमेठी नेहरू-गांधी परिवार का ऐसा गढ़ बनी, जो 1998 को छोड़ कभी नहीं टूटा. अमेठी के राजपरिवार से जुड़े जिन डॉ संजय सिंह ने भाजपा प्रत्याशी बन कर इस कांग्रेसी गढ़ को ढहाया, वे कभी संजय गांधी के अभिन्न मित्र थे. लेकिन न उन्हें, न ही संजय गांधी को लंबे वक्त तक यहां से प्रतिनिधित्व का मौका मिला. संजय गांधी का यहां से चुनाव जीतने के थोड़े ही दिनों बाद विमान दुर्घटना में निधन हो गया, जबकि डॉ संजय सिंह जिस लोकसभा के सदस्य चुने गये, उसी की अकाल मौत हो गयी थी. डॉ सिंह इन दिनों पड़ोस की सुल्तानपुर सीट से कांग्रेस सांसद हैं और भाजपा उन पर डोरे डाल रही है कि वे अमेठी में राहुल के खिलाफ भाजपा प्रत्याशी बनें.

खैर, संजय गांधी के वारिस बन कर राजीव ने अमेठी को अपनी कर्मभूमि बनाया, तो 1981 के उपचुनाव में यहां के मतदाताओं ने उन्हें इस तरह सिर आंखों पर बिठाया कि लोकदल के दिग्गज प्रत्याशी शरद यादव महज प्रतीकात्मक टक्कर ही दे सके. तब शरद ने कहा था कि वे तब तक अमेठी से चुनाव लड़ते रहेंगे, जब तक यहां से नेहरू-गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर गोल नहीं कर देते. 1984 में पारिवारिक द्वंद्व में राजीव को धूल चटा देने का मंसूबा लेकर आयी संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी को भी अमेठी ने निराश किया. 1989 में वीपी सिंह की अगुआई में बोफोर्स सौदे में भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रहे जनता दल ने महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी को राजीव के सामने ला खड़ा किया, तो राजमोहन ने खुद के असली गांधी होने का दावा ठोंका और नकली गांधी यानी राजीव को हराने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दी, पर वे भी विफल रहे. राजीव की हत्या के बाद 1991 में अमेठी ने उनके अभिन्न सतीश शर्मा में विश्वास जताने में भी कोताही नहीं की. 1999 में सोनिया गांधी को उसने राजीव जैसा ही स्नेह दिया और 2004 से राहुल उसके सांसद हैं.

साफ है कि नेहरू-गांधी परिवार के प्रति अपनी भावनात्मक आसक्ति के चलते अमेठी के मतदाता बार-बार उसके विपक्षियों के अरमानों की होली जलाते रहे हैं एक समय बसपा के संस्थापक कांशीराम भी अमेठी से चुनाव लड़ कर हार चुके हैं. भाजपा ने 2004 में विश्व हिंदू परिषद के बड़बोले नेता डॉ रामविलासदास वेदांती को राहुल के खिलाफ अपना प्रत्याशी बनाया तो जो नतीजा आया, उसे वे शायद ही याद करना चाहें. सपा तो एक अबूझ समझौते के तहत अमेठी और रायबरेली में लोकसभा चुनाव ही नहीं लड़ती. बसपा लड़ती भी है तो किसी स्थानीय कार्यकर्ता को प्रत्याशी बना कर औपचारिकता निभाती है.

इस दृष्टि से देखें तो कुमार विश्वास मुकाबले को दिलचस्प तो बना ही देंगे. वे अमेठी के लोगों का ध्यान कम भी खींचें, मीडिया का खींचेंगे. नरेंद्र मोदी को अमेठी आकर राहुल का मुकाबला करने के लिए ललकार कर उन्होंने इसकी शुरुआत भी कर दी है. संगठन के अभाव और विरोध प्रदर्शनों के बीच वे लखनऊ से ‘जनविश्वास यात्र’ लेकर अमेठी में बड़ी सभा कर आये हैं, पर कांग्रेसी ज्यादा चिंतित नहीं हैं. कांग्रेसी कहते हैं, अमेठी को मालूम है कि इस बार उसे प्रधानमंत्री चुनना है और वह कोई गलती नहीं करनेवाली. कुल मिलाकर चुनावी इतिहास व आंकड़े तो कुमार विश्वास के खिलाफ हैं ही, उनके व्यक्तित्व को विवादास्पद बनानेवाली उनकी टिप्पणियां भी उनका पीछा करने लगी हैं.

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