विकास बनाम चिंताएं
पिछले वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.6 फीसदी रही है, जो बीते पांच वर्षों में सर्वाधिक है. इसके साथ ही भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से विकास करनेवाला देश हो गया है. वित्त वर्ष 2015-16 की आखिरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की वृद्धि दर 7.9 फीसदी […]
पिछले वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.6 फीसदी रही है, जो बीते पांच वर्षों में सर्वाधिक है. इसके साथ ही भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से विकास करनेवाला देश हो गया है. वित्त वर्ष 2015-16 की आखिरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की वृद्धि दर 7.9 फीसदी रही है, जो बीती छह तिमाहियों में सर्वाधिक है.
इन आंकड़ों से भारत की आर्थिक स्थिति के लगातार मजबूत होने के ठोस संकेत मिलते हैं. लेकिन, जरा ठहर कर इससे जुड़े आंकड़ों पर बारीक नजर डालने पर इसमें कुछ चिंताजनक आयाम भी उभरते हैं. मसलन, गैर-कृषि वृद्धि दर अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में 8.9 फीसदी रही थी, जो पिछली तिमाही में घट कर 8.4 फीसदी हो गयी है. हालांकि कृषि क्षेत्र में वृद्धि ने अर्थव्यवस्था को थोड़ी राहत दी है और मॉनसून की बेहतरी की उम्मीदों ने मौजूदा वित्त वर्ष में भी विकास दर बढ़ने का भरोसा दिया है, लेकिन इससे कुछ चिंताएं कम नहीं हुई हैं.
बीते ढाई दशकों से जारी नव-उदारवादी नीतियों की सबसे कठोर आलोचना यही रही है कि विकास के बावजूद तेजी से बढ़ती युवा आबादी के लिए रोजगार के समुचित अवसर उपलब्ध नहीं हो पाये हैं. ऐसे में औद्योगिक उत्पादन, जहां रोजगार सृजन की अच्छी संभावनाएं हैं, में वृद्धि दर बीते साल से भी कम, सिर्फ दो फीसदी रहना चिंता बढ़ानेवाला है. इसके साथ ही वस्तु निर्यात में बीते 17 महीनों से गिरावट जारी है. सरकार ने 1.3 लाख करोड़ रुपये के पूंजी खर्च के अपने वादे को पूरा तो किया है, लेकिन उसका मुख्य ध्यान सड़कों के निर्माण और विस्तार पर है. दूसरी ओर, बड़े पैमाने पर फंसे कर्जों के कारण बैंकों की हालत खराब है और तकरीबन हर बड़े बैंक को बीते वित्त वर्ष में भारी नुकसान हुआ है.
इनका सीधा असर निवेश और विकास पर पड़ता है, जिससे रोजगार सृजन की संभावनाएं क्षीण होती हैं. नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के आधार पर क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि वित्त वर्ष 2012 से 2019 के बीच गैर-कृषि क्षेत्र में 3.8 करोड़ से भी कम रोजगार के अवसर सृजित होंगे, जबकि वित्त वर्ष 2005 से 2012 के बीच 5.2 करोड़ नौकरियों के अवसर पैदा हुए थे.
स्थिति यह है कि महंगाई बढ़ने और आमदनी उस अनुरूप नहीं बढ़ने के कारण घरेलू मांग घट रही है. जापान ने लगातार दूसरे साल बिक्री कर बढ़ाने से मना कर दिया है, ताकि घरेलू मांग बाधित न हो, लेकिन हमारे यहां अप्रत्यक्ष करों की दरें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं.
ऐसे में आर्थिक मामलों के कई जानकारों ने इस तथ्य की ओर इशारा किया है कि बीती तिमाही की वृद्धि दर में ‘डिस्क्रेपेंसिज’ का योगदान 51 फीसदी है. निजी उपभोग खर्च, सरकारी खर्च, निवेश और वास्तविक उत्पादन एवं निर्यात के हवाले से जीडीपी के आकलन में अंतर से ‘डिस्क्रेपेंसिज’ निर्धारित की जाती हैं. इससे एक निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि पिछले वित्त वर्ष में उत्पादन की तुलना में मांग कमजोर बनी रही है. जनवरी से मार्च तक की तिमाही में ‘डिस्क्रेपेंसिज’ स्थिर मूल्यों पर 1.43 ट्रिलियन रही हैं, जबकि पिछले साल इसी अवधि में ये मात्र 29,933 करोड़ रही थीं. इस तिमाही में निजी उपभोग खर्च में 8.3 फीसदी की वृद्धि हुई, लेकिन पूंजी निर्माण की दर में बीते साल की तुलना में एक फीसदी की गिरावट हुई.
हालांकि, जनवरी-मार्च तिमाही में इसमें 1.9 फीसदी की बढ़त राहत की बात है. इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रमुख घटकों में पिछले अप्रैल माह में 8.5 फीसदी की वृद्धि हुई है, जो बीते चार साल में सबसे अधिक है. लेकिन, 1.6 लाख करोड़ रुपये की 700 से अधिक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं लंबे समय से अधर में लटकी हैं. इनमें से 25 फीसदी से अधिक रेलवे से संबंधित हैं, जिन्हें 122 महीने यानी करीब 10 साल तक आगे टालना पड़ा है.
फिलहाल, तेज आर्थिक विकास के आंकड़ों पर उठ रहे कुछ सवालों के बावजूद यह तो कहा ही जा सकता है कि सरकार के कतिपय सुधारों और नीतिगत फैसलों के कारण अर्थव्यवस्था विकास के पथ पर अग्रसर है. भारत के निर्यात और निवेश पर मंदी के वैश्विक कारकों का भी असर पड़ा है.
कुछ जरूरी वस्तुओं की कीमतों में उछाल से खुदरा मुद्रास्फीति पर जरूर बुरा असर पड़ा है, लेकिन थोक मूल्यों में कमी या स्थिरता के कारण वित्तीय मुद्रास्फीति कम हुई है. ऐसे में एक ओर जहां सरकार के सामने घरेलू मांग बढ़ाने, रोजगार के नये अवसर पैदा करने और विकास की रफ्तार को बनाये रखने कीचुनौतियां हैं, वहीं सकारात्मक आंकड़ों के आधार पर निवेश और पूंजीगत खर्च में वृद्धि के अवसर भी हैं.
जरूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर अपनी प्राथमिकताओं के निर्धारण में आम आदमी के जीवन में खुशहाली लाने का लक्ष्य शामिल करे तथा उनके अनुरूप नीतिगत निर्णय लेने की इच्छाशक्ति दिखाये. अर्थव्यवस्था में बेहतरी का लाभ अगर आम लोगों तक नहीं पहुंचा, किसानों की आय नहीं बढ़ी और युवाओं को रोजगार नहीं मिला, तो दुनिया में सबसे तेज वृद्धि दर का कोई मतलब नहीं रह जाता है.