मथुरा के मायने
मथुरा में हुई हिंसक घटना ने एक बार फिर यह साबित किया है कि सरकारों और प्रशासनिक तंत्र में पिछली घटनाओं से सबक लेने की क्षमता का अभाव है. सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आधारों पर सार्वजनिक जगहों पर कब्जा करने की परिपाटी बहुत पुरानी है. जनता को मुक्ति देने के नाम पर ठगी करनेवाले स्वयंभू […]
मथुरा में हुई हिंसक घटना ने एक बार फिर यह साबित किया है कि सरकारों और प्रशासनिक तंत्र में पिछली घटनाओं से सबक लेने की क्षमता का अभाव है. सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आधारों पर सार्वजनिक जगहों पर कब्जा करने की परिपाटी बहुत पुरानी है.
जनता को मुक्ति देने के नाम पर ठगी करनेवाले स्वयंभू संगठनों और फर्जी मसीहाें का सिलसिला भी बहुत पुराना है. सत्तालोलुप राजनीति और भ्रष्ट प्रशासन ऐसे तत्वों को खुलेआम संरक्षण भी देता है. मथुरा के जवाहर पार्क में दो साल से समानांतर सत्ता चले रहे स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह और उसके सशस्त्र दस्ते सुभाष सेना के खिलाफ पुलिस ने तब कार्रवाई की, जब अदालत ने लोगों की शिकायत पर अवैध अतिक्रमण को हटाने का आदेश दिया. यह बड़ी लापरवाही का ही नतीजा है कि बीते दो साल में स्थानीय प्रशासन की नाक के नीचे इस गिरोह ने बड़े इलाके में कब्जा कर लिया और इसकी संदिग्ध गतिविधियों तथा खतरनाक इरादों की भनक भी पुलिस और खुफिया विभाग को नहीं लगी.
कार्रवाई में लचर रवैये की कीमत पुलिस के दो बड़े अधिकारियों की जान से चुकानी पड़ी. मथुरा उत्तर प्रदेश के बड़े संवेदनशील इलाकों में से है. निश्चित रूप से इस प्रकरण की समुचित जांच की जरूरत है. लेकिन, घटना पर राजनीति और आरोप-प्रत्यारोपों के शोर में किसी ठोस नतीजे की गुंजाइश भी बहुत कम है. कथित संत आसाराम और रामपाल की गिरफ्तारी के समय में भी ऐसी ही हिंसात्मक स्थितियां पैदा हुई थीं. धर्म, राष्ट्र और महापुरुषों की आड़ में धन-संपत्ति और रसूख कमाने का धंधा बड़े पैमाने पर फल-फूल रहा है.
सरकार और समाज के स्तर पर ऐसी गतिविधियों को नियंत्रित करने की कोशिशें भी नहीं हो रही हैं. इसका परिणाम यह हो रहा है कि आम जनता ऐसे गिरोहों और इनके ठेकेदारों के झांसे में आकर लुटती जा रही है. मथुरा जैसी कार्रवाइयों में भी ऐसे भोले अनुयायी ही ज्यादातर मारे जाते हैं. बहरहाल, अब समय आ गया है कि भावनात्मक आधारों पर जमीन पर कब्जा करने और लोगों को गुमराह करनेवालों के विरुद्ध सरकारें कठोर कदम उठायें.
सर्वोच्च न्यायालय ने भी सड़कों से धार्मिक अतिक्रमण को हटाने का निर्देश दिया है. लेकिन क्या हमारी सरकारों में ऐसी पहलों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति है, और क्या प्रशासन नियम-कानूनों के हिसाब से कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा सकता है? मथुरा की घटना की पुनरावृत्ति होना या न होना इन सवालों के जवाब पर निर्भर करता है.