गांव-घर की ओर लौटना

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘मैला आंचल’ की यह पंक्ति है- ‘कम-से-कम एक ही गांव के कुछ प्राणियों के मुरझाये होंठों पर मुस्कुराहट ला सकूं, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूं.’ जब मैं इस पंक्ति को पढ़ता रहा होता हूं कि तभी मन में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 7, 2016 7:05 AM

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘मैला आंचल’ की यह पंक्ति है- ‘कम-से-कम एक ही गांव के कुछ प्राणियों के मुरझाये होंठों पर मुस्कुराहट ला सकूं, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूं.’ जब मैं इस पंक्ति को पढ़ता रहा होता हूं कि तभी मन में फिल्म ‘गुलाल’ का यह गीत गूंज उठता है- ‘जाते कहीं हैं मगर जानते न कि आना वहीं होता है.’

दरअसल, आज रेणु की लिखी बातें और इस गीत का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि हाल ही में बिहार में हुए पंचायत चुनाव में कुछ ऐसे लोगों को जनता ने गांव संवारने का मौका दिया है, जो अब तक महानगरों में थे, लेकिन इस बार अपने गांव-घर लौट आये, इस ख्वाब के साथ कि माटी के लिए कुछ करना है, बदलाव लाना है.

अमृत आनंद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर गांव बदलने आये हैं. वे इस बार कैमूर जिले के पासैन पंचायत से मुखिया चुने गये हैं. जर्मन साहित्य के छात्र आनंद अब एक नयी पारी खेलने जा रहे हैं, जिसमें उन्हें बहुत कुछ करना है. वैसे भी नयी पीढ़ी के लिए गांव-घर लौटना चुनौती है.

ऐसे में आनंद का यह कदम कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. चुनाव प्रचार के दौरान विपक्षी उन्हें ‘दिल्ली का बाबू’ कहते थे. कोई कहता कि चुनाव लड़ कर लौट जायेंगे आनंद बाबू, लेकिन इन सबके बावजूद माटी से मोहब्बत करनेवाले इस युवा का मन नहीं टूटा और वे शानदार बहुमत से विजयी हुए. आनंद अब सबसे पहले गांव को स्वच्छ बनाना चाहते हैं. इसके लिए वे सामुदायिक शौचालय बनवाये जाने की योजना बना रहे हैं.

एक और मिसाल है- शकुंतला काजमी दिल्ली की जिंदगी को एक झटके में छोड़ कर मुखिया चुनाव में हिस्सा लेना और शानदार बहुमत से जीत हासिल करना. दरभंगा जिले के बहादुरपुर प्रखंड के मनियारी पंचायत की नवनिर्वाचित मुखिया शकुंतला काजमी ने राजनीति की अपनी पहली ही चुनावी पारी में जीत हासिल की है. शकुंतला काजमी मूल रूप से हरियाणा की हैं.

उनका जन्म हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले में हुआ. उनकी पढ़ाई दिल्ली में हुई. उनके पिता दिल्ली में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. इन सबके बावजूद शकुंतला ने पढ़ाई के लिए संघर्ष किया, साथ ही महिलाओं के हक के लिए काम भी करती रहीं. दिल्ली में उनकी मुलाकात दरभंगा के नदीम अहमद काजमी से होती है. बाद में दोनों की शादी होती है.

दोनों अक्सर दरभंगा स्थित अपने गांव आते-जाते रहते हैं. इस बार जब बिहार में पंचायत चुनाव का बिगुल बजा, तो शकुंतला काजमी ने मुखिया पद के लिए नामांकन दाखिल कर दिया.

पति नदीम अहमद काजमी ने शकुंतला के इस फैसले का समर्थन किया और फिर दोनों को गांव वालों का आपार समर्थन मिला. शकुंतला ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 538 मतों के अंतर से पराजित किया. अब शकुंतला को अपने गांव के लिए वह सब कुछ करना है, जिसके लिए वह सोच रही थी. वह सब करने के लिए जनता ने अब उन्हें मौका दे दिया है.

ऐसे दौर में जब हर कोई गांव से भाग रहा है, तब इस तरह की कहानियां सुनाने की जरूरत है, ताकि गांव से पलायन रुके, साथ ही महानगरों से भी लोग अपनी जड़ की तरफ लौटें.

जीवन में हार-जीत तो लगा ही रहता है. ऐसे में मिट्टी से जुड़ना बहुत बड़ा काम है. ‘मैला आंचल’ में रेणु ने अपनी पात्र ममता के हवाले से कहा है- ‘कोई रिसर्च कभी असफल नहीं होता डॉक्टर! तुमने कम-से-कम मिट्टी को तो पहचाना है. मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत, छोटी बात नहीं.’ तो आइये, इस भागमभाग जीवनशैली में आप भी अपने गांव-घर के लिए कुछ वक्त निकालिये, अपनी माटी के लिए कुछ अलग करिये.

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