उत्तराखंड से निकले डरावने संकेत

पवन के वर्मा पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य अधिकतर लोगों को यह नहीं पता होगा कि जयदेव सिंह नामक एक व्यक्ति ने हाल ही कुछ ऐसा किया, जैसा लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. जयदेव सिंह एक नौकरशाह हैं, जो वर्तमान में उत्तराखंड सरकार में विधायी एवं संसदीय विभाग के प्रधान सचिव […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2016 1:35 AM
पवन के वर्मा
पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य
अधिकतर लोगों को यह नहीं पता होगा कि जयदेव सिंह नामक एक व्यक्ति ने हाल ही कुछ ऐसा किया, जैसा लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. जयदेव सिंह एक नौकरशाह हैं, जो वर्तमान में उत्तराखंड सरकार में विधायी एवं संसदीय विभाग के प्रधान सचिव हैं.
10 मई, 2016 को उन्होंने न सिर्फ उत्तराखंड विधानसभा के सभागार में प्रवेश किया- जहां नौकरशाहों को जाने की अनुमति नहीं मिलती- बल्कि अध्यक्ष के परम पवित्र आसन पर बैठ सभा की कार्यवाही का संचालन किया. ऐसा कर उन्होंने, मेरी राय में, गिनीज बुक ऑफ रिकाॅर्ड्स तथा भारतीय लोकतंत्र की विधायी कार्यपद्धति के इतिहास में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया.
उत्तराखंड के हालिया सियासी घटनाक्रम का प्रासंगिक तथ्य यह है कि सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के नौ विधायक भाजपा के आकर्षण में बंध कर विद्रोही बन गये और 18 मार्च, 2016 को उन्होंने विपक्ष के साथ मिल कर सरकार गिराने की कोशिश करते हुए मतविभाजन की मांग की.
विधानसभा अध्यक्ष ने उसे न मान कर बजट को ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया. इस पर विपक्षियों ने राज्यपाल से मिल कर कहा कि हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गयी है और राज्यपाल ने उसे 28 मार्च, 2016 को सदन में बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया.
जैसी उम्मीद थी, अध्यक्ष ने नौ विद्रोही विधायकों को दलबदलरोधी अधिनियम के प्रावधानों के तहत सदन से निष्कासित कर दिया. इसके बाद भाजपा के लिए पिछले दरवाजे से सरकार गिरा पाना कठिन हो गया. इसलिए सदन में शक्ति परीक्षण के ठीक एक दिन पूर्व केंद्र सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन थोप दिया.
इस पर रावत ने पहले उत्तराखंड हाइकोर्ट में अपील की, जिसने शक्ति परीक्षण की तिथि बढ़ा कर 31 मार्च कर दी, और कहा कि नौ निष्कासित विधायक भी उसमें भाग ले सकेंगे. इस निर्णय के विरुद्ध हाइकोर्ट की खंडपीठ ने सदन में शक्ति परीक्षण को रोक दिया और इस मामले में आगे की सुनवाई भी रोक दी.
अंत में सुप्रीमकोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप किया और रावत सरकार को निर्देश दिया कि वह सदन में अपना बहुमत सिद्ध करे. केंद्र सरकार ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की, जिस पर कोर्ट ने राज्य में राष्ट्रपति शासन बहाल करने का निर्देश दिया और 10 मई, 2016 को सदन में शक्ति परीक्षण की तिथि तय करते हुए कहा कि इस हेतु दो घंटों के लिए राष्ट्रपति शासन हटा लिया जायेगा.
कोर्ट के निर्देश के मुताबिक अध्यक्ष को नहीं, बल्कि एक नौकरशाह को अध्यक्ष की पवित्र कुर्सी पर बैठ कर सभा का संचालन करना और यह फैसला देना था कि किसे बहुमत हासिल है. इस तरह जयदेव सिंह के लिए वह ऐतिहासिक पल आया.
इसका संदेश क्या है? हमारे संविधान द्वारा विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच एक संरचनात्मक संतुलन बनाने के पीछे मंशा थी कि तीनों ही अपनी भूमिका का प्रभावी इस्तेमाल करेंगी, पर इस प्रक्रिया में न्यायपालिका कुछ अधिक दूर तक चली गयी. धारा 212 ने विधायिका की कार्यप्रणाली को किसी अदालत के क्षेत्राधिकार से स्पष्टतः बाहर कर रखा है. व्यवहार में इसका तात्पर्य यह है कि सदन के अध्यक्ष को दी गयी शक्तियों के मुताबिक, किये गये उसके फैसले अदालत के क्षेत्राधिकार से बाहर हैं. पर इस मामले में कोर्ट ने अध्यक्ष की वैधानिक शक्तियों के तहत उसके कार्यकलाप की परीक्षा कर दी.मुझे यकीन है कि वहां कुछ दूसरे विकल्प भी मौजूद थे.
यदि माननीय न्यायालय की मंशा यह थी कि सदन में निष्पक्ष मतदान हो, तो वह पूरी कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग या लाइव टीवी प्रसारण का आदेश दे सकता था. पर अध्यक्ष को यह कहा जाना कि वह अपनी कुर्सी सचिव के लिए खाली कर दे, जो उसे रिपोर्ट करता है, अभूतपूर्व है और मैं भविष्य के लिए इसके संकेतों को लेकर भयभीत हूं.
संविधान द्वारा सुप्रीमकोर्ट को दी गयी शक्तियां वह कभी किसी विधायी प्राधिकार को नहीं दे सकता. क्या वह किसी सांसद या नौकरशाह को न्यायालय की कार्यवाही की अध्यक्षता की इजाजत देकर उसे अपना फैसला एक मुहरबंद लिफाफे में संसद को भेजते हुए उसे वहां खोलने की अनुमति देगा? मैं पूरे सम्मान के साथ यह कहना चाहूंगा कि फिर वह विधानसभा से कैसे यह अपेक्षा कर सकता है कि वह अपने अध्यक्ष की मर्यादा गिराते हुए एक नौकरशाह को सदन की कार्यवाही का संचालन करने दे?
जयदेव सिंह को तो प्रसिद्धि का एक दिन मिल गया. मगर मेरी चिंता यह है कि विधायिका तथा न्यायपालिका के संबंधों पर इस एक दिन का काला साया आनेवाले कई वर्षों तक मंडराता रहेगा.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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