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लैंगिक समानता के लिए प्रेम

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका प्रेम के विषय में बात करने की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि आम धारणा के हिसाब से स्त्रीवादी प्रेम-विरोधी होती हैं. सब फेमिनिस्ट चूंकि पुरुष-विरोधी हैं, जो कि गलत सोच है, इसलिए प्रेम पर बात करने के लिए अयोग्य हैं. प्रेम और जंग में अगर सब जायज है, तो […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
प्रेम के विषय में बात करने की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि आम धारणा के हिसाब से स्त्रीवादी प्रेम-विरोधी होती हैं. सब फेमिनिस्ट चूंकि पुरुष-विरोधी हैं, जो कि गलत सोच है, इसलिए प्रेम पर बात करने के लिए अयोग्य हैं. प्रेम और जंग में अगर सब जायज है, तो फिर उसका विश्लेषण क्या! यह भी माना जाता है कि प्रेम दैवीय है, तो ऐसे में यह अलौकिकता भी उसे अप्रश्नेय बनाती है. दरअसल, प्रेम पर बात करना उस समाज में भी आसान नहीं है, जिसकी नैतिकता औरत के सर का पल्लू खिसकने से खंडित हो जाती है.
स्त्री के दहलीज लांघने से जिस समाज का शील भंग होता है, वहां ‘प्रेम’ के प्रशिक्षण पर बात करते हुए भय होता है. भय प्रेम का महत्वपूर्ण अंग है, ‘भय बिनु होय न प्रीति’ और प्रेम की पहली ट्रेनिंग में मां सिखाती है कि कोई बात नहीं जो पिता इतना सख्त हैं और प्रतिबंध लगा कर रखते हैं, आखिर वे बहुत प्यार करते हैं, जताना नहीं जानते. यही भाई, पति और पुत्र करते हैं और स्त्री को बुरा नहीं लगता. वह असहज नहीं होती. सवाल नहीं करती, क्योंकि सवाल कभी मां ने भी नहीं किये थे. जीव-विज्ञानी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिकों ने प्रेम की सिर्फ व्याख्याएं कीं. स्त्रीवाद ने पहली बार प्रेम पर सवाल उठाये और वाजिब ही उठाये.
सहज हुए बिना स्त्री प्रेम करती है. दी गयी भूमिका निबाहती है. इसलिए जब स्त्रीवादी लेखिका शुलमिथ फायरस्टोन लिखती हैं कि गैर-बराबरी के बीच प्रेम एक अभिशाप बन जाता है, तो गहरी जरूरत होती है इस बात को समझने की कि प्रेम पितृसत्ता के हाथ का औजार तो नहीं?
इसलिए स्त्री के लिए जीने का सबसे जरूरी कौशल तो नहीं? आखिर सदियां हुईं स्त्री को प्रेम करते, लेकिन उसकी स्थिति नहीं सुधरी, और बुरी ही हुई. इस तरह से बात शुरू करते ही किसी मेज के नीचे छिप जाने की जरूरत लगती है, क्योंकि इमारत ढहने के पूरे आसार होते हैं. प्रेम पर बात न कर सकना ही दर्शाता है कि यह कोई भयानक गड़बड़झाला है.
बहुत जतन से प्रेम की अदेखी रूल बुक बनायी गयी है. हम एक दकियानूसी व्यवस्था के रूप में एकदम सचेत रहते हैं कि प्रेम औरत की कमजोरी रहे. स्त्री की गुलामी अन्य दासों से अलग है, क्योंकि वह इसे प्रेम के नाम पर करती रही. क्योंकि सीधे-सीधे कोई सत्ता स्त्री के हाथ में नहीं है, उसका दर्जा दोयम है समाज में, उसे पुरुष की कृपा पानी और बनाये रखनी है, इसलिए प्रेम में कई तरह के हथकंडे स्त्री को अपनाने पड़ते हैं. कई तरह के नाटक दोनों ओर से खेले जाते हैं, जो स्वयं प्रेम करनेवाले मनुष्य को सहज नहीं रहने देते.
जब तक सहज नहीं है और बराबरी नहीं है, वहां प्रेम समाज के किसी भी अन्य आर्थिक संबंध की तरह है. कह सकते हैं एक बंधुआ मजदूरी है. मेरी वोल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, सीमोन द बुवा ने अपने-अपने तरीके से स्त्री की निर्मिति में प्रेम के प्रशिक्षण पर सवाल उठाये और इसे समझाने की कोशिश की.
सबसे भयानक है प्रेम की वह परिभाषा कि ‘मैं तुझमें समा जाऊं तू मुझमें समा जाये’. कबीर याद आते हैं ‘प्रेम गली अति सांकरी या में दो न समाहीं’, प्यार का रास्ता इतना संकरा कैसे हो सकता है?‌
एक में दूसरे के व्यक्तित्व का विलय ही अगर प्रेम है, तो एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह सबसे ज्यादा खतरनाक है स्त्री के लिए. वह धर्म, नाम, रीति-रिवाज, खान-पान, राजनीतिक विचारधारा (अगर कोई हो तो) भी बदल लेती है, वोट देना भी ‘प्रेम’ का विषय हो जाता है. स्त्रीवाद ने ऐसे प्रेम की आलोचना की है. प्रेम एक का दूसरे में विलय नहीं है, बल्कि पारस्परिक विनिमय है स्व का. इसलिए प्यार में ‘पड़ना’ नहीं होता (यह कोई जाल नहीं), इसके काबिल बनना होता है. प्रेम अगर गुलामी है, तो वह दो में से एक को नुकसान पहुंचायेगा ही.
खलील जिब्रान ने कहा है- प्रेम का मतलब एक कप से, लेकिन अलग स्ट्रॉ से पीना. एक-दूसरे की वैयक्तिकता को बचाते हुए ही नहीं, समृद्ध करते हुए. जिस संबंध की शुरुआत ही गैर-बराबरी से होती है, उसमें प्रेम अंतत: जेंडर स्टीरियोटाइप का निर्वाह भर ही रह जाता है. लड़की को खुद से हर मायने में बेहतर साथी चुनना होता है. अधिक पढ़ा-लिखा, अधिक कमानेवाला, अधिक उम्रवाला पति, जो उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी ‘उपलब्धि’ होता है.
प्रेम भी पॉलिटिक्स है अगर यह एक को अकूत सत्ता देता है और दूसरे को विवश बनाता है. यहीं जन्म होता है प्रेम में हिंसा का. स्त्रीवादी नजरिये से प्रेम का यह रूप घातक है. ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’… और आखिरकार प्रेम की हिंसा का हाल भी यही है. लगातार हो रही ‘ऑनर किलिंग’ बताती है कि हर रिश्ते में मिलनेवाले प्रेम की शर्तों का उल्लंघन दंडनीय है.
इस फिल्मी संवाद में एक बड़ी सच्चाई है- ‘थप्पड़ से नहीं, प्यार से डर लगता है साब!’ जेंडर-भेदभाव से ग्रस्त समाज में प्रेम भी इन बुराइयों को संस्थाबद्ध तरीके से चलाते रहने का टूल हो जाता है. वैवाहिक प्रेम में यह हिंसा, जिसे त्याग या समर्पण जैसे शब्दों से ढका जाता है, अक्सर दोनों ओर से होती है और मान्य है. सारी कोशिशें प्रेम को नहीं, विवाह को बचाने के लिए होने लगती हैं.
स्त्री जब तक ‘अन्य’ की श्रेणी में है, उसे कैसे बराबर समझा जा सकेगा. मन में सम्मान न हो, तो खुद से इतर क्या खुद को भी समझने के लिए आप उद्यत नहीं होते? समाज में स्त्री के खिलाफ हिंसा और घृणापूर्ण रवैया (मिसोजिनी) देखते हुए यह लगता भी है कि राह आसान नहीं.
अपने सहज स्वरूप में प्रेम स्त्री को आजाद करता है, मुक्ति का उत्सव है स्त्री के लिए प्रेम. उत्सव अकेले नहीं मनाया जाता. एक पुरुष को भी यह उतना ही आजाद करता है. प्रेम बने-बनाये जीवन सिद्धांतों, परंपरागत नियमों और स्थापित संस्थाओं को ताक पर रखता है, अपने रास्ते और मंजिलें खुद तय करता है, दोनों में से किसी एक को झुकाये बिना. इस तरह प्रेम आजादी की तरफ बढ़ा कदम होता है.
लेकिन सिर्फ एक कदम, क्योंकि आगे वह लगातार एक साझा संघर्ष है बराबरी के लिए. इस रूप में स्त्रीवाद प्रेम को ताकत ही मानता है. प्रेम सिर्फ हॉर्मोंस का मामला नहीं होता. सदियों के प्रशिक्षण में लैंगिक रूढ़ियां तैयार हुई हैं उनसे मुक्त होकर, और पुरुष ही की तरह स्त्री को भी बराबरी से सामाजिक-आर्थिक-भावनात्मक आत्मनिर्भरता हासिल हो, तो प्रेम का यह उत्सव स्त्री-पुरुष दोनों मना सकेंगे.

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