मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी
-हरिवंश कुछ स्मृतियां जीवन के साथ ही विदा होती हैं.गंगा के साथ ऐसी ही स्मृतियां हैं. जनमा, गंगा-घाघरा की गोद में. कई रूपों, भंगिमा और तेवर में देखा है गंगा को. करवट बदलते, विनाश करते, खेतों को आबाद करते, ऊंची-ऊंची लहरों की गर्जना, अशांत नदी का शोर.. न जाने गंगा के कितने रूप हैं. उस […]
-हरिवंश
सूरज के उतरने में देर थी. गंगा का पानी गहरा नीला दिख रहा था. शांत. एक ओर रेत का मीलों फैला समुद्र. हमारी तरफ ताड़ बराबर ऊंचा तट. गंगा, कटाव के लिए मशहूर हैं. पर ऊपर तट पर खड़े होकर नील वर्ण की गंगा का सौंदर्य बाल मन में उतरता गया गहरे. वर्षों बाद जाना, चैत की गंगा का सौंदर्य, रंग, सुबह की मादक हवा कैसे यादगार होती है? पुरवइया हवा थी. ताजी बयार. सूर्योदय पूर्व का गहरा नीला आकाश. चांद अभी लुप्त नहीं हुआ था. नीला पानी. यह सब मिल कर प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य रच रहे थे. कई दशकों पहले गंगा को देखा वह दृश्य मन-मस्तिष्क और दिल में उतर गया, तसवीर की मानिंद.
गंगा किनारे बसा है, यह सेंटर. गंगा तट पर बड़े-बड़े छतनार पेड़, वहां बैठ कर ध्यान या कृष्णमूर्ति दर्शन पर चर्चा, या मौन होकर गंगा को निरखना. शांत बहती नदी. राजघाट का पुल. नावों पर सैलानी. जैसे लगता है, समय ठहर गया हो. काशी की एक मान्यता है कि वह शंकर के त्रिशूल पर है. काल से परे. जहां ‘कालचिता’ (मणिकर्णिका श्मशान) चौबीस घंटे जलती है. गंगा किनारे. फिर प्रयाग की गंगा, हरिद्वार की गंगा, ऋषिकेश की गंगा और मेरे गांव की गंगा. साल में छह महीने गंभीर बाढ़ का प्रकोप.
भरीत (मिट्टी भर कर ऊंचाई पर डूब क्षेत्रों में घर बनते हैं) के नीचे डूबाह पानी. बचपन में बाढ़ की उत्सुक प्रतीक्षा, नावों की चाहत. गंगा की पूजा. लोकगीत. नदियों से तबाही. बार-बार घरों का कट कर नदी में गिरना. फिर भी उसी नदी की पूजा. उससे अलग या दूर न होना. उसी में मरना और जीना. इसलिए गंगा पर या नदियों पर साहित्य या वृत्तांत पढ़ना, तो उन बीते क्षणों – दिनों को जीने जैसा है.
नील, एमेजन, मिसिसीपी, यांगत्सी, ये सभी गंगा से दोगुनी लंबी हैं. उसी गंगा को पहली बार 1986 में हालिक ने देखा, बनारस में. डाक्यूमेंट्री बनाते वक्त. पुरानी कहावत है, ‘सुबहे बनारस, शामे अवध’. सुबह गंगा किनारे का बनारस अद्भुत होता है. यह अनुभव का प्रसंग है, बखान का नहीं. हालिक ने देखा, फिर वे गंगा के हो गये. फिर कानपुर से देखा. बांग्लादेश से देखा, गंगा को. और बंध गये इस नदी से. फिर बड़ा निर्णय किया. हिमालय (गंगोत्री) से गंगासागर (जहां गंगा समुद्र में मिलती हैं) तक की यात्रा. नाव से. दिन में यात्रा. रात में नदी किनारे टेंट लगा कर रहना. या कहीं-कहीं किनारे बसे आश्रमों में पड़ाव.
बनारस जैसे शहर में होटल में. साथ ही दुनिया के जाने-माने रेडियो संस्थानों के लिए ‘गंगा यात्रा’ पर कमेंट्री. तीन चरणों में और 18 महीनों में संपन्न हुई यह यात्रा. पर मुख्य यात्रा अप्रैल 2004 से (जब गंगोत्री में बर्फ पिघल चुका था). फिर अक्तूबर 2004 से जनवरी 2005 के बीच. साथ में फोटोग्राफर. अनुवादक, नाविक, ये बदलते रहते थे. जगह और जरूरत के मुताबिक. अंतिम 100 किमी की गंगा यात्रा में हालिक की पत्नी मार्टिन भी साथ रहीं. अब लंबे समय से हालिक सपरिवार अमेरिका में रहते है. फ्रांस में भी.
पर हर एक के मन में गंगा के प्रति अगाध भक्ति और प्रेम. फिर गंगा पानी की पवित्रता पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण. यह जानकर आश्चर्य हुआ कि डेढ़-दो सौ वर्ष पहले गंगा के पानी को पेरिस ले जा कर परखा गया लेब्रोटरी में. पाया गया कि गंगा के पानी में कुछ तत्व हैं, जो कीटाणुओं को, बीमारी को, गंदगी को कंट्रोल करते हैं. सबसे मार्मिक अध्याय है ‘द रेप आफ गंगा’ (गंगा से बलात्कार). गंगा की गंदगी-प्रदूषण का आलम. यह अध्याय पढ़ते हए मेरे गांव के सहपाठी किसान की बात याद आयी. गंगा सूख रही है. पाट (चौड़ाई) सिमट रहा है. उनकी दृष्टि में लोक मान्यता है कि गंगा सूखी तो प्रलय होगा. मेरी नजर में इस कथन का अर्थ है कि प्रदूषण से नदियां सूखीं, तो मनुष्य और धरती तो खतरे में होंगे ही. पुस्तक में गंगा के अलग-अलग सौंदर्य का बखान, वनों, पहाड़ों और घाटियों में इठलाती, उफनती और घहराती-गुजरती. हरिद्वार की आरती का सजीव सौंदर्य बखान.
साथ में कार्तिक स्नान की भव्यता का ब्योरा. डायना एल एक (हार्वर्ड की प्रोफेसर) का गंगा पर बड़ा लेख. डायना ने बनारस पर दो विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं. बनारस की उत्तरायण गंगा का पहला दृश्य 80 में देखा था. विद्यार्थी था. रात को मुगलसराय से बनारस जाने के क्रम में राजघाट पुल से. दीपों से नहाते गंगा किनारे के घाटों का अक्षत सौंदर्य. डायना का लेख पढ़ते हुए वे दिन याद आये.
‘मानो तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी’, बरसों पहले सुना था. पर हमारा विकास दर्शन तो बहते पानी के ही खिलाफ है, उसे तो इस बहते पानी का ‘कामर्शियल यूज’ करना है. पर गांवों में आज भी अलग दर्शन है. जिस गंगा नदी में पांच बार घर कट कर गिरा(मेरे जन्म से पूर्व), एक बार डूबते-डूबते बचा, जिसके तट पर स्वजनों की चिता जली, जो आज भी बाढ़ और कटाव से तबाह करती है, फिर भी वहीं गंगा पूजी जाती हैं. मुसीबतों के बाद भी उस गंगा का साथ कोई छोड़ने को तैयार नहीं. उनका पर्व मनता है. कामना होती है कि हर घर में गंगाजल हो और जीवन को जो अंतिम बूंद मिले, वह गंगा का ही हो.