दुनिया का नया सुपरपावर!

-हरिवंश- यह पुस्तक ‘आउट आफ माओज शैडो, द स्ट्रगल फार द सोल आफ ए न्यू चाइना’ पलटते ही चर्चिल याद आये. चीन के बारे में चर्चिल की मशहूर उक्ति है, अफीम सेवन करनेवालों को उसके नशे में ही डूबे रहने दो. अगर ये जग गये, तो दुनिया पर काबिज हो जायेंगे. यह चीन के दुनिया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2016 5:42 PM

-हरिवंश-

यह पुस्तक ‘आउट आफ माओज शैडो, द स्ट्रगल फार द सोल आफ ए न्यू चाइना’ पलटते ही चर्चिल याद आये. चीन के बारे में चर्चिल की मशहूर उक्ति है, अफीम सेवन करनेवालों को उसके नशे में ही डूबे रहने दो. अगर ये जग गये, तो दुनिया पर काबिज हो जायेंगे. यह चीन के दुनिया पर काबिज (महाशक्ति बनने) होने का दस्तावेज है. चमत्कार का शब्दों में ‘फिल्मीकरण’ या ‘फिल्मों की तरह शब्द चित्रण’. यह चीन के अविश्वनीय बदलाव का दस्तावेज है. यह लिखा है, फिलिप पैन ने. वाशिंगटन पोस्ट के विदेश स्थित संवाददाता. वह चीन में इस समाचारपत्र के पूर्व ब्यूरोचीफ रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टिंग में विश्व के कई महत्वपूर्ण सम्मान पा चुके हैं. वर्ष 2000 से 2007 तक वह चीन में रहे. चीनी भाषा बोलते थे. पढ़े भी वहीं. चीन में ओर से छोर यात्रा की.
2002 में मैंने चीन देखा था. तब वह मुल्क परी कथाओं जैसा लगा. छह वर्षों बाद तो चीन शिखर पर है. चीन का 2008 ओलिंपिक आयोजन तो दुनिया को मुग्ध और हतप्रभ कर गया. यह मनुष्य की इच्छाशक्ति, कठोर श्रम, ध्येय और समर्पण की जीत की कथा है. चीन ने दुनिया को बताया है, कि विजन और उत्कृष्ट कार्यक्षमता से कैसे वह संसार के लिए पहेली बन गया है. ओलिंपिक में चीन ने सबसे अधिक गोल्ड मेडल ही नहीं पाया (कुल 51, भारत एक) बल्कि यह स्पष्ट संदेश भी दे दिया कि वह राजनीतिक, औद्योगिक, सामरिक और खेल में नया ‘सुपरपावर’ है.
पुस्तक की भूमिका में फिलिप याद करते हैं. 2001 की गर्मियों की एक रात. दिन शुक्रवार. मशहूर तियानमेन स्क्वायर में उमड़ते चीनी युवकों का सैलाब. नाचते-गाते, उमंगों से भरे युवा. अवसर था, 2008 की गर्मियों में ‘ओलिंपिक आयोजन’ का मेजबानी पाना. यह वह जगह थी, जहां 1989 में लोकतंत्र समर्थक चीनी युवाओं पर टैंक चले थे. सेना ने युवकों का उफान कुचल दिया था. नरसंहारों की उस आह, पीड़ा और कराह के कब्र पर नया चीन थिरक रहा था. उस युवा अतीत को कब्र में डाल, भविष्य को मुट्ठी में करने के लिए बेचैन और व्यग्र.
फिलिप कहते हैं, मैं साझी बना, दुनिया में सर्वसत्तात्मक शासन के अब तक के सबसे बड़े प्रयोग का. पश्चिम की धारणा थी, पूंजीवाद अंतत: लोकतंत्र की ओर जाता है. खुला बाजार, अंतत: खुले समाज की ओर से ले जाता है. चीन के साम्यवादी शासकों ने लोकतंत्र को राजनीतिक सत्ता सौंपे बिना ही, आर्थिक क्रांति को सफल बनाया.
फिलिप कहते हैं कि चीन में जो पिछले 5000 वर्षों के इतिहास में नहीं हुआ, वह पिछले 25 वर्षों में हुआ. माओ के बाद चीन अचानक बदला. एक पिछड़ी अर्थव्यवस्था (बैकवाटर इकोनॉमी) अब व्यापार, मैन्युफेक्चरिंग की पावरहाउस (मुख्य केंद्र) हो गयी है. चीन ने वह विकास दर हासिल किया है कि दुनिया को उससे ईर्ष्या होती है. जहां धान के लहलहाते खेत थे, वहां विशाल बहुमंजिली इमारतें, चमकती सड़कें (मीलों लंबे फ्लाइओवर्स), फास्ट लेन की सड़कें, जगह-जगह हवाई अड्डे. मछुआरों के गांव बदल गये हैं, दुनिया के चमकते सुंदर और लुभावने शहरों में, बाल मृत्युदर घटी है. आय बढ़ी है.

सामान्य आयु बढ़ी है. और इस बेमिसाल आर्थिक बदलाव के साथ ही गुपचुप राजनीतिक बदलाव के संकेत भी दिखते है. माओ के जमाने में लाल किताब लेकर चलनेवाले पार्टी काडरों का जो भय था, सार्वजनिक ट्रायल और हत्या की वारदातें थीं, वे अतीत के पन्नों में दफन हो रही हैं. आज चीन के लोग महज अधिक संपन्न ही नहीं हैं, बल्कि निजी जीवन में एक सीमा तक राजनीतिक आजादी का भी आनंद ले रहे हैं.

2008 में न्यूयार्क के पिकाडोर से छपी इस पुस्तक में तीन अध्याय हैं. पहले अध्याय में जाओ जियांग का मार्मिक वर्णन है. माओ के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के वह तीसरे महासचिव थे. सबसे ताकतवर. 1989 के बसंत में जब बीजिंग के तियानमेन स्क्वायर में युवकों ने बदलाव की अंगड़ाई ली, तब वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रधान थे. छात्रों को नियंत्रित करने के लिए सेना उतरे या टैंक चले, इसके विरोधी. वह अचानक, तब एक सुबह आंदोलन कर रहे युवकों के बीच चले गये. वह चीन के सम्मानित बुजुर्ग नेताओं में से थे. उन्होंने छात्रों की मांगों के प्रति सहानुभूति प्रकट की. उनकी आलोचनाओं को सही माना और उनको घर लौट जाने को कहा. पर उनकी आवाज लड़खड़ा रही थी. वे अपने आंसू नहीं रोक पाये.

वह जानते थे कि कुछ देर बाद इसी जगह पर छात्रों पर टैंक चलेंगे. छात्र उनकी बात नहीं माने. अंतत: सेना आयी और चीन ने अपने लिए एक बदनुमा अध्याय रच डाला. पर चीन के साम्यवादी नेताओं ने जाओ को आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति जताने की सजा दी. वह अपने साथी कम्युनिस्ट नेताओं के साथ नहीं, बल्कि आंदोलनकारी छात्रों के साथ खड़े थे. वे पार्टी से हटा दिये गये. बिल्कुल निर्वासित. अकेलापन. एक छोटे घर में लगभग कैद. भय से उनसे कोई मिलने नहीं आता था.

लगभग 16 वर्षों बाद 2005 में उनकी मृत्यु हो गयी. 85 वर्ष की अवस्था में. उस लगभग भुला दिये गये व्यक्ति की शवयात्रा में जिस तरह से युवा चीनी उमड़े, वह वृत्तांत रोमांच पैदा करता है. इंटरनेट पर कैसे उनकी मौत की छोटी खबर आयी और लोगों की कतारें लग गयीं. जाओ के उस घर में जो लगभग उपेक्षित, वीरान, टूटा-फूटा था. जाओ की मौत चीन के एक दौर का पटाक्षेप था. पर चीन जैसे बंद और एक पार्टी के शासन वाले देश में भी जाओ जैसे नेता का जो सम्मान, उनके न रहने पर हुआ, वह भविष्य के चीन का संकेत देता है.

इसी तरह अनेक महत्वपूर्ण पात्रों के माध्यम से बदले चीन का वृत्तांत लिखा है, फिलिप पैन ने. चीन को वाच करना भारत की मजबूरी है. चीन भारत के लिए खतरनाक ताकत है. उसकी साम्राज्यवादी मंशा स्पष्ट है. न्यूक्लीयर डील पर उसका पहला बयान आया कि हम भारत का समर्थन करेंगे, पर जब अवसर आया, तो चीन ने विरोध किया. यह मुल्क कहता कुछ है, करता कुछ है. इस मुल्क को पहचाना था, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ राममनोहर लोहिया ने. जरूरत है अमेरिका की चुनौती बन जाने वाले दुनिया की इस नयी महाशक्ति को भारत का हर युवा पहचाने. इसके इरादे, भूख और सपने को.

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