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गरीबी? छोड़िए, यह भी कोई मुद्दा है!

।। सत्य प्रकाश चौधरी।। (प्रभात खबर, रांची) छी-छी- वो भी कैसे सड़े हुए दिन थे, जब चुनाव गरीबी, बेरोजगारी जैसे ‘डाउनमार्केट’ मुद्दों पर लड़े जाते थे. तब के नेताओं को यह दिव्य- ज्ञान कहां था कि ‘गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड है’? वे तो गरीबी को अभिशाप कहते रहे. कितने नासमझ थे बेचारे? अब […]

।। सत्य प्रकाश चौधरी।।

(प्रभात खबर, रांची)

छी-छी- वो भी कैसे सड़े हुए दिन थे, जब चुनाव गरीबी, बेरोजगारी जैसे ‘डाउनमार्केट’ मुद्दों पर लड़े जाते थे. तब के नेताओं को यह दिव्य- ज्ञान कहां था कि ‘गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड है’? वे तो गरीबी को अभिशाप कहते रहे. कितने नासमझ थे बेचारे? अब बताइए, अगर नेहरू, शास्त्री और इंदिरा के जमाने में गरीबी दूर हो गयी होती, तो एक बच्च चाय क्यों बेचता और उसे बड़े होकर देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मौका कैसे मिलता? हमें तो एहसानमंद होना चाहिए उन नेताओं का जो गरीबी दूर नहीं कर पाये, नहीं तो एक महान नेता पाने के अवसर से देश वंचित रह जाता.

यह तो अच्छा हुआ कि उस जमाने में आज की तरह टीवी न्यूज चैनल नहीं थे, नहीं तो उनकी टीआरपी हमेशा जमीन ही सूंघती रहती. कोई गरीबी, बेरोजगारी जैसे नीरस मसलों पर भला कितनी देर प्राइम टाइम में टीवी पर बहस करा सकता है? बहस करनेवाला भी डिप्रेशन का शिकार हो जाता और बहस सुननेवाला भी. टीवी के लिए विजुअल चुनने में परेशानी आती सो अलग. झुग्गी-झोपड़ी, भूख से बिलखते नंगे-गंदे बच्चे, घिसी चप्पलों और बढ़ी दाढ़ीवाले नौजवान.. यानी सिर्फ ‘फील बैड’. 2004 के आम चुनावों में कुरसी पर बैठी पार्टी को भी ‘स्टेट ऑफ माइंड’ के सिद्धांत का दिव्य-ज्ञान हुआ था, और उसने अपना चुनाव अभियान ही ‘फील गुड’ के नारे पर केंद्रित कर दिया था. गरीब हो तो क्या हुआ, अच्छा महसूस करो यानी ‘स्टेट ऑफ माइंड’ बदलो.

यह बात और है कि जनता ने उसकी जगह विपक्षी पार्टी को ‘फील गुड’ करा दिया. लेकिन, उस चोट से उन्होंने हार नहीं मानी है.10 साल बाद, 2014 के आम चुनाव में फिर वे ‘फील गुड’ करा रहे हैं, लेकिन दूसरे तरीके से. अब ‘फील गुड’ शब्द ‘विकास’ में तब्दील हो गया है. सबसे पुरानी पार्टी (यह दावा सच्च है या झूठा, आप तय करें) अब भी नासमझ है, बेचारी गरीब..गरीब..गरीब.. की माला जप रही है. अपना ‘स्टेट ऑफ माइंड’ बदल कर, चायवाले से पीएम उम्मीदवार बने नेता ने इसकी कैसी बखिया उधेड़ी? अब बताइए, गरीब भी कोई बात करने लायक चीज है? बात करनी है तो विकास की करो. लेकिन यह मत पूछना कि विकास किसका होगा. मजदूरों का या उद्योगपतियों का? किसानों का या उनकी उपज खरीदनेवाले व्यापारियों का? विकास सब धान बाइस पसेरी हो गया है.

अभी नया-नवेला आया राजनीतिक दल भी इसी ‘स्टेट ऑफ माइंड’ के सिद्धांत पर काम कर रहा है. आप टाटा हों या अंबानी, किरानी हों या भिखारी, खुद को ‘आम आदमी’ समङों. क्या खूब बात है? पांच चरणों में रात्रि भोज करनेवाला भी खुद को आम आदमी समङो और जाड़े में आधे पेट किसी तरह सोने की कोशिश करनेवाला भी खुद को आम आदमी समङो! जो भी हो, ‘स्टेट ऑफ माइंड’ के लिहाज से समाजवाद सचमुच आ गया है.

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