सहकारी संस्थानों को मजबूत करें

बिहार दुग्ध उत्पादक सहकारी संगठन (सुधा ब्रांड) की सफलता अमूल की तरह एक केस स्टडी है. यह निजीकरण के दौर में सहकारिता की सफलता की कहानी ही नहीं है, बल्कि यह गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में टिके रहने का सिद्ध फामरूला भी बन रहा है. सुधा अपने उत्पादों को देर तक खराब होने से बचाने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 18, 2014 3:28 AM

बिहार दुग्ध उत्पादक सहकारी संगठन (सुधा ब्रांड) की सफलता अमूल की तरह एक केस स्टडी है. यह निजीकरण के दौर में सहकारिता की सफलता की कहानी ही नहीं है, बल्कि यह गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में टिके रहने का सिद्ध फामरूला भी बन रहा है. सुधा अपने उत्पादों को देर तक खराब होने से बचाने के लिए अब टेट्रा पैक पर भी काम शुरू कर चुका है. दरअसल, यह पहल यह बताने के लिए काफी है कि सहकारी संस्थानों को बचने के लिए प्रतियोगी और पेशेवर रवैया अपनाना ही होगा.

इसके अलावा कोई दूसरा तरीका हो नहीं सकता है. तमाम तरह के सरकारी संरक्षण के बावजूद नेहरू युग में बने सार्वजनिक उपक्रम डूब गये. बचाने के लिए करोड़ों-अरबों का पैकेज काम नहीं आया. इसका मूल कारण यह रहा कि इन सार्वजनिक उपक्रमों को प्रतियोगी बनाने की कोशिश नहीं की गयी. पेशेवर रवैया नहीं होने के कारण जनता का धन बर्बाद हुआ. उदारीकरण का दौर तो इस तरह के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए और भी बुरा रहा. अपने समय के एक्सलेंस वाले संस्थानों के डूब जाने के पीछे सरकारी नीतियां भी रहीं. बिहार-झारखंड में एक के बाद एक सरकारी उपक्रम कैसे बंद हो गये? सहकारी प्रयास से शुरू होने वाले तमाम उद्यम भी बाजार में टिक नहीं पाये.

ऐसे में सुधा एक उदाहरण है. सुधा की सफलता में उन किसानों की मेहनत का योगदान है. सुधा से जुड़नेवाले किसानों की किस्मत तो चमकी ही और एक ऐसा संस्थान खड़ा हुआ, जो प्रतियोगिता के दौर में और भी चमका है. अब समय है कि सुधा की सफलता के मॉडल को अपना कर दूसरे सहकारी संस्थान खुद को नये सिरे से खड़ा करें. बिहार व झारखंड में दर्जनों सहकारी संस्थान हैं, जो अपनी गड़बड़ियों के कारण बंद हो गये हैं. उन्हें फिर से जीवित किया जा सकता है. बस, जरूरत यह है कि इन संस्थानों को भी पेशेवर रुख अपनाना होगा. एक्सपर्ट की सेवाएं लेनी होंगी.

कुछ स्थानों पर इस तरह की कोशिश शुरू भी हो चुकी हैं. इस तरह की कोशिश करनेवाले संस्थानों को सरकार को अपने स्तर पर प्रोत्साहन भी देना चाहिए. बिहार व झारखंड, दोनों ही राज्यों में पिछले चार-पांच सालों में पैक्स व लैंपस ने धान से लेकर अन्य कृषि उपज की खरीद में बेहतरीन भूमिकाएं निभायी हैं. इस तरह की संस्थाओं को और मजबूती से काम करना होगा.

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