-हरिवंश-
चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो ने जिस पुस्तक को 100 बार से अधिक पढ़ी है, वह कैसी है? उसका कंटेंट (विषय वस्तु) क्या है? इसी जिज्ञासा- उत्सुकता ने ‘मेडिटेशंस’ तक पहुंचाया. वाशिंगटन पोस्ट ने इसे ‘बेस्टसेलर’ (सर्वाधिक बिकनेवाली) कहा है. नये सिरे से ग्रेगोरी हे ने इसका अनुवाद किया है. भूमिका भी लिखी है. पुस्तक का शीर्षक देख कर लगा, ध्यान की किसी पुरानी विधि का उल्लेख होगा, जैसे दो हजार वर्षों पहले लुप्त विपश्यना पद्धति की अब चर्चा होती है. लेकिन इस पुस्तक का ध्यान से वैसे ही सरोकार नहीं है, जैसे चाणक्य की चर्चित कृति अर्थशास्त्र का आर्थिक सवालों से.
इसके लेखक मारकूस रोमन साम्राज्य के पांच बड़े शासकों में से एक थे. प्लेटो की ‘फिलासफर किंग’ (दार्शनिक शासक) परंपरा के. उनका पूरा नाम था, मारकूस अरेलियस एंटोनियस आगस्टस. अप्रैल 26,121 से मार्च 17, 180 के बीच वह रहे. मारकूस के शिक्षक, रोमन साम्राज्य के मशहूर विद्वान थे. उन्हें साहित्य, ड्रामा, गणित, ग्रीक, भाषण कला में प्रवीण बनाया. इस तरह मारकूस युवा दिनों से ही मशहूर स्टोइक फिलासफर और नैतिक मूल्यों के प्रहरी इपिकटिटस की मशहूर कृति ‘डिस्कोर्स’ के पसंदीदा पाठक बन गये. जनसभाएं करना और गंभीर सवालों पर सीधे लोगों से बात करना, उनकी आदत हो गयी. सम्राट बनते ही उन्होंने लगातार कानूनी सुधार किये. गुलामों, महिलाओं और छोट-छोटे बच्चों के प्रति उदार कानून बनाये.
इस पुस्तक को उन्होंने लिखा 170 से 180 ई के बीच. ग्रीक में. ‘सेल्फ इंप्रूवमेंट’ (आत्म प्रगति) और ‘गाइडेंस’ (मार्गदर्शन) के लिए. जे.एस.मिल ने कहा, यह मारकूस के जीवन का निचोड़ और वेदवाक्य हैं. पहली बार 1558 में ज्यूरिक में यह छपी. वेटिकन लाइब्रेरी में एक पुरानी प्रति बची है. इसे शुरू से ही सरकारों, शासकों और आमजनों के लिए बहुमूल्य, महान और जरूरी साहित्य माना गया. मारकूस बार-बार कहते हैं, वर्तमान ही सब कुछ है. भविष्य के गर्भ में सब कुछ खत्म हो जाता है. समा जाता है. पर गौर करिए, आपसी द्वेष, ईर्ष्या, दुश्मनी और आशंका में बहुमूल्य जीवन के कितने अंश नष्ट होते हैं… और अंतत: ये सब चीजें भी लुप्त हो जाती हैं.
खत्म हो जाती हैं. दफन हो जाती हैं. वह मानते हैं, निरंतर इच्छाएं, स्थायी निराशा और दुख के मूल्य हैं. इस पुस्तक के लिए अंग्रेजी में कहा गया है, जिसका हिंदी पाठ हो सकता है, ‘उत्कृष्ट लहजे में अनंत प्रवृतियों का वर्णन’. द रिपब्लिक में प्लेटो ने कहा है, देश या मुल्क कभी खुश नहीं हो सकते, जब तक वहां शासक, दार्शनिक नहीं होते या दार्शनिक शासक नहीं बनते. मारकूस ने जीवन जीने की कला के सुझाव दिये हैं. अंतर्दृष्टि दी है. मुसीबत की घड़ी के लिए व्यावहारिक सुझाव दिये हैं. वह प्रैक्टीकल आइडियोलिस्ट दिखते हैं. गांधी की तरह. समाज में खुशी-खुशी साथ रहने, काम करने की तरकीबें बताते हैं. शासकों के लिए. दार्शनिकों के लिए भी. सामान्य लोगों के लिए भी. भारतीय मानक के अनुसार यह राजर्षि परंपरा की पुस्तक है.
राजर्षि यानी राजा जो ऋषि हो. भारत की यह परंपरा पुरानी रही है. राजगोपालाचारी ने एक जगह कहा है, राज चलानेवालों में जिज्ञासा नचिकेता जैसी हो, संकल्प ध्रुव जैसा हो, विश्वास प्रहलाद जैसा हो. बाद में राजा छल, कपट और धूर्तता का प्रतीक बन गया. तब भारत में कहा जाने लगा ‘राजान्ते नरक:’ यानी राजा को अंत में नरक में ही जाना है. इसलिए राजा के यहां का अन्न ग्रहण करना संन्यासी परंपरा में वर्जित था. राजा को आरंभ में उदात्त मानव मूल्यों का प्रतीक माना गया. यह उस दौर की पुस्तक है, जब निकिता खुश्चेव का यह कथन कि राजनेता वे होते हैं, जो उन जगहों पर पुल बनाने का वादा करते हैं, जहां नदियां ही नहीं होतीं, का मानस नहीं था. पश्चिमी मुहावरे में कहें तो मैक्यावेली और गांधी का द्वंद भी नहीं था.
गांधी जिन्होंने साधन और साध्य को एक माना. मैक्यावेली जिसने साध्य ही महत्वपूर्ण माना. इसके लिए छल, कपट और षडयंत्र को पावन साधन माना. वोल्टायर को याद करें, तो जीवित समस्त लोंगो के हम ऋणी हैं और इस धरती से विदा ले गये लोगों से भी. पर हम (मानव जात) सिर्फ और सिर्फ सच के प्रति संपूर्ण ऋणी हैं. यह पुस्तक एक शासक राजा, जो सव के प्रति ऋणी है, की कृति है. पुस्तक के 12 खंड हैं. छोटे-छोटे. पहले खंड में मारकूस ने उन सभी दार्शनिकों, गुरुओं और अग्रजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है, जिनसे उसने कुछ भी सीखा. जाना.
इस पुस्तक को पलटते और पढ़ते, सुकरात का एक कथन याद आता है. सुकरात सड़क पर घूमते किसी से पूछते, तुम्हारा जूता टूट जाये, तो ठीक करने के लिए किसके पास जाते हो? लोग कहते, मोची के पास. सुकरात फिर पूछते, बढ़ई के पास क्यों नहीं? लोग पलट जवाब देते, बढ़ई जूता नहीं जोड़ता-बनाता. फिर वह पूछ बैठते, फर्ज करो कि तुम्हारी मां बीमार है, तो क्या करोगे? लोग कहते, डाक्टर के पास जायेंगे. फिर सुकरात सवालों की झड़ी लगाते. पर जवाब नहीं मिलते. लोग स्तब्ध होकर सुनते. अंत में हंसते हए वह जवाब देते, ‘सज्जनों, जूता सिलवाना हो, तो तुम मोची के पास जाते हो. मकान बनवाना हो, तो मिस्त्री की मदद लेते हो. फर्निचर बनवाना हो, तो बढ़ई को काम सौंपते हो. बीमार पड़ने पर डाक्टरों की सलाह लेते हो. किसी झमेले में फंस जाते हो, तब वकीलों के पास दौड़ते हो. क्यों? ये सब लोग अपने-अपने क्षेत्र के जानकार हैं, इसलिए न? फिर बताओ, राजकाज तुम ‘किसी के भी’ हाथ में कैसे सौंप देते हो?
क्या राजकाज चलाने के लिए जानकारों की जरूरत नहीं होती? ऐरे – गैरों से काम चल सकता है? (साभार : पतझर में टूटी पत्तियां, लेखक – रवींद्र केलेकर). सुकरात की इसी परंपरा में पले बढ़े मानकूस. उन्हें पढ़ते हुए यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद याद आते हैं. यक्ष के इतने कम, संक्षिप्त और दो टूक सवाल और युधिष्ठिर के सधे, छोटे, मार्मिक और आंख खोल देनेवाले जवाब. पुस्तक में मानव जीवन के बारे में मारकूस की टिप्पणी है, जिसका हिंदी तर्जुमा कुछ इस तरह होगा.
मानव जीवन
अवधि : क्षणिक. प्रकृति : परिवर्तनीय. दृष्टि : धुंधली. शरीर की स्थिति : निरंतर क्षय. आत्मा : लगातार भ्रमण. भाग्य : अनजाना. अमरता : अनिश्चित. निचोड़ : शरीर और इसके हिस्से नदी हैं. आत्मा, सपना और धुंध. जीवन : युद्ध और घर से दूर की निरंतर यात्रा. अमरकृति : गुमनामी. तब हमें कहां से रोशनी और पथप्रदर्शक मिलेगा : सिर्फ दर्शन से.
इसके आगे वह कहते हैं कि कोई भी काम अधूरे मन से करना, आधे-अधूरे करना, अनायास करना, यह जीवन में नहीं होना चाहिए. पुस्तक के अंत में वह जो कहते हैं, उसका आशय है, जीवन एक ड्रामा है. तीन हिस्सों में बंटा. पहला, आयु. यह उसके हाथ है, जिसने हमें जीवन दिया. वही हमारी विदाई या क्षय (मृत्यु) तय करता है. आना (जन्म) और जाना (मृत्यु) दोनों मनुष्य के हाथ नहीं हैं, पर जो है, वह है, शालीनता के साथ स्टेज (जीवन) से विदा लेना.
एक जगह वे कहते हैं, जीवन और मृत्यु, सफलता और विफलता, दर्द और आनंद, दौलत-वैभव और गरीबी, ये अच्छे-बुरे सबके पास समान ढंग से आते हैं, और ये न बहुत अच्छे हैं, न शर्मनाक. पर वह बताते हैं. अपने अंदर के आवाज के प्रति हम सजग हों. तन्मयता से उसकी पूजा करें. अंदर की आवाज और आंतरिक आग (जिज्ञासु प्रवृति) को बचायें. बाहर के थपेड़ों से वह गर्द और मिट्टी में न मिले. जीवन उद्देश्यविहीन न बन जाये. प्रकृति के प्रति असंतोष न भर जाये. वह ईश्वरीय, मानवीय बना रहे.
एक जगह वह बताते हैं कि मनुष्य की आत्मा का कब-कब क्षय होता है.
. जब हम हर चीज से क्षुब्ध, असंतुष्ट और नाराज रहते हैं. यह मनुष्य की प्रकृति का असल रूप नहीं है.
. जब हम किसी इंसान के पीछे पड़ जाते हैं. पीठ पीछे बुराई करते हैं. उसको नुकसान पहुंचाना चाहते है.
. जब हम बनावटी बात या झूठी बातें कहते हैं.
. जब सुख या दुख में हम डूब जाते हैं.
. जब हमारा कोई भी काम निरूद्देश्य होता है. जीवन का मामूली काम भी सोद्देश्य होना चाहिए. प्रकृति के नियमों का अनुपालन और जीवन का मकसद साफ होना चाहिए.
पूरी पुस्तक में जीवन के गूढ़ रहस्यों के व्यवहारिक सुझाव हैं. क्यों मनुष्य अच्छा बने? मूल्यपरक हो? गुणवान हो? इसकी बात वह पग-पग पर करते हैं. बार-बार अंदर झांकने की सलाह देते हैं. एक शासक अगर इस पुस्तक को बार-बार पढ़ता है, जैसे चीनी प्रधानमंत्री, तो निश्चित रूप से वह एक बेहतर और अनूठा इंसान बनता है. ऐसा इंसान, बेहतर शासक भी होता है. हां, यह जरूर है कि आज के भारत में लोग ऐसी चीजों की खिल्ली उड़ाते है. आज मुल्क में चरित्र,तप, त्याग, तपस्या, निष्ठा और विद्वता की कीमत नहीं रह गयी है. वह इस कारण नहीं कि जमाना बदल गया है, बल्कि हम पतित हो गये हैं. गिर गये हैं. जीवित रहना और जीना, अलग-अलग चीजें हैं. हमारे जीने का मकसद नहीं है. शायद इसलिए भी कि हम भटक गये दौर के लोग हैं. महाभारत की एक पंक्ति है, ‘महाजनो ऐन गत: स: पंथा’ दुनिया के बड़े लोग जिस रास्ते गये, उनसे शायद हम कुछ सीख सकते हैं. इस अर्थ में ‘मेडिटेशंस’ पुस्तक जीवन के पाठ्यक्रम का हिस्सा है.