-हरिवंश-
यह पुस्तक, डीसेंट इनटू केऑस (अराजकता में प्रवेश) पढ़ते हमीद दलवई की याद आयी. हमीद दलवई, प्रगतिशील विचारक और चिंतक के रूप में जाने गये. 80 के दशक में. उन्होंने मुसलिम सत्य शोधक मंडल बनाया. महाराष्ट्र, खास कर मुंबई में वह एक निर्भीक युवा चिंतक के रूप में उभरे. अपने मुसलिम समाज, समुदाय की तटस्थ आत्मआलोचना उन्होंने की. उन दिनों समाज, राजनीति और देश को आगे ले जाने वाले मानते थे कि हर कौम, जाति, समुदाय एवं क्षेत्र से ऐसे तेजस्वी लोग निकलें, जो खुद अपने समाज की रूढ़िवादी परंपराओं, अंधविश्वासों और पतनोन्मुख जीवन पद्धति के बारे में खुल कर बोलें.
इसके पीछे यह सामाजिक दर्शन था कि इस तरह से प्रगतिशीलों की आधुनिक जमात तैयार होगी, जो अपने-अपने धर्म, क्षेत्र, जाति, समाज, राज्य में अंदरूनी सफाई और रेनेसां (पुनर्जागरण) के केंद्र बनेंगी. अंतत: इस प्रक्रिया से एक नया भारत बनेगा, जो न किसी धर्म का होगा. न जाति का. न क्षेत्र का.
केऑस् पुस्तक के लेखक हैं, अहमद रशीद. पाकिस्तान के जानेमाने पत्रकार. पूरी दुनिया में उनकी शोहरत है. सेंट्रल एशिया के वह एक्सपर्ट (विशेषज्ञ) माने जाते हैं. उनकी तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं. द रिसजस ऑफ सेंट्रल एशिया (इस्लाम एंड नेशनलिजम), तालिबान (मिलिटेंट इस्लाम, आयल एंड फंडामेंटलिज्म इन सेंट्रल एशिया) और जिहाद (द राइज ऑफ मिलिटेंट इस्लाम इन सेंट्रल एशिया). दुनिया में सर्वाधिक बिकनेवाली किताबों में से है, तालिबान पुस्तक . तालिबानियों के बारे में प्रमाणिक ब्यौरे इसी पुस्तक में हैं. केऑस पुस्तक (कीमत 495, प्रकाशक, एल.एन. लेन, पेंग्विन से जुड़ी) के कवर पर अंगरेजी में चार पंक्तियां लिखी हैं.
हाउ द वार एगेंस्ट इस्लामिक एक्सट्रिमिजम इज बीइंग लॉस्ट इन पाकिस्तान, अफगानिस्तान एंड सेंट्रल एशिया. इसका हिंदी आशय है, इस्लामिक आंतकवाद के खिलाफ कैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया में युद्ध हारा जा रहा है. प्रस्तावना में ही पुस्तक का मर्म स्पष्ट है. पुस्तक के आरंभ में लार्ड कर्जन का एक बयान है. 1908 में उन्होंने कहा था, अगर सेंट्रल एशिया का समाज बचा रहता है और आज से 50 या 100 साल बाद मिलता है, तब भी अफगानिस्तान उतना ही बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल होगा, जितना आज है. कितनी दूरदृष्टिहैं, इस कथन में. पुस्तक में चार भाग हैं. 18 अध्याय.
शुरू में ही अहमद रशीद की चिंता स्पष्ट है. वह मानते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने का अवसर अमरीका ने अपनी भूलों से खो दिया है. उनकी नजर में अफगानिस्तान को अपनी रक्षा खुद से करनी है. पाकिस्तान और सेंट्रल एशिया के डिक्टेटर शासकों को अपना दमनात्मक रवैया बदलना है. अलग-थलग पड़ गये गरीब नागरिकों को महत्व देना है. ईरान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की मुख्यधारा से जोड़ना है. पश्चिम और लोकतांत्रिक ढंग से सोचने-समझनेवालों को, एक दूसरे की मदद करनी है, ताकि इस्लामिक अतिवाद को रोका जा सके.
वह मानते हैं कि पश्चिम समेत दुनिया के अन्य देशों की जिम्मेवारी है कि वे अफगानिस्तान को इस हालात से निकालें. साथ ही सेंट्रल एशिया के पांच देशों, क़जाकिस्तान, क्रेजिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान को भी संभालें. रूस के टूटने के बाद इन देशों में 1991 से डिक्टेटर शासन कर रहे हैं. लोगों को राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है. भयावह गरीबी है. आर्थिक विषमता की खाई बहुत बड़ी है. साथ में इन देशों में अंडरग्राउंड इसलामिक अतिवाद है. आग और बारूद साथ-साथ. लेखक मानते हैं कि इन देशों में तेल और गैस के भंडार हैं.
पर इन देशों के हालात दुनिया के लिए बड़ी चुनौती खड़ा करनेवाले हैं. लेखक के अनुसार 2001 में अफगानिस्तान में अमरीका को तुरंत कामयाबी मिली. तब वहां के लोगों में एक नयी उम्मीद जगी. लोगों को लगा कि अफगानिस्तान एक नयी सुबह के द्वार पर है. तालिबानियों को परास्त करने के बाद अमरीका के पास मौका था कि वह पश्चिम और मुस्लिम देशों को दिखा सकता था कि तालिबानियों के आतंक और अत्याचार से अफगानिस्तान को मुक्त कराने की उसने पहल की. इसके बाद अमरीका अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में तत्परता से लगता, तो अलग मेसेज होता. तब अफगानी, पश्चिमी देशों के सैनिक हस्तक्षेप के खिलाफ नहीं थे.
लेखक का कहना है कि पिछले 25 वषा से लगातार चल रहे संघर्षों और युद्धों से त्रस्त अफगानी जनता ने स्थायित्व और विकास का सपना देखा. तालिबानी अफीम की खेती कराते थे, ताकि दुनिया में ड्रग्स बेच कर वे पैसे कमा सकें. लेखक के अनुसार उस वक्त अगर अमरीका के सौजन्य से पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया के देशों में पुनर्निर्माण का अभियान बड़े पैमाने पर चला होता, तो आज हालात भिन्न होते. वह मानते हैं कि दुनिया के लिए यह इलाका और देश खतरे हैं. वह कहते हैं, पाकिस्तान में बड़ी चीजें दांव पर लगीं हैं.
आणविक हथियारों से लैस पाकिस्तान की निरंकुश सेना, इसलामिक आतंकवाद को बढ़ावा देता पाकिस्तानी इंटेलिजेंस (आइएसआइ) और यह सब 9/11 के बाद भी सीआइए के देखरेख में पाकिस्तान कर रहा है. 2007 में पाकिस्तान में 56 सुसाइड बम्बार्डस् की घटनाएं हुईं, जिनमें 640 लोग मारे गये. ठीक इसके एक साल पहले ऐसी छह घटनाएं ही हुईं. रशीद बताते है कि 9/11 के बाद, पाकिस्तान को 10 बिलियन डालर (50 हजार करोड़ रूपये) की मदद अमरीका ने दी, जिसकी 90 फीसदी राशि हथियारबद्ध होने में खर्च हुई. जबकि इस राशि का उपयोग पाकिस्तान के विकास पर होना चाहिए था. अगर यह हुआ होता, तो रशीद के अनुसार, अमरीका के प्रति पाकिस्तान में इतनी नफरत नहीं हुई होती. वह कहते हैं, पाकिस्तान (आबादी लगभग 18 करोड़) दुनिया का पांचवा बड़ा देश है, पर यहां का समाज गहरे आपसी संघर्ष में डूबा है. रशीद मानते हैं कि कट्टरपंथियों के अलावा पाकिस्तान के बलूचिस्तान और सिंध प्रांत में धर्मनिरपेक्ष उग्र आंदोलन है, जो देश को बांट या तोड़ सकते हैं, उसी तरह जैसे 1971 में भाषा और पहचान के आधार पर बांग्लादेश बना.
इराक पर अमरीका की चढ़ाई सबसे बड़ी और गहरी भूल है. अमरीका यह भूल गया कि वर्ष 2003 में वर्ल्ड बैंक के अनुसार दुनिया में कुल 17 फेल्ड स्टेट (टूट चुके या विफल राष्ट्र) थे, जो अंतर्राष्ट्रीय उग्रवाद के पोषक और जन्मदाता थे. पर अब वर्ल्ड बैंक के अनुसार दुनिया में 26 फेल्ड स्टेट हैं. लेखक के अनुसार अमरीका यह समझने में चूक गया कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सेंट्रल एशिया के ये देश अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के अड्डे होंगे. यहां परमाणविक हथियारों के पसरने के आसार हैं. और यहां से फैलने वाली ड्रग की महामारी से दुनिया तबाह हो सकती है.
लेखक के अनुसार अपने अहंकार और अज्ञानता में बुश प्रशासन, यह सब नहीं समझ सका. अफगानिस्तान या इराक या मुस्लिम देशों के इतिहास, संस्कृति, समाज या परंपराओं को समझें बगैर अमरीका ने चढ़ाई कर दी. 2000 में लेखक की तालिबान पुस्तक आयी थी (9/11/2001 के पहले). उस पुस्तक में रशीद ने अमरीका की आलोचना की थी, कि उसने अफगानिस्तान जैसे देशों को लंबे समय से अपने भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है. अमरीका में बम विस्फोट के पहले ही रशीद अफगानिस्तान में अमरीका के हस्तक्षेप की बात कर चुके थे.
लेखक के इस निष्कर्ष को तब इस्लामिक कट्टपंथियों, उदार वामपंथियों और पाकिस्तानी सेना ने कटु आलोचना की. रशीद का कहना है कि अफगान के तालिबानीकरण के दौर के वह गवाह हैं. उन दिनों ही रशीद अलकायदा के प्रसार – फैलाव और खतरे को देख, पहचान और भांप रहे थे. वह कहते हैं, खुद मेरा देश पाकिस्तान यह सब जानता था. मैंने देखा था, अफगानिस्तान कैसे अलकायदा का इंक्यूबेटर (अंडे सेने की मशीन) बन गया था. तालिबान के पीछे पाकिस्तान की सेना थी. उसी ने हजारों पाकिस्तानी युवाओं को तालिबान के लिए लड़ने-मरने के लिए प्रेरित किया, ठीक उसी तरह जैसे कश्मीर में उग्रवाद के लिए हजारों पाकिस्तानी युवाओं को पाकिस्तानी सेना ने उकसाया और जिहाद के लिए बढ़ाया. भारत में जो उग्रवाद का असली चेहरा देखना चाहते हैं, मूल तथ्य समझना चाहते हैं, उन्हें रशीद के ये तथ्य याद रखने चाहिए.
लेखक का कहना है कि तब मैंने चेतावनी दी कि न्यूक्लीयर हथियारों से सुसज्जित सैनिक तानाशाही और जिहादवाद का नारा वह माहौल पैदा करेगा, जो दुनिया के लिए चिंताजनक और खतरनाक होगा. लेखक कहता है कि आज यही हो रहा है. लेखक मानता है कि मार्शल प्लान की तरह ही पश्चिम के नेतृत्व में अगर दशकों यहां सुधार के लगातार प्रयास नहीं हुए, तो दुनिया संकट में होगी. पर यह सब काम बड़ी आर्थिक सहायता, आंतरिक आर्थिक सुधार, लोकतांत्रिकरण और शिक्षा में प्रसार से ही संभव है.
रशीद कहते हैं कि यह सब करने के बजाय, अमरीका अंतर्राष्ट्रीय सत्ता का दंभ दिखाने में लग गया और मूल उद्देश्य से भटक गया. अमरीका और बुश की भयावह भूलों के बारे में रशीद ने विस्तार से लिखा है. यह सामान्य नहीं, विशेष पुस्तक है. भारत समेत एशिया और संसार का भविष्य इसमें लिखा है. आतंकवाद पर भारत में खुल कर बहस में कई पार्टियां या यूपीए जैसे समूह संकोच करते हैं, मुसलमानों के वोट बैंक के कारण. दूसरा खेमा है, एनडीए का, जिसमें खासतौर से भाजपा मुसलमानों को ही केंद्र मानती है. इन दोनों समूहों के लिए पाकिस्तानी पत्रकार और दुनिया में चर्चित रशीद की यह पुस्तक आंख खोलने वाली है. सच यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया के पांच देश ग्लोबल टेररिज्म के जन्मदाता, पालनहार और पोषक हैं. भारत को इससे कैसे बचायें. यह आज सबसे बड़ी चुनौती है. रशीद की पुस्तक से यह भी साफ है कि मुसलमानों का बड़ा तबका भी इससे आतंकित, परेशान और चिंतित है.