-हरिवंश-
कुछ माह हुए, यह पुस्तक बाजार में आयी. नाम है, प्लाइट ऑफ ऑनेस्टी (द अनटोल्ड ब्यूरोक्रेसी). लेखक हैं, डॉ जी सुंदरम. रिटायर्ड आइएएस. भारत सरकार के पूर्व सचिव. पुस्तक को प्रकाशित किया है, मानस पब्लिकेशंस ने. कीमत है, 495 रुपये. पुस्तक लगभग 424 पेजों की है. लेखक डॉ जी सुंदरम भारत सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं. विदेशों में भी काम किया है. पुस्तक के शीर्षक का हिंदी आशय है – ईमानदारी की दुर्दशा (अनकही नौकरशाही).
पिछले कुछेक वर्षों में रिटायर होकर अपने संस्मरण लिखनेवाले अफसरों की तादाद बढ़ी है. पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम ने रिटायर होते ही बाबूराज और नेतांचल पुस्तक लिखी. सीबीआइ के एनके सिंह ने खरा सत्य लिखा. पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले ने भी अनेक पुस्तकें लिखीं. संस्मरण या आत्मकथात्मक पुस्तक. इनकी ही पुस्तक है, अनफिनिश्ड इनिंग्स. (असमाप्त पारी). पूर्व कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव रहे, बीजी देशमुख ने भी पुस्तकें लिखीं. इस तरह यह सूची लंबी है.
इनमें से कई ऐसे हैं, जिनकी पुस्तकें पढ़ कर मन में सवाल उठते हैं. जब जरूरत होती है, तो ये स्टैंड नहीं ले पाते? बाद में इन प्रसंगों को सुनाते हुए, अपने को नैतिक, मूल्यपरक और अलग दिखाने की कोशिश करते हैं? क्या सत्ता या पद, मनुष्य का साहस-आत्मस्वाभिमान खत्म कर देते हैं? एक पूर्व कैबिनेट सचिव की पुस्तक पढ़ते हुए लगा कि पद पर रहते हुए वह असलियत या ग्राउंड रियलिटी (जमीनी हकीकत) से कितनी दूर थे? ऐसे लोग भारत का भविष्य तय करते हैं? अहं, बड़बोलापन, क्षुद्रता सबकुछ इनमें दिखता है, जिन्हें हम भाग्यविधाता मान बैठे हैं. पर रिटायर नौकरशाहों के लेखक बनने की एक भिन्न सूची भी है. इस सूची में ऐसे ईमानदार और बेहतर अफसर भी हैं, जो आत्ममूल्यांकन की दृष्टि से लिखते हैं.
समाज को हकीकत बताने का जोखिम लेते हैं. खासतौर से मानस पब्लिकेशंस ने एक उद्देश्य के तहत पुस्तकों का प्रकाशन किया है. इस प्रकाशन की पुस्तकें देख कर लगता है कि अनेक पूर्व आइएएस अधिकारियों और बड़े पदों पर रहे लोगों से लिखवाने के पीछे, देश को जागरूक बनाना मकसद है. सेना से लेकर वरिष्ठ नौकरशाहों और पत्रकारों के पुस्तक मानस पब्लिकेशंस ने छापे हैं. इनमें से अनेक चर्चित पुस्तकें हैं.
डॉ जी सुंदरम की पुस्तक भी इसी उद्देश्य के तहत लिखी गयी है. जो देश, समाज या सार्वजनिक जीवन में रुचि रखते हैं, इनके लिए ऐसी आत्मकथात्मक पुस्तकें या संस्मरणात्मक किताबें, उपयोगी और ज्ञानवर्धक होती हैं. लगभग चार दशक के अपने अनुभव डॉ सुंदरम ने इसमें समेटने की कोशिश की है. पुस्तक के अंत में एक जगह लिखते हैं, पोस्टस्क्रिप्ट (पुनश्च प्रसंग) में, कि आजादी के बाद के बड़े नेताओं गांधी, नेहरू, राजाजी, कामराज, अन्नादुरई वगैरह को छोड़ दें.
इंदिराजी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, वाजपेयी, आडवाणी, ईएमएस नंबूदरीपाद, एके गोपालन, इंद्रजीत गुप्ता वगैरह नेताओं जैसे आदर्श, विचार और मूल्य रखनेवाले नेता भी अब दिखाई नहीं देते.
पुस्तक का शीर्षक खुद बोलता है. आज देश में ईमानदारी, निष्ठा और मूल्य दयनीय हाल में हैं. हास्य और मजाक के विषय. शायद इतिहास में ईमानदारी की यह दुर्गति न हुई हो. डॉ सुंदरम की पुस्तक भी ईमानदार, मूल्यवान और निष्ठावान लोगों की दुर्गति की कहानी कहती है. बड़े पदों पर बैठे लोग, लोक की नजर में बड़े नजर आते हैं. अपने शानो- शौकत, सत्ता प्रदर्शन और वैभव के कारण. पर इनमें से बहुतों की आत्मा गिरवी है. बिक्री या स्वार्थों से बंधी. एक सामान्य व्यक्ति की निष्ठा, साफगोई और स्पष्टवादिता के मुकाबले, बड़े पदों पर बैठे लोगों के अंदरूनी सच इन्हें अत्यंत बौना व स्वार्थीं सिद्ध करते हैं.
डॉ सुंदरम ने लिखा है कि कैसे एक कैबिनेट सेक्रेटरी ने अपनी बेटी की मौत के एक माह बाद ड्रिंक पार्टी दिया. पोस्टिग में कैसे लॉबिंग और हेराफेरी होती है. कैसे सीआर (कनफिडेंशियल रिपोर्ट) लिखे जाते हैं? जो सीआर, अफसरों का और देश का भविष्य तय करते हैं, इसे लिखने के प्रति संबंधित अफसर कितने सजग और तत्पर होते हैं? यह अगंभीरता खुद भारत सरकार के एक पूर्व सचिव बता रहे हैं. एक जगह वह टिप्पणी करते हैं कि सरकार के कामकाज और नौकरशाही की गुटबाजी ने कैसे सरकारी कार्यप्रणाली और
कार्यसंस्कृति को बिगाड़ दिया है. एक दशक पूर्व लगभग पचास तेजस्वी आइएएस अफसरों ने सरकार छोड़ कर निजी क्षेत्रों में काम करना चुना. हालांकि निजी क्षेत्रों के काम से भी वे संतुष्ट नहीं हैं. पर सरकार इन्हें बेहतर माहौल नहीं उपलब्ध करा सकी. खुद नौकरशाही के बारे में डॉ सुंदरम ने अच्छा फ्रेज इस्तेमाल किया है, सेकेंड रग ऑफ पॉलिटिशियंस (राजनीतिज्ञों का दूसरा डंडा). किताब के फ्लैप पर उल्लेख है कि देश की जनता नहीं जानती कि ‘सिविल सर्विस पॉलिटिशियंस’ (भारतीय सेवा के राजनीतिज्ञ) कैसे होते हैं? डॉ सुंदरम शायद यह मानते हैं कि जनता को यह सब जानने का अधिकार है. हालांकि जनता, सरकारों के अंदर के षडयंत्रों, साजिश या चालबाजी नहीं जानती.
न उसे इनके तौर-तरीके मालूम होते हैं. इसलिए लोग आमतौर से राजनीतिज्ञों को ही गाली देते हैं. पर एक वरिष्ठ नौकरशाह के अनुसार ये नौकरशाह राजनीतिज्ञ, प्रोफेशनल पॉलिटिशियन से ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि ये इतर लाभों के लिए अपनी प्रतिभा और बुद्धि का सौदा करते हैं. डॉ सुंदरम मानते हैं कि अब आइएएस अफसरों में जीवन के सर्वश्रेष्ठ मूल्य या शासन के बेहतरीन गुण मसलन ईमानदारी, स्पष्टवादिता या साफगोई नहीं है.
डॉ सुंदरम ने वाणिज्य, रक्षा, खाद्य आपूर्ति, नगर विकास, पर्यावरण, पर्यटन जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों में जिम्मेदार पदों पर काम किया है. विदेशों में पदस्थापित रहे हैं. सार्वजनिक उपक्रमों में भी बड़े ओहदों पर रहे. अपने व्यापक अनुभव संसार को उन्होंने पुस्तक का आधार बनाया है. बोफोर्स या तहलका या भ्रष्टाचार और नौकरशाही पर पुस्तक में अलग अध्याय हैं. इस अध्याय के आरंभ में ही डॉ सुंदरम ने एक कोट दिया है, ऐसा नहीं है कि बिना वजह भारत दुनिया के सबसे भ्रष्टतम देशों में से एक है, बल्कि यह देश ही सामान्य लोगों के लिए नहीं है. विदेशों का अपना अनुभव वह बताते हैं.
कैसे आइएएस और आइएफएस के बीच झगड़ा रहता है. ठीक इसी तरह जैसे भारत में आइएएस बनाम आइपीएस विवाद चलता है. भारत के राजदूत कैसे काम करते हैं? कैसे फिजूलखर्ची होती है और पदों का दुरुपयोग होता है. सरकारी सेवा में अच्छे ऑफिसर हों, तो वे कैसे पूरे कैडर को प्रेरित करते हैं, यह जिक्र भी है. मसलन पूर्व कैबिनेट सचिव कृष्णास्वामी राव साहब ने कैसे मर्यादा बनायी. यह भी प्रसंग पुस्तक में है. जबकि टीएन शेषन जैसे लोग योग्य, सक्षम होते हुए भी ताकत, अहं और पद के प्रदर्शन में लगे रहे. टीएन शेषन से जुड़े अनेक प्रसंग पुस्तक में हैं, जो बड़े पदों पर रहे लोगों के असली चरित्र और चेहरा उजागर करते हैं.
नगर विकास मंत्रालय में लेखक महत्वपूर्ण पद पर थे. वह अपने अनुभव बताते हैं कि कैसे बड़े पदों पर रहे लोग या महिलाएं सरकारी आवासों को पद जाने के बाद खाली नहीं करते. गिड़गिड़ाते घूमते हैं या प्रधानमंत्री से पैरवी कराते हैं. देश की दो जानी-मानी महिलाएं कैसे घर के लिए आकर रोने लगती थीं, यह सब पढ़ते हुए पावर लस्ट (सत्ता लालसा) समझ में आता है.
मौजूदा भारतीय प्रशासन के अंदरूनी चेहरे को जानने, समझने और इसके खिलाफ उठ खड़े होने में यह पुस्तक मदद करती है. बड़े लोगों में राजगोपालाचारी ऐसे हुए, जिन्होंने लोगों के कहने के बाद भी अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. लेखक आरएल स्टीवेंसन का मानना था कि आत्मकथाएं या जीवनी साहित्य के अच्छे चेहरे नहीं हैं. फिर भी जो भारत को बदलना चाहते हैं या जानना चाहते हैं, इनके लिए इस तरह का साहित्य या यह किताब हकीकत के ऊपर से नकाब हटाने में मदद करती है.