केजरीवाल के बवाल

किसी चुनाव में बड़ी जीत मिलने का क्या अर्थ है? क्या यह कि विजेता पार्टी के मुखिया को मतदाताओं ने सब कुछ मनचाहा करने-बोलने की हरी झंडी दे दी है? किसी परिपक्व लोकतंत्र में शायद ही कोई व्यक्ति बड़ी चुनावी जीत का यह अर्थ निकालेगा. बावजूद इसके, भारत में किसी पार्टी की बड़ी जीत के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2016 6:14 AM
किसी चुनाव में बड़ी जीत मिलने का क्या अर्थ है? क्या यह कि विजेता पार्टी के मुखिया को मतदाताओं ने सब कुछ मनचाहा करने-बोलने की हरी झंडी दे दी है? किसी परिपक्व लोकतंत्र में शायद ही कोई व्यक्ति बड़ी चुनावी जीत का यह अर्थ निकालेगा. बावजूद इसके, भारत में किसी पार्टी की बड़ी जीत के बाद उसके मुखिया द्वारा स्वयं को सबके अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित का एकमात्र निर्णायक मान लेने की आशंका बनी रहती है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव के 10 फरवरी, 2015 को आये नतीजे में 70 में से 67 सीटें जीतनेवाली आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी से जुड़े कुछ हालिया वाकये से यह आशंका सच होती प्रतीत हो रही है. आप के आलोचक पहले भी ध्यान दिलाते रहे हैं कि केजरीवाल किसी को भी कुछ भी कह सकते हैं और इसे उचित ठहराने के लिए सदैव पीड़ित तथा साजिश का शिकार दिखनेवाली भाव-मुद्रा बना सकते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल अपने आलोचकों की इस बात को फिर से सच करते जान पड़ रहे हैं.
मसलन, दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग को चिट्ठी लिख कर उन्होंने व्यंग्य किया है कि आप चाहे कितने भी ‘गैर-कानूनी, जनविरोधी और असंवैधानिक काम’ कर लें, पीएम मोदी आपको कभी उपराष्ट्रपति नहीं बनायेंगे. इसके जरिये केजरीवाल जताना-बताना चाहते हैं कि एलजी केंद्र के इशारे पर उनकी पार्टी के खिलाफ साजिश रचते रहे हैं और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया या मंत्री गोपाल राय को भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) के मार्फत मिला समन भी ऐसी ही साजिशों की अगली कड़ी है.
लेकिन, खुद को तथाकथित केंद्र प्रायोजित साजिश और उसमें एसीबी तथा एलजी की मिलीभगत का शिकार बताने के क्रम में केजरीवाल एक बुनियादी बात भूल जाते हैं. बुनियाद बात यह कि एलजी यदि एसीबी के जरिये समन जारी करवा रहे हैं, तो इसलिए कि ऐसा करने का उन्हें अधिकार है. लोकतंत्र में कोई संस्था अपने अधिकार का इस्तेमाल करे, तो उसे साजिश नहीं, कर्तव्यों का निर्वहन कहा जाता है. एलजी ने केजरीवाल के व्यंग्य का ठीक ही जवाब दिया है कि ‘उनके उत्पीड़न के भ्रम पर मुझे खेद है.’
गौर करें तो आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के गर्भ से जन्मी थी, जिसका घोषित उद्देश्य था राजनीति के कीचड़ को साफ करना और जनता को चतुर्दिक पारदर्शिता के साथ सुशासन देना.
सूचना के अधिकार आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और पैरोकार रहे केजरीवाल भ्रष्टाचार पर प्रहार के लिए पारदर्शिता को सबसे बड़ा हथियार बताते रहे हैं. इस लिहाज से तो, अगर एसीबी उनके मंत्रियों के नाम समन जारी कर रहा था, तो एलजी या पीएम को कोसने की जगह उन्हें अपने गिरेबां में झांकना चाहिए था कि कहीं दिल्ली के प्रशासन में पारदर्शिता घट तो नहीं रही. हालांकि पारदर्शिता को धता बताने का काम तो केजरीवाल सरकार ने अपने शुरुआती दिनों में ही कर दिया था.
यह अकारण नहीं है कि सरकार बनते ही आनन-फानन में अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना देने के मामले में वे ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ के विवाद में घिरे हैं. हमेशा राजनीतिक शुचिता और भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की याद दिलानेवाले केजरीवाल से यह बात छिपी नहीं है कि चुनाव जीत कर सत्ता में पहुंचनेवाली ज्यादातर पार्टियां अपने लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए तरह-तरह के जुगत भिड़ाती रही हैं और ऐसी जुगत भिड़ाने में आम आदमी पार्टी दूसरी पार्टियों से पीछे नहीं, बल्कि कई कदम आगे है.
संविधान में संशोधन कर बना नियम साफ बताता है कि सरकार बनानेवाली पार्टी एक निश्चित संख्या में ही अपने विजयी उम्मीदवारों को मंत्री पद दे सकती है या संसदीय सचिव बना सकती है. नियम के हिसाब से केजरीवाल सरकार अधिकतम सात मंत्री और एक संसदीय सचिव बना सकती थी, लेकिन उसने बनाये 21 संसदीय सचिव.
जब चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान लेकर कारण पूछा, तो विधायी प्रक्रिया में बदलाव की युक्ति अपनायी गयी. संसदीय सचिवों की नियुक्ति को वैध साबित करने के लिए बहुमत के जोर से विधानसभा में बैकडेट में एक कानून बनाया गया. अब चूंकि राष्ट्रपति ने इस कानून पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है, तो उन्हें एकसाथ 21 विधायकों की सदस्यता खोने का भय सता रहा है. जाहिर है, यह भय भी केजरीवाल से कहलवा रहा है कि एलजी और केंद्र मिल कर उनके खिलाफ साजिश कर रहे हैं.
करीब 16 महीने के कार्यकाल में मंत्रियों-विधायकों की फर्जी डिग्री, रिश्वत मांगने व आपराधिक मामलों में फंसने के साथ केजरीवाल सरकार की छवि पर बार-बार सवाल उठे और हर सवाल के साथ नये बवाल भी सामने आते रहे हैं.
कभी नियुक्तियों पर विवाद, कभी एलजी और केंद्र को चुनौती तो कभी प्रधान सचिव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए दिल्ली सचिवालय में सीबीआइ की छापेमारी के साथ टकराव का चरम पर पहुंचना. कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे बवाल और ओछी बयानबाजियों के साथ केजरीवाल किसी भी तरह से राजनीतिक शुचिता का परिचय देते नहीं दिखते. उम्मीद करनी चाहिए कि अपने कार्यकाल के शेष 44 महीनों में वे दिल्ली के मतदाताओं के भारी जनादेश का सही अर्थ समझेंगे और जनाकांक्षाओं को पूरा करने पर अपना ध्यान लगायेंगे.

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