एक युवती की जीवन यात्रा!

-हरिवंश- नयी आनेवाली पुस्तकों की सूची में नाम देखा. सोशलिज्म इज ग्रेट (वर्कर्स मेमोआयर ऑफ न्यू चाइना). लिखा है, लिजिया जांग ने. छापा है, नयी दिल्ली के फोर्थ स्टेट ने. कीमत है 450 रुपये. चीन लुभाता है. अपने रहस्य के कारण. बौद्ध धर्म के कारण. लाओत्से, कन्फ्यूशियस और ताओ भी आकर्षण हैं. ह्वेनसांग और फाह्यान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2016 11:00 AM

-हरिवंश-

नयी आनेवाली पुस्तकों की सूची में नाम देखा. सोशलिज्म इज ग्रेट (वर्कर्स मेमोआयर ऑफ न्यू चाइना). लिखा है, लिजिया जांग ने. छापा है, नयी दिल्ली के फोर्थ स्टेट ने. कीमत है 450 रुपये. चीन लुभाता है. अपने रहस्य के कारण. बौद्ध धर्म के कारण. लाओत्से, कन्फ्यूशियस और ताओ भी आकर्षण हैं. ह्वेनसांग और फाह्यान के विवरण के कारण भी. दुनिया को चमत्कृत करनेवाले अपने विकास-बदलाव के कारण. 1978 में पढ़ी डा.धर्मवीर भारती की चीन यात्रा वृतांत के कारण.

पर कहीं-न-कहीं अंदर बैठे आक्रोश और असमर्थता के कारण भी. 62 की पराजय के विवरण. नेहरू की मौत. चौथे संसद की शपथ कि भारत का जमीन वापसी के बिना चीन से रिश्ता-बात नहीं. पर स्वाभिमान भूल चीन की शरण में जा बैठने से मन में अटके मसोस के कारण. एक भारतीय के कारण मानस में बैठे अपमानबोध के कारण भी. और अब चीन के नये रूप, दुनिया की नयी महाशक्ति (जिसके मन में भारत के प्रति नफरत है) के रूप में उदय होने के भी कारण. 2002 में चीन यात्रा में अविश्वसनीय बदलाव के दर्शक होने के भी कारण. इस कारण चीन पर प्रकाशित पुस्तकें खींचतीं हैं. चीन पर अनगिनत पुस्तकें जमा की हैं.

लिजिया जांग की पुस्तक इसी क्रम में ली. पढ़ी. लिजिया, चीन के नानजिंग में पैदा हुईं. वहीं पलीं. बढीं. अब बीजिंग में रहतीं हैं. वाशिंगटन पोस्ट, द इंडिपंडेंट, न्यूजवीक, न्यू जापान टाइम्स वगैरह में लिखतीं हैं. बीबीसी रेडियो की रेगुलर स्पीकर हैं. लिजिया उत्तरी अमेरिका पर मार करने के लिए मिसाइल बनानेवाली फैक्टरी में थीं. 43 वर्षीया मां ने अपनी नौकरी उत्तराधिकार में लिजिया को दी. बेरोजगारी दूर करने के लिए, चीन में उत्तराधिकारी को नौकरी देने की नीति थी. लिजिया कहतीं हैं, उस कारखाने में महिलाओं के ‘मासिक’ चेक करने के लिए ‘पीरियड पुलिस’ थी ताकि वे गर्भवती न हों.

लिजिया यह नौकरी नहीं चाहती थीं. मां ने तीन बच्चों में से लिजिया को ही यह नौकरी सौंपी. अकेले में यह बताते हुए कि वह कितना बड़ा फेवर कर रही हैं. लिजिया उस सरकारी कारखाने में नौकरी के लिए तैयार नहीं थीं. दरअसल, यह दो ‘दुनियाओं’ का संघर्ष था. एक थी, माओ और कम्युनिस्टों की पुरानी दुनिया. चीन के पुराने संस्कार-मूल्य. दूसरी ओर थी, बंद समाज से मुक्ति की बेचैनी. लिजिया मुक्ति चाहती थीं. पर मुक्ति का रास्ता उसने खोजा, नौकरी करते हुए अंगरेजी पढ़ने में. पश्चिमी पहरावे में. 1989 में हुए तियानमेन स्क्वायर पर छात्र संहार आंदोलन के समर्थन में नानजिंग में मजदूरों का बड़ा जुलूस निकालने में. परंपरागत नैतिक मूल्यों, सामाजिक बंधनों और पारिवारिक संस्कारों को तोड़ने में.

लिजिया की भाषा कवित्वपूर्ण है. भाव संवेदनशील हैं. पर चीन के परिवेश, कहावत-मुहावरे, मानस और पारिवारिक मूल्यों की जगह-जगह वह चर्चा करती हैं. पढ़ने से लगता है, एशियाई देशों के मूल्य-मानस कमोबेश समान हैं. देश, काल और परिस्थितियों के कारण भिन्नता है. अन्यथा सामाजिक आचारसंहिता, पारिवारिक मूल्य, सामाजिक शुचिता, नैतिक चौहद्दी, भाग्य पर भरोसा. यह सब कमोबेश एक तरह हैं. लिजिया की पुस्तक में चीनी मुहावरों का सुंदर इस्तेमाल है.

वे चीनी मुहावरे कमाबेश उसी अर्थ या भाव के, भारत की भाषाओं, बोलियों और मानस में हैं. लिजिया माओ के बाद की पीढ़ी की हैं. बीच-बीच में कम्युनिज्म की बंद दुनिया का बखान करती हैं. पग-पग पर डर-खौफ से भरा जीवन. वह सांस्कृतिक क्रांति के प्रभावों का कहीं-कहीं उल्लेख करतीं हैं. पढ़ने से लगता है कि यूगोस्लाविया के साम्यवादी चिंतक मिलान-द-जिलास ने कम्युनिज्म में जिस न्यू क्लास की चर्चा की, नये जमींदारों, सामंतों और राजाओं के उदय होने का डर बताया, चीन में वहीं हुआ. सांस्कृतिक क्रांति के प्रभाव पढ़ने से, आज भी डर-सिहरन होती है. कैसे शहर और गांव की कमेटियों में, राजसत्ता के मालिक लुंपेन बने.

साथ ही ये लुंपेन क्रूरता-षडयंत्र और अपराध के सरगना भी थे. विश्वविद्यालयों में पैरवी पुत्र जगह पाने लगे. माओ ने जिन मजदूरों को ‘मास्टर्स आफ द नेशन’ कहा, उनकी बुरी स्थिति थी. काम के आतंक से. सामाजिक डर-भय से और राजनीतिक प्रताड़ना से. चेयरमैन माओ की तस्वीर-मूर्ति को एकत्र होकर तीन बार सिर झुका कर नमन करना पड़ता था. कम्युनिस्ट पार्टी की कमेटियां किसी पर कुछ आरोप लगा कर सार्वजनिक सजा देती थीं. सभी स्थानीय लोगों को उपस्थित रहना पड़ता था.

सार्वजनिक रूप से थूकवाना, सिर मुड़वाना, पीट-पीट कर मार देना, परिवार के लोगों से ही सजा दिलवाना. ऐसे क्रूर आतंक हुए. नया समाज-मानव गढ़ने के नाम पर. कुछेक वर्षों पहले एक चीनी विद्वान ने उन लाखों लोगों की सूची प्रकाशित की, जो निर्दोष थे, पर सांस्कृतिक क्रांति में उनकी बलि दी गयी. लिजिया कहतीं है, यह सब दृश्य देख कर भय से लोगों ने आत्महत्या शुरू की. एक मामूली प्रसंग में लिजिया की मां का सिर मुड़ा कर भयावह शारीरिक प्रताड़ना की गयी.

वर्षों वह गुमसुम रहीं. कहा, बच्चे न होते, तो आत्महत्या कर लेती. इस प्रताड़ना-माहौल से हजारों लोग पागल हो गये या डिप्रेशन के शिकार. बच्चों को मां-बाप या शिक्षकों के खिलाफ भड़काया जाता था. लिजिया इसी परिवेश में पल-बढ रही थीं. वह कहती हैं, तब देंग के चार आधुनिकीकरण का जोर था. पहला, खेती. दूसरा, उद्योग. तीसरा, विज्ञान और टेक्नोलॉजी. चौथा, रक्षा.

पुस्तक में कुल 35 अध्याय हैं. छोटे-छोटे. कुल 288 पेजों की पुस्तक है.

पर अत्यंत रोचक और बांध कर रखनेवाली. भाषा में प्रवाह और भाव दोनों हैं. कैशोर्य उम्र का प्यार, आवेग, कई बार छले जाने, धोखा खाने, फिर सिसिकस की तरह बार-बार गिरने और उठने का वृतांत. हैं तो निजी संस्मरण, पर ताना-बाना सामाजिक मूल्यों से जुड़ा है. राष्ट्रीय सवालों से जुड़ा है. अपने बहाने, चीन के बदलने का प्रतिबिंब. युवा दिनों के प्रेम का भावपूर्ण वर्णन. पढ़ते हए अपने गुरु डा.धर्मवीर भारती की पुस्तक ‘गुनाहों का देवता’ स्मरण भी आया. यांगत्सी नदी के किनारे पहले प्रेम का जीवंत वर्णन है. फिर उस नदी का वृतांत, जिसे चीन येलो रिवर कहता है, रिवर आफ सौरो (दुख की नदी) कहता है.

पर इसे ही चीनी सभ्यता का पालना (क्रेडल) भी मानता है. तिब्बत से गल्फ ऑफ बोई तक की पांच हजार किलोमीटर की यात्रा, चीन की सभ्यता और दुख की पृष्ठभूमि में पहला प्यार, पहला चुंबन. लिजिया यहां निजत्व से उठ कर प्रकृति, नदी, सभ्यता और संस्कृति जैसे बड़े सवालों से जुड़ती हैं. उनका पहला प्रेमी कहता है, चीन की बड़ी दीवार (ग्रेट वॉल) चीन के बंद रहने और सीमित रहने के मानस का प्रतीक है. यह प्रगति नहीं, ठहराव का संकेत है. यह पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार बौद्ध दार्शनिक, अर्थशास्त्री और समाजवादी चिंतक कृष्णनाथजी याद आये. 1987-88 में एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा था, पश्चिमी सभ्यता अमेरिकी सभ्यता है. उसमें गजब का आकर्षण है.

वह युवा है. सेक्स उन्मुक्तता की बात करती है. जीन्स और कोकोकोला उसके सिंबल हैं. यहां बड़ा बाजार है. उपभोग की भूख है. यह सभ्यता आंधी है. गांधी ने इसे आसुरी माना था. अगर भारत जैसे मुल्क सावधान नहीं रहे, तो यह सभ्यता निगल सकती है भारतीय मूल्य, पारिवारिक संस्कार, मानवीय रिश्ते, सामाजिक तानाबाना. सब इसमें खो जायेंगे. मनुष्य अपने लिए जीयेगा. कितने दूरदर्शी हैं कृष्णनाथजी. लिजिया के वृतांत को पढ़ते हुए कृष्णनाथजी की ये बातें बार-बार याद आयीं. माओ के जीते जी, चीनी अमेरिका के प्रेमपाश में बंध गये. कई हजार वर्षों पुरानी सभ्यता अपना आंतरिक सुर-राग, ताल लगभग खो चुकी है. एक अति या ध्रुव या छोर या बंद समाज से, दूसरे अति या ध्रुव या छोर पर.

पेंडुलम की तरह एक कोने से दूसरे कोने. चीन बंद था. बाहरी दुनिया से कटा था. निजत्व (इंडिविजुअलिज्म) को मार चुका था. मनुष्य को साम्यवाद का मशीन बना चुका था. कानून का खौफ था. अमरीका की सामाजिक स्वच्छंदता, खुलापन, वजर्नाहीन शारीरिक भूख, नैतिक मूल्यों से परे एक पुरुष या एक स्त्री की अवधारणा को नकारती 1975 के बाद की चीनी पीढ़ी नयी यात्रा पर निकल पड़ी. लिजिया चीनी उद्धरण याद दिलाती हैं, राजनीति, चौबीसों पहर का धंधा थी. कॉमेडी (विनोद) खत्म हो चुकी थी. मनुष्य की भावनात्मक और यौन आवश्यकता को समाज ने खत्म मान लिया था. इससे बेचैन लोग अंडरग्राउंड साहित्य और कविता में अपने भाव उडेलते थे. लिजिया ने कुछ ऐसी कविताओं का उल्लेख भी किया है.

लिजिया कहती हैं कि तब चीन का व्यक्ति बिना किसी आकांक्षा का इंसान होता था. जीवन में ठहराव था. लिजिया का एक युवा मित्र कहता भी है, मैं अपने लिए जीता हूं. किसी मूर्खतापूर्ण सिद्धांत के लिए नहीं. याद करिए, यह कन्फ्यूशियस का देश रहा, जहां आदर्श, नि:स्वार्थ होना, बड़ों का आदेश मानना, समाज और समूह के हित में काम करना जीवन के ध्येय थे. पर लिजिया का चीन कहने को तो साम्यवादी है, पर उसकी पूरी संस्कृति अब अमेरिकी है. बाजार की है. यह पढ़ते हए भारत की मौजूदा तसवीर भी उभरती है. क्या लोकतांत्रिक भारत भी अमेरिकी जीवन संस्कृति का समाज नहीं बन रहा? पढ़ने के बाद यह पुस्तक मन में यह सवाल छोड़ जाती है.

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