-हरिवंश-
पुस्तक के नाम से ही उत्सुकता जगी. लेखक का परिचय पढ़ा, तो पुस्तक से बंध गया. लेखक फ्रांसिस कोलिंस दुनिया के मशहूर वैज्ञानिक हैं. पर खुद विज्ञान समझता नहीं, अपनी सीमा से वाकिफ था, फिर भी पुस्तक ली, क्योंकि शीर्षक में ही जादू है.सृष्टि के समय से ही यह सवाल है कि ईश्वर है या नहीं? सबसे अधिक चर्चित, विवादित, रहस्यमय या उत्सुकता पैदा करनेवाला प्रसंग? मुख्य दो धाराएं हैं. एक अनास्थावादी, दूसरी आस्थावादी. या कहें ईश्वरवादी या निरीश्वरवादी. बड़ा तबका संशयग्रस्त है. न वह इधर है, न उधर. जीवन है, इसलिए वह जीता है. धरती पर आने के पहले और जाने के बाद के सवालों में उसकी रुचि नहीं. यम ने नचिकेता से यही तो कहा था. बालक सबकुछ मांगो. दुर्लभ चीजें मांगो. ऐश्वर्य, धन, अलभ्य सुंदरियां. वह भोग जो धरती पर उपलब्ध नहीं. वह सुख, जो स्वर्ग की कल्पना है. पर मृत्यु के रहस्य न पूछो. न जानो.
शास्त्र या ज्ञानवान बताते हैं कि जिसने भी यह जानने या ढूंढने की कोशिश की, उसे बेचैन होना पड़ा. विरक्त होना पड़ा. संसार छोड़ना पड़ा. इसी तरह ईश्वर के अस्तित्व का सवाल है. अभूतपूर्व वैज्ञानिक उपलब्धियों की चोटी पर दुनिया बैठी है. पर आज भी सृष्टि रहस्यमय ही है और जीवन पहेली. विश्वास के साथ न हम ईश्वर के वजूद को स्वीकार करते हैं और न नकार पाने के ठोस तर्क हैं.
पर जीवन रहस्य ढूंढ़ने में डूबा वैज्ञानिक जब आस्था की बात करे, तो गहरी उत्सुकता स्वभाविक है. फ्रांसिस कोलिंस अमेरिका के अग्रणी जेनेटिसिस्ट (जीन विज्ञानी) हैं. लंबे समय तक ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ उनके कुशल नेतृत्व-निर्देशन में चला. कोलिंस पैदा हुए एग्नोस्टिक्स (अज्ञेयवादी/ संशयवादी). फिर केमिस्ट्री में पीएचडी करते हुए घोर नास्तिक (एथिइस्ट) हो गये. पुन: मेडिकल स्कूल गये. वहां उन्हें गंभीर बीमारियों से त्रस्त रोगी मिले, जिनकी आस्था ने कोलिंस के विचार संसार को प्रभावित किया. जेनेटिक्स (अनुवांशिकी) के क्षेत्र में कोलिंस ने बड़ा काम किया. कई गंभीर रोगों को समझने और निदान की दृष्टि से.
फिर वह दुनिया के मशहूर सफल ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ के हेड बने. छह देशों के हजारों जीन-वैज्ञानिकों के बीच समन्वय व शोध का काम किया. खाली समय में वह गिटार बजाते हैं. लंबी दूरी तक मोटरसाइकिल की सवारी करते हैं. गीतों के धुन बनाते हैं. उनकी परवरिश अमेरिका में हुई. पश्चिमी छोर पर. 95 एकड़ के एक अनगढ़ फार्म हाउस पर. पथरीला , सुविधाविहीन लेकिन प्रकृति की सोहबत-सानिध्य में. इसी फ्रांसिस कोलिंस की किताब है ‘द लैंगुएज आफ गॉड’ (ईश्वर की भाषा). कवर पर ही पुस्तक के शीर्षक के नीचे लिखा है ‘ए साइंटिस्ट प्रेजेंट्स एविडेंस फार बिलीफ’ (एक वैज्ञानिक के प्रमाण जो आस्था-विश्वास को सही ठहराते हैं). 285 पेजों की इस पुस्तक में तीन अध्याय हैं. ग्यारह चैप्टर.
भूमिका और एपेंडिक्स (परिशिष्ट) अलग हैं. नोट्स (टिप्पणी), एक्नॉलेजमेंट (आभारोक्ति) और इंडेक्स (सूची) भी अलग से हैं. पुस्तक छपी है पॉकेट बुक्स से, जो लंदन, सिडनी, न्यूयार्क और टोरंटो में है. भारत में पुस्तक इंडिया बुक हाउस के सौजन्य से आयी है. कीमत है, साढ़े नौ डॉलर. भूमिका में कोलिंस लिखते हैं, नयी शताब्दी (21वीं) के छह माह गुजरे होंगे कि मानव समाज ने एक पुल पार कर यादगार दौर में प्रवेश किया. पूरी दुनिया के लिए यह उपलब्धि सुर्खियों में थी. ह्यूमन जीनोम का पहला ड्राफ्ट तैयार था. मानव संरचना-बुनावट का इंस्ट्रक्शन बुक तैयार हो गया था. पढ़ लिया गया था. ह्यून जीनोम हमारी सभी स्पीशीज (प्रजाति) की सभी डीएनए का ब्यौरा है. जीवन का ‘हेरिडेटरी कोड ऑफ लाइफ’ (जीवन की अनुवांशिक नियमावली). यह नयी जानकारी ‘थ्री बिलियन लेटर्स’ लंबी थी. चार शब्दों में इसका कोड तैयार हुआ.
कोलिंस को पढ़ते हुए लगता है, मानव शरीर के प्रत्येक सेल (कोशिका) की स्तब्धकारी बुनावट, इसकी जटिलता और हर मानव कोशिका के अंदर छुपे राज और जानकारी अदभुत है. इस कोड के एक लेटर को प्रति सेकेंड पढ़ा जाये, बिना रुके दिन-रात पढ़ा जाये, तो 31 वर्ष पढ़ने में लगेंगे.
वैज्ञानिक कोलिंस के अनुभवों को जान कर बोध होता है कि मानव शरीर की एक कोशिका का संसार अगर इतना अदभुत, विराट और सूचना संपन्न है, तो सचमुच यह संसार और प्रकृति कितने रहस्यमय, अनजाने और व्यापक हैं? अगर एक मानव कोशिका का यह हाल है, तो इस ब्रह्मांड, जल, थल, नभ यानी सृष्टि की सीमा क्या है? बहुत पहले हिंदी के सुकुमार कवि पंत ने लिखा था, जिसका आशय है कि नक्षत्रों से, आसमान में चमकते रात के तारों से न जाने कौन मौन निमंत्रण देता है? क्या संबंध है, मनुष्य की सृष्टि का इस ब्रह्मांड से? कबीर ने पंचतत्व से बने इस शरीर के बारे में सही ही कहा.
अग्नि जल, वायु, धरती, आसमान से बना और फिर उसी में लय-विलय. कोलिंस जैसा वैज्ञानिक जब यह सब रहस्य जानने की कोशिश करता है, तो वह अनास्थावाद से आस्थावाद की ओर बढ़ता है. भूमिका में ही कोलिंस छेड़ते हैं कि साइंटिस्टों का आध्यात्मिक विश्वास क्या है? वह बताते हैं, 1916 में रिसर्च करनेवालों ने जीवविज्ञानी (बायोलाजिस्ट), भौतिक विज्ञानी (फिजीसिस्ट) और गणित विशेषज्ञों से पूछा कि क्या आप ईश्वर में यकीन करते हैं, जो मानव से लगातार संवाद करता है? 40 फीसदी लोगों ने कहा, हां. 1997 में पुन: यह सर्वे दोहराया गया.
ऐसे ही वैज्ञानिकों के बीच. और विश्वास करनेवालों का फीसदी कमोबेश यही पाया गया. इसलिए कोलिंस मानते हैं, यह धर्म और विज्ञान के बीच द्वंद्व नहीं है. दोनों के बीच द्वंद्व को लेकर दोनों खेमों में हुए बयानों का भी उल्लेख कोलिंस ने किया है. वह कहते हैं, इस किताब का मूल सवाल है कि ब्रह्मांड विज्ञान (कास्मोलॅाजी) का आधुनिक दौर ज्ञान, इवोल्यूशन (क्रमविकास) और ह्यूमन जीनोम पर जाने के बाद कोई संभावना बनती है कि वैज्ञानिक और आध्यात्मिक संसार के दो ध्रुवों के बीच आश्वस्त करनेवाला सामंजस्य (हारमोनी) कायम हो सके. वह कहते हैं कि मैं पूर्ण विश्वास के साथ मानता हूं कि ऐसा ही है. वह दोहराते हैं कि घोर वैज्ञानिक होना और ईश्वर में विश्वास करनेवाला होना, इसमें कोई टकराव या अंतरविरोध नहीं है. विज्ञान का काम है प्रकृति के रहस्य जानना. ईश्वरीय क्षेत्र, आध्यात्मिक संसार को समझना. कोलिंस बताते हैं कि इस संसार को विज्ञान की भाषा, विज्ञान के औजार और तौर-तरीकों के बिना नहीं समझा जा सकता.
इसका परीक्षण-निरीक्षण दिल, दिमाग और आत्मा के संतुलन से ही संभव है. कोलिंस मानते हैं कि एक इंसान में ये दोनों पक्ष हो सकते हैं. वह बड़ा वैज्ञानिक भी हो सकता है और आध्यात्मिक भी. विज्ञान, प्रकृति और संसार को समझने का सबसे विश्वसनीय माध्यम या विधा है. इसके उपकरण-रहस्य प्रकृति को समझने-जानने में मदद करते हैं. पर विज्ञान सृष्टि के गंभीर सवालों के उत्तर देने में शक्तिहीन और अपर्याप्त है. यह ब्रह्मांड अस्तित्व में क्यों आया? मनुष्य के अस्तित्व का क्या अर्थ-मकसद है? यह जीवन क्यों है? हम मरते हैं. फिर क्या होता है? इन सवालों को समझने के लिए ब्रह्मांड के ज्ञात-अज्ञात जानने के लिए कोलिंस की नजर में वैज्ञानिक और आध्यात्मिक समझ दोनों जरूरी है. वह कहते हैं, इस पुस्तक का मकसद है इन दो ध्रुवों के बीच एक अधिक सौम्य (सोबर) और ईमानदार बौद्धिक संयोजन या तलाश.
वह मानते हैं, मनुष्य सच जानने के लिए आज भी व्यग्र है. हालांकि जीवन के दैनंदिन सवाल-उलझनें और जीवन जीने के कोरस में वह डूबता-उतराता है. इस आपाधापी में बुनियादी सवाल ओझल हो जाते हैं. इस तरह जीवन बीतता है. पल-पल. सप्ताह दर सप्ताह. वर्ष दर वर्ष. फिर जिंदगी ही गुजर जाती है. पर जीवन के बुनियादी सवाल अनसुलझे-अप्रकट रहते हैं. कोलिंस मानते हैं कि आत्मनिरीक्षण करने का अवसर यह किताब देगी. शायद और गहराई से आत्ममंथन करने के लिए भी प्रेरित करेगी. भूमिका के अंत में वह पुस्तक का सार देते हैं, कैसे एक वैज्ञानिक जो अनुवांशिकी (जेनेटिक्स) के अध्ययन में डूबा हुआ था, वह ईश्वर में आस्था-विश्वास रखनेवाला बन गया. वह ईश्वर जो काल और स्थान (टाइम-स्पेस) से परे है, जो मानव जगत में निजी रुचि लेता है. कोलिंस यह भी कहते हैं कि कुछ लोगों को लगेगा कि मेरा लालन-पालन कट्टर धार्मिक माहौल में हुआ होगा. मेरे परिवार से, मेरी संस्कृति से गहरी आध्यात्मिक ऊर्जा-आस्था मिली होगी. पर ऐसा है नहीं.
डीएनए प्रोजेक्ट को याद करते हए कोलिंस कहते हैं, इंटरनेशनल ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट के लीडर के रूप में वर्षों तक हमने कठिन श्रम किया. डीएनए गुत्थी स्पष्ट होने में एक दशक से अधिक समय लगा. तब दुनिया को इसकी जानकारी अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने दी. कोलिंस वह दिन याद करते हैं. ह्वाइट हाउस के ईस्ट रूम में हम खड़े थे. राष्ट्रपति क्लिंटन के साथ. उपग्रह से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर जुड़े थे. पूरी दुनिया के कई हिस्सों में सृष्टि का यह रहस्य (डीएनए) जान लेने पर उत्सव का माहौल था.
तब क्लिंटन ने इस अवसर पर दुनिया से कहा, नि:संदेह मानव समुदाय द्वारा तैयार अब तक का सबसे अदभुत, सबसे महत्वपूर्ण यह नक्शा (डीएनए अध्ययन) है. फिर क्लिंटन बोले, आज हम वह भाषा सीख रहे हैं, जिसमें ईश्वर ने जीवन को बनाया. रचा. इस जटिलता, सौंदर्य को देख-जान कर ईश्वर के सबसे महत्वपूर्ण ईश्वरीय व पवित्र वरदान, जीवन के प्रति आस्था का अतिरेक पैदा होता है. नोबेल पुरस्कार पाये डेसमंड टुटु जैसे मशहूर आस्थावादियों को छोड़ दें, तब भी दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिकों-विचारकों ने इस पुस्तक की अद्भुत प्रशंसा की है. मानव सृष्टि का रहस्य या जीवन की गुत्थी समझने का यह प्रयास रोचक और पठनीय है.