एक गैरजरूरी विवाद

पुराना सबकुछ अच्छा ही हो और नया एकदम ही बुरा, ऐसा तो नहीं माना जा सकता, लेकिन आजादी के दौर के नेताओं के आचार-विचार से आज के नेताओं की तुलना करें तो अक्सर तब के नेता बेहतर जान पड़ते हैं. मिसाल के लिए केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और बिहार के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 16, 2016 6:10 AM

पुराना सबकुछ अच्छा ही हो और नया एकदम ही बुरा, ऐसा तो नहीं माना जा सकता, लेकिन आजादी के दौर के नेताओं के आचार-विचार से आज के नेताओं की तुलना करें तो अक्सर तब के नेता बेहतर जान पड़ते हैं.

मिसाल के लिए केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और बिहार के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी के बीच ट्विटर पर संबोधन के एक शब्द ‘डियर’ को लेकर चले विवाद को सरदार पटेल और राजमाता कही जानेवाली विजयाराजे सिंधिया के बीच हुए एक संवाद के बरक्स रख कर देखें.

बात 1948 की है, जब ग्वालियर में मध्य भारत नामक राज्य के उद्घाटन-समारोह में पटेल ने मंच पर मौजूद ‘राजमाता’ को सिर्फ ‘श्रीमती सिंधिया’ संबोधित किया था. सभा में मौजूद लोगों को आश्चर्य हुआ, लेकिन इसके पीछे एक लोकतांत्रिक सोच थी. पटेल ने इशारा कर दिया था कि आगे ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ के विचार से चलनेवाला लोकतंत्र नागरिकता की तुला पर राजा-रंक-फकीर के बीच कोई भेद नहीं करेगा. समाज का ऊंच-नीच अकसर भाषा के भीतर भी चला आता है, सो पटेल का संकेत था कि भारतीय लोकतंत्र को अपनी भाषा के भीतर नागरिकों की बराबरी के अनुकूल कुछ नये संस्कार डालने होंगे.

जरूरी नहीं कि पटेल और महारानी सिंधिया के बीच हुए संबोधन-व्यवहार से स्मृति ईरानी परिचित हों, लेकिन किसी आम आदमी की तरह यह बात तो उनकी जानकारी में होगी ही कि बढ़ते और नित नये होते भारत में तकनीक, सिनेमा और मीडिया आदि के जरिये एक नयी हिंदी का निर्माण हो रहा है.

‘हिंग्लिश’ कही जानेवाली यह हिंदी सूचना-प्रौद्योगिकी के औजार- ट्विटर, फेसबुक या इमेल आदि- पर संदेश को संक्षिप्त, सारगर्भित, संप्रेष्य बनाने के साथ-साथ आधुनिकता और लोकतंत्र के तकाजों को व्यक्त करने का साधन बन रही है. सो, किसी प्रदेश के मंत्री की ट्विट में केंद्रीय मंत्री के लिए आया ‘डियर’ शब्द कहीं से आपत्तिजनक नहीं लगता. आज हिंग्लिश बनती हिंदी में ‘डियर’ लिंग-भेद, पद-भेद, अधिकार-भेद से परे हर आम और खास के बीच बराबरी को सूचित करनेवाला संबोधनसूचक शब्द बन चला है.

ऐसे में यह प्रदेश के मंत्री का बड़प्पन ही कहा जायेगा कि उन्होंने केंद्रीय मंत्री की आपत्ति का मान रखा और लोकतांत्रिक मिजाज के अनुकूल जान पड़नेवाले अपने भाषाई व्यवहार के लिए क्षमा मांग ली. फिर भी यह प्रश्न तो शेष रहेगा ही कि हिंदी पर जोर देनेवाली केंद्र सरकार की एक मंत्री भाषा के भीतर लिंग-भेद या अधिकार-भेद सूचक किसी प्रसंग को क्योंकर मौजूद रखना-देखना चाहती हैं?

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