सृष्टि चर्चा !

-हरिवंश- अंग्रेजी अखबार में एक खबर पढ़ी. इटली और स्विटजरलैंड की सीमा (आल्प्स पर्वत श्रृंखंला) बदल रही है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण. आल्प्स पर्वत के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इस कारण इटली और स्विटजरलैंड को सीमा पुन: तय करनी होगी. रोम में नयी सीमा के पुनर्गठन के लिए कानूनी मसविदा तैयार है. 1861 में दोनों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 16, 2016 11:10 AM

-हरिवंश-

अंग्रेजी अखबार में एक खबर पढ़ी. इटली और स्विटजरलैंड की सीमा (आल्प्स पर्वत श्रृंखंला) बदल रही है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण. आल्प्स पर्वत के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इस कारण इटली और स्विटजरलैंड को सीमा पुन: तय करनी होगी. रोम में नयी सीमा के पुनर्गठन के लिए कानूनी मसविदा तैयार है. 1861 में दोनों देशों के बीच यह अंतररष्ट्रीय सीमा बनी थी. पर आल्प्स ग्लेशियर अब तेजी से पिघल रहे हैं, इसलिए दोनों देशों के बीच समस्या पैदा हो गयी है. स्विटजरलैंड के वैज्ञानिक कहते हैं कि गरम होती धरती के कारण, प्रकृति इस सीमा का रूप-रंग बदल रही है.

एक तरफ यह खबर पढ़ी, दूसरी ओर वर्ल्ड स्ट्रीट जरनल में एक पुस्तक का विवरण पढ़ा. नाम है ‘सेवेन डेडली सिनैरियोज’. 334 पृष्ठों की किताब. लेखक हैं, फ्यूचरोलॉजी विद्या के जानेमाने नाम, एंड्रयू एफ क्रेपिनइविच. लेखक इसमें दुनिया में मंडराते खतरों की चर्चा करते हैं. इन मुद्दों में वह पहला इश्यू ग्लोबल वार्मिंग को ही मानते हैं. वैज्ञानिक तरीके से वह आंकते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग दुनिया का शक्ल-सूरत बदल देगी.

इसी के आसपास लंदन स्कूल अॅाफ इकोनोमिक्स के पूर्व निदेशक एंथोनी गिडेंस की टिप्पणी पढ़ी. इंड आफ द इंड आफ हिस्ट्री. एक पंक्ति में कहें, तो इस लेख का निष्कर्ष है कि क्लाइमेट चेंज (मौसम परिवर्तन) हमारे जीने-रहने का ढंग बदल देगा. आमूलचूल. इतिहास और भूगोल बदल देगा. खुद भारत में 80 के दशक में बंगलुरू, पुणे, रांची वगैरह पैराडाइज (स्वर्ग) माने जाते थे. पर अब इन जगहों पर भी तापमान 40 डिग्री से भी अधिक. वह भी मार्च के महीने में. जिन शहरों में पंखों की जरूरत नहीं थी, वहां अब एसी से भी काम नहीं हो पा रहा.

एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग का यह खतरा, दूसरी तरफ भारत में हो रहे आम चुनाव. किसी राजनीतिक दल के एजेंडा में ये मुद्दे नहीं हैं. न इस पर कोई राष्ट्रव्यापी बहस है. जो सवाल मनुष्य के जीवन और अस्तित्व से जुड़ा हो, वह सवाल भविष्य तय करने वाले राजनीतिक एजेंडा से बाहर हो, यह भारत में ही संभव है. यहां खतरा मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ा है. ब्रह्मांड, संसार, धरती और सृष्टि को लेकर वैज्ञानिक चिंतित हैं. पर भारत के राजनीतिक दल लड़ रहे हैं कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा?

चुनावों के कर्कश स्वर के बीच सूचना मिली कि डॉ रामदयाल मुंडा की पुस्तक ‘आदि धरम’ (सरना, जाहिरा, सारि, संसारी, बाथइ, दोनिपोलो इत्यादि नामों से चिन्हित भारतीय आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं) का लोकार्पण हुआ. प्रभाष जोशी द्वारा. पुस्तक छापी है, राजकमल प्रकाशन ने. कीमत है 650 रुपये. इस पुस्तक में भारतीय आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं वर्णित हैं. रामदयाल मुंडाजी के साथ-साथ रतनसिंह मानकी भी इसके लेखक हैं.

वर्षों पहले प्रभात खबर में रामदयाल जी ने आदि धरम पर लंबे-लंबे लेख लिखे थे. वह पुस्तक भी छपकर आयी थी. पर यह पुस्तक इससे अधिक समृद्ध है. मुंडारी-हिंदी संस्करण है. पुस्तक कवर पर ही आदिधर्म वैशिष्ट्य के बारे में उल्लेख है. कहा गया है कि स्थापित विश्वधर्म व्यवस्थाओं (हिंदू, इसलाम, ईसाई) की ही तरह धर्म जिज्ञासा के मूल विषय- परमेश्वर, सृष्टि, पृथ्वी, मनुष्य- और इनका आपसी संबंध समान होने के बावजूद आदिधर्मगत आस्थाओं का अपना वैशिष्ट्य है. इन विशिष्टताओं को सात स्थापनाओं द्वारा कवर पर स्पष्ट किया गया है.

आदिधर्म पर शायद यह सबसे प्रामाणिक पुस्तक है. सृष्टि रचना से जुड़ी प्रतीकात्मक कथाएं हैं. ज्ञानवर्धक. खुद डा.रामदयाल मुंडा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित विद्वान और चिंतक हैं. रतनसिंह मानकी भी अत्यंत पढ़े-लिखे, जानकार और जमीन से जुड़े आदिवासी हैं. इस पुस्तक को पढ़ते हुए कई चीजें स्पष्ट हुईं. पर इन विशिष्ट पहलुओं पर चर्चा कभी और. मुंडारी-हिंदी संस्करण के अंतर्गत विभिन्न अध्यायों को पढ़ते हुए ग्लोबल वार्मिंग की विश्वव्यापी चिंता याद आयी. दुनिया आदिवासी समाज से ग्लोबल वार्मिंग का इलाज जान सकती है. आदिवासी जीवन का प्रकृति से साहचर्य अद्भुत है. प्रकृति इनके जीवन का अंग है. वह इसकी उपासना करते हैं. पूजते हैं. शोषण नहीं करते. ग्लोबल वार्मिंग का सारा संकट प्रकृति के दोहन और शोषण से है. एक मुंडारी सूत्र-मंत्र का हिंदी रूपांतर है-

यह रही गौ माता

यह रही बकरी माता

यह यहां धान माता

यह यहां कोदो माता

यही जीवन के रक्षक

यही दूध-भात देनेवाले

इन्हें तुम देखो, निहारो

इन्हें तुम जुगाओ, संभालो.

दरअसल आदिवासी पद्धति एक भिन्न जीवनदर्शन है. इस विश्वव्यापी आर्थिक संकट में अमरीका के विशेषज्ञों ने क्या पाया? भारतीय ढंग से कहें, तो इनका निचोड़ था, पैर इतना ही फैलायें, जितनी बड़ी चादर. स्पष्ट है कि बिना श्रम किये लोगों ने सबसे महंगा जीवन दर्शन अपना लिया. इसी कारण अमरीका से अर्थसंकट और मंदी उपजा. यह बात अमरीकी विशेषज्ञ मान-कह रहे हैं. पर आदिवासी पहले से ही क्या मानते हैं? यह सूत्र भी मुंडारी में है –

मेहनत करो

पसीना बहाओ

बुनो, रोपो

भरपूर पाओ

मिलकर खा लो

बांट कर खा लो

यह पुस्तक पढ़ते हुए लगा, सचमुच भारत कितना अद्भुत और महान है. तरह-तरह की संस्कृतियां, इनके ज्ञान, दर्शन और जीवनशैली. पर क्या हम एक-दूसरे से सीखने की कोशिश करते हैं? इस जीवन शैली में पैसा उपभोग अहम नहीं है, पानी, बांस, वर्षा, हवा पूज्य हैं. पढ़े एक मुंडारी मंत्र –

हर ऋतु में सोन सा पानी

बांस वन, बांस झुरमुट से

हिमगिरि के ऊपर से

तुम वर्षा लाओ, झड़ी लाओ

पूरब से, पश्चिम से

इत्तर से, दक्षिण से

प्राणदयी हवा चले

हम मन की शांति पा सके.

यह पुस्तक आदिधर्म पर एक विशिष्ट और यादगार रचना तो है ही, पर फिलहाल इसे ग्लोबल वार्मिग की चुनौतियों के संदर्भ में परख रहा था. अद्भुत मंत्र है. मसलन गाराम बोंगा (ग्राम पूजन) के अनुष्ठान एवं पूजा के बीच यह मंत्र पढ़ें (मूल मुंडारी में)

पूरब से पच्छिम से

इत्तर से दक्खिन से

बांस के झुंड से, बांसवन से

तुमने पानी भेजा, तुमने झड़ी भेजी

तुमने सोना-पानी की वर्षा की

चांदी-पानी की झड़ी लगाई

जीवनदायी हवा भेजी

प्राणदायी धूप भेजी.

प्रकृति की इससे जीवंत पूजा और क्या हो सकती है? जहां पहाड़ पूजा जाये, जहां धरती पूजी जाये, जहां आकाश को परमेश्वर माना जाये, जहां पहाड़ को बुरूबोंगा (पहा़ड़ी देवता) कहा जाये, जहां इकिरबोंगा (दह देवता) की पूजा हो, जहां पेड़-पौधों में नयी पत्तियों का आगमन, नये संदेशों से भरा हो, वही जीवन दर्शन प्रकृति को बचा सकता है. प्रकृति का बचना मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है.

यह समाज कैसे जीता है, इसका संकेत इन पंक्तियों में –

सुबह मुग की बांग के साथ

भोर मोर की बोली के साथ

कमल फूलवाले बांध से

सरसिज फूल की पोखरी से

पकड़कर लाए हुए, टटोलकर लाए हुए

खोजकर लाए हुए, अगुआ से पाए हुए

धान मां, मडुआ मां

देवताओं द्वारा दिया हुआ.

ग्लोबल वार्मिंग की चुनौतियों से निबटने के लिए आज अरबों-अरब रुपये खर्च हो रहे हैं, पर आदिवासियों का प्रकृति से कैसा जीवंत तालमेल रहा है, यह सीखना-जानना, लोग नहीं चाहते. मानव अस्तित्व और धरती की रक्षा के लिए यह सीखना-जानना शुभ है.

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