-हरिवंश-
इस पुस्तक के आरंभिक अंश ही पढ़े हैं. पढ़ते हुए लगा यह किताब किसी भी चुनाव में चर्चा का केंद्र होती. नाम है, ‘गार्डिग इंडियाज इंटिग्रिटी’ (भारत की अखंडता की पहरेदारी). लेखक हैं, लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) एस. के. सिन्हा. जम्मू-कश्मीर और असम के पूर्व राज्यपाल. पश्चिम बंगाल और अरूणाचल प्रदेश के पूर्व कार्यवाहक गवर्नर. नेपाल में भारत के राजदूत भी रहे. भारतीय सेना के वाइस चीफ रहे. वेस्टर्न कमांड के जीओसी-इन-चीफ रहे.
कवर पर ही अंग्रेजी में लिखा है, ए प्रोएक्टिव गवर्नर स्पीक्स (एक सक्रिय राज्यपाल की जुबानी). छापा है मानस पब्लिकेशंस ने. कीमत है, 595 रुपये. पुस्तक की प्रस्तावना दो लोगों ने लिखी है. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री आई के गुजराल ने. इसके पहले भी लेखक ने सात महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं हैं. पुस्तक में अनेक जानेमाने लोगों की टिप्पणियां हैं, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला हैं. एडीटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष डी एन वेजबरूआ है. सबने एक स्वर में इस पुस्तक के महत्व को माना है.
भारत के दो-दो संवेदनशील राज्यों के राज्यपाल रहते हुए, लेखक को चार मुख्यमंत्रियों से लगातार संपर्क में रहना पड़ा. दो से उनके रिश्ते अच्छे रहे. एक से साधारण. एक से खराब. लेखक ने बेबाक ढंग से इन चीजों पर भी लिखा है. इस दृष्टि से यह पुस्तक संविधान विशेषज्ञों के लिए केस स्टडी भी है कि राज्य के प्रमुख और सरकार के प्रमुख के बीच रिश्ता कैसा हो? राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच रिश्ते को लेकर लंबी बहसें होती रही हैं. पर इसे स्वस्थ और बेहतर बनाने के प्रयास नहीं हुए. जनरल सिन्हा की पुस्तक पढ़ते हुए, हर कदम पर यह एहसास होता है कि एक योग्य राज्यपाल कितना प्रभावी हो सकता है. पर हुआ क्या? आजादी के बाद राजनीति के रिटायर्ड, रिजेक्टेड और अनवांटेड लोग गवर्नर बनने लगे.
उन्हें न संविधान की मर्यादा का एहसास था, न अपने पद की गरिमा का ख्याल. उधर राज्य सरकारों के जो मुखिया बनने लगे, वे सत्ता के भूखे लोग थे, जिनके सामने गद्दी पहले थी, संवैधानिक मर्यादा और कानून बाद में. जब राज्यों में ऐसे राज्यपाल और खुद को राजा मानने वाले मुख्यमंत्री बनने लगे तो हालात बिगड़े.
जनरल सिन्हा जब असम में राज्यपाल बनकर गये, तो पाया कि उग्रवादी और विभाजन चाहनेवाले ‘स्वाधीन असम’ की बात कर रहे हैं. वे एक झूठे इतिहास की अवधारणा बनाकर लोगों को बरगला रहे हैं. इन परिस्थितियों में एक कल्पनाशील और समझदार राज्यपाल देश के लिए कैसे वरदान साबित हो सकता है, यह जनरल सिन्हा के अनुभवों से स्पष्ट है. जनरल सिन्हा ने असम की नब्ज पर हाथ रखी. पाया कि असम के तीन आइकन हैं. महापुरूष श्रीमत शंकरदेव, वीर लच्छित बोरफूकन और लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलाई. यह दुखद है कि देश के अन्य हिस्सों में लोग इन्हें कम जानते हैं. पर जनरल सिन्हा ने तय किया कि इन तीनों प्रतीकों को देश स्तर पर मान्यता दिलायेंगे. इस तरह राजभवन के दरबार हाल में महान संत शंकरदेव की प्रतिष्ठा हुई. उनके आश्रम का पुनर्उद्धार हुआ. दिल्ली में उन पर बड़ा सेमिनार हुआ, जिसमें असम के जानेमाने लोगों ने भाग लिया. इस तरह देश स्तर पर उनकी चर्चा हुई. वे प्रतिष्ठित हुए.
लच्छित बोरफूकन असम के जीवंत नायक माने जाते हैं. मुगलों ने जब गुवाहाटी पर कब्जा कर लिया, तब राजा के आदेश पर लच्छित ने उन्हें हराया. 1669 की यह जीत लोहे के एक शिलालेख पर दर्ज है. लच्छित की जीत के जश्न की स्मृति में इस विजय स्तंभ को म्यूजियम में रखा गया. इसकी अनुकृति राजभवन में स्थापित की गयी.
मुगलों के पराजय के बाद औरंगजेब ने फिर असम पर धावा बोला. लगभग एक वर्ष तब मुगल सेना गुवाहाटी को घेरे रही. पर लच्छित ने निर्णायक जीत हासिल की. 1671 में सरायघाट के मशहूर युद्ध में मुगल परास्त हुए. जनरल सिन्हा ने लच्छित की रणनीतिक खूबियों का अध्ययन किया. उनकी ‘मिलिटरी लीडरशिप’ पर किताब लिखी. गुवाहाटी विश्वविद्यालय में इस पर व्याख्यान दिया. दिल्ली विश्वविद्यालय में बोले. एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनवायी, जो दूरदर्शन पर दिखलाई गयी. गुवाहाटी विश्व विद्यालय में वार्षिक लच्छित स्मृति व्याख्यान आरंभ हुआ. राष्ट्रपति कलाम पहले व्याख्यान देनेवाले थे. लच्छित दिवस का आयोजन शुरू हुआ.
इस तरह अनेक कार्यक्रम शुरू हुए. असमी लोग इन चीजों को देखकर मुदित हुए. उल्फा ने नाराजगी व्यक्त की कि राज्यपाल सिन्हा ने उनके मुद्दों का अपहरण कर लिया है. इसी तरह गोपीनाथ बारदोलाई को लंबे अनथक प्रयास के बाद भारत रत्न दिलवाया. बारदोलाई आजादी की लड़ाई के महान नेताओं में से थे. गुवाहाटी एयरपोर्ट का नाम, उनके नाम पर रखा गया. उनकी 11 फुट लंबी प्रतिमा लोकसभा में लगायी गयी. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसका अनावरण किया. इस तरह जनरल सिन्हा ने असम के तीन बड़े आइकन को राष्ट्र स्तर पर मान्यता दिलायी. असमियों को लगा कि ये तीनों सिर्फ असम के ही हीरो नहीं, भारत के भी नायक हैं. इस तरह असम और देश के बीच रिश्ता प्रगाढ़ हुआ.
इन चीजों को कराने में जनरल सिन्हा को किन परेशानियों से गुजरना पड़ा, यह पढ़ने से स्पष्ट होता है कि देश कैसे चल रहा है? कौन लोग चला रहे हैं? उनका सोच या मानसिक स्तर क्या है? कैसे ये अपने छोटे-छोटे स्वार्थों और गद्दी मोह में फंसे और बंधे हैं. लगभग 420 पेजों की इस पुस्तक के कुछ ही पन्नों को पढ़ने से लगता है कि आज भारत किसी के एजेंडा पर नहीं है. जनरल सिन्हा कहते है कि उन्होंने पाया कि असम के छात्र आंदोलन और उल्फा उग्रवाद के पीछे मुख्य कारण है, बांगलादेश से बड़ी संख्या में आ रहे अवैध बांग्लादेशी. गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने 6 मई 1997 को संसद में बताया कि एक करोड़ बांगलादेशी भारत में रह रहे हैं. इंटेलिजेंस एजेंसी का अनुमान है कि 40 लाख से अधिक बांगलादेशी सिर्फ असम में हैं.
इस प्रसंग में जनरल सिन्हा ने 1931 से लेकर हाल तक की चीजों का ब्यौरा दिया है. कैसे बांग्लादेशियों को बढ़ाया गया. लार्ड वेबेल की एक टिप्पणी का पुस्तक में उल्लेख है कि कैसे एक खास समुदाय के लोगों को बांग्लादेश से बुलाया गया. असम के लोकप्रिय मुख्यमंत्री बी पी चालिया, राज्यपाल बी के नेहरू इस समस्या को लेकर काफी चिंतित थे. पर दिल्ली में असम का प्रतिनिधित्व कर रहे तीन लोगों ने मिलकर वोट बैंक बनाने की ठानी. उनमें थे देवकांत बरूआ (जिन्होंने इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया कहा था), फकरूद्दीन अली अहमद और मोइनुलहक चौधरी. श्री चौधरी 1947 में जिन्ना के निजी सचिव थे. इस तिकड़ी ने अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों के खिलाफ कोई कार्रवाई होने नहीं दी. बी के नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसका उल्लेख किया है. जब भी इन पर कार्रवाई होती, तो आरोप लगता कि मुसलमानों को तंग किया जा रहा है. जनरल सिन्हा ने उल्लेख किया है कि अनेक वरिष्ठ मुसलिम अफसरों और असम के मुसलिम बुद्धिजीवियों ने इस खतरे के खिलाफ बार-बार आवाज उठायी, पर सही मुद्दों को कोई सुनता नहीं, क्योंकि नेता वोट बैंक चाहते हैं. गद्दी के लिए. इसी तरह कश्मीर से जुड़े अत्यंत नाजुक और संवेदनशील इश्यू इस पुस्तक में हैं. बड़े स्पष्ट और तार्किक ढंग से जनरल सिन्हा ने इन मुद्दों को सामने रखा है. ये मुद्दे देश की राजनीति से जुड़े हैं, अर्थनीति से जुड़े हैं. आतंकवाद से जुड़े हैं. देश की एकता के निर्णायक तत्व हैं. गवर्नेंस से संबंधित प्रश्न हैं. पर आश्चर्य कि इन मुद्दों को कोई उठाना नहीं चाहता. पर ये मुद्दे नेताओं के चुप रहने से खत्म नहीं हो रहे. बल्कि उल्टे नासूर और कैंसर बनकर देश की एकता को खतरे में डाल रहे हैं. दुनिया के किसी दूसरे देश में चुनाव हों और ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे लोगों के द्वारा उठाये ऐसे सवाल चुनाव में चर्चा और एजेंडा के केंद्र न बनें, यह संभव नहीं. भारत में इसलिए ये सवाल अचर्चित हैं, क्योंकि यहां देश बेचकर भी गद्दी पर बैठने और सत्ता हथियाने की भूख बढ़ गयी है.