भारत का सत्व !

-हरिवंश- नये ढंग से भारत को जानने-समझने की कोशिश होती रही है. कारण, दुनिया मानती है कि भारत में कुछ है. वह क्या है? इकबाल को याद करें, तो भारत की हस्ती नहीं मिटी? यूनान, रोम सब जहां से मिट गये, फिर भी भारत बचा रहा? क्या इस भारत की कोई अंतरात्मा या ऐसी समृद्ध […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 16, 2016 4:19 PM

-हरिवंश-

नये ढंग से भारत को जानने-समझने की कोशिश होती रही है. कारण, दुनिया मानती है कि भारत में कुछ है. वह क्या है? इकबाल को याद करें, तो भारत की हस्ती नहीं मिटी? यूनान, रोम सब जहां से मिट गये, फिर भी भारत बचा रहा? क्या इस भारत की कोई अंतरात्मा या ऐसी समृद्ध चीज है, जो भारत को बचाये हुए है? फ्रांस के फ्रांक्वा ग्वातियर ने अपनी पुस्तक ‘ए न्यू हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ (प्रकाशक – हरआनंद पब्लिकेशंस प्रा.लि. दिल्ली, कीमत 495 रुपये) में इसी प्रसंग पर विचार किया है. पुस्तक के शीर्षक से साफ है कि भारत के इतिहास पर लेखक ने नये सिरे से सोचा है.

उनका मानना है कि दुनिया में हो रहे ताजा भाषाई और पुरातात्विक खोजों से स्पष्ट है कि भारत के इतिहास को नये ढंग से लिखने की जरूरत है. उनकी दृष्टि में अगर भारतीय बच्चों को यह जानना है कि वे कौन हैं, कहां से आये हैं, तो भारत के इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए. वह दोहराते हैं कि भारत के आरंभिक इतिहास को गुलाम बनानेवाले यूरोपीय लोगों ने लिखा. उनके उद्देश्य स्पष्ट थे. भारत को असभ्य दिखाना. पिछड़ा बताना. भारतीय सभ्यता को कमजोर और हेय प्रमाणित करना. पर फ्रांक्वा की नजर में असली दुर्भाग्य तो यह है कि आजाद भारत के भारतीय इतिहासकारों ने भी पीढ़ी दर पीढ़ी, इसी दृष्टि और समझ को आगे बढ़ाया. शायद उनके भी अपने निहित स्वार्थ हैं.

उन्होंने उन गलत बुनियादी अवधारणाओं को मान लिया, जिन्हें यूरोपीय लोगों ने अपने हित में प्रतिपादित किया था. मसलन आर्यों का आक्रमण. इस एक अवधारणा ने भारत को बांट दिया. उत्तर, दक्षिण के खिलाफ. आर्य, द्रविड़ के खिलाफ. आर्य-अनार्य विवाद, वगैरह-वगैरह. वह मानते हैं कि उनकी यह रचना भारतीय इतिहासकारों की नयी पीढ़ी की बुनियाद बनेगी.

फ्रांक्वा ग्वातियर फ्रांसीसी पत्रकार हैं. 1959 में पेरिस में पैदा हुए. दक्षिण एशिया में वह राजनीतिक संवाददाता के रूप में 10 वर्षों से काम करते रहे. जेनेवा से प्रकाशित जर्नल टी जीनेवे के लिए. फिर फ्रांस के सबसे बड़े अखबार ली फिगरो के लिए काम किया. आठ वर्षों तक. फिलहाल वह पेरिस से प्रकाशित ला रेवे डेलेंडे के प्रधान संपादक हैं. फ्रांक्वा ने भारत पर कई किताबें लिखीं हैं. एराइज एगेन, ओ इंडिया (हरआनंद, 1999), ए वेस्टर्न जर्नलिस्ट आन इंडिया (हरआनंद, 2001), इंडियाज सेल्फ डिनायल (ऑरोविले प्रेस, 2001), श्री श्री रविशंकर, ए गुरु आफ ज्वाय (इंडिया टुडे बुक क्लब, 2003) उनकी चर्चित पुस्तकें हैं. वह मशहूर भारतीय अखबारों में कॉलम भी लिखते रहे हैं. इंडियन एक्सप्रेस में उनका ‘फिरंगी’ स्तंभ अत्यंत चर्चित हुआ.

आरंभ में ही फ्रांक्वा ने साफ कर दिया है कि ब्रिटिश और मार्क्‍सवादी इतिहासकारों ने कांग्रेस को तरजीह दी. इसका कारण वह बताते हैं कि मूलत: कांग्रेस ब्रिटिश संस्था थी. फ्रांक्वा की दृष्टि में यह परंपरा अब भी चल रही है. उन्होंने लोकसभा एनेक्सी में भारतीय इतिहास के म्यूजियम के उद्घाटन का हवाला दिया है. लोकसभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की यह कल्पना थी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसका लोकार्पण किया. इसमें आजादी की लड़ाई के भारतीय नायकों में या आजादी की लड़ाई के प्रेरकों में महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक या बिपिनचंद्र पाल का उल्लेख तक नहीं है. फ्रांक्वा दो टूक टिप्पणी करते हैं कि इस तरह के काम जानबूझ कर एक विशेष विचारधारा से प्रेरित होकर किये जाते हैं, ताकि भारत अपनी जड़ या मूल न देख या जान सके.

पुस्तक में कुल 18 अध्याय हैं. 250 पेज हैं. पहला अध्याय ‘इंडस’ पर है. लेखक मानता है कि हिंदू शब्द की अवधारणा को स्पष्ट करना चाहिए. इस शब्द को यूरोप के साम्राज्यवादियों (जिन्होंने भारत को गुलाम बनाया) ने खोजा, ताकि ‘इंडस’ (सिंधु) की घाटी में रहनेवाले लोगों को एक नाम दिया गया. इस तरह इस घाटी में रहनेवाले सभी लोगों को, चाहे वे मुसलमान हों, क्रिश्चियन हों, बौद्ध हों या हिंदू हों, ‘इंडो’ संबोधन से ही पुकारा जाता रहा. शताब्दियों तक बाहरी लोग भारतीयों को इसी नाम से पुकारते रहे, चाहे वे किसी जाति-धर्म के रहे हों. पर कालांतर में यही ‘इंडो’ शब्द हिंदू बन गया. पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा गढ़ा यह शब्द भविष्य में भ्रम का स्रोत बना. भारतीय इतिहास पर इसका भयावह असर हुआ. अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विभाजन का यह कारण बना. लेखक की नजर में आज भारत में धर्मों को लेकर जो विवाद हैं, आंशिक रूप से उसके लिए यह भी जिम्मेवार है. लेखक मानते हैं कि अगर भारत और हिंदुत्व को समझना है, तो नये ढंग से सोचना -समझना होगा.

वह बताते हैं कि भारत के सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ हैं, वेद. पर पश्चिम ने सही ढंग से इन्हें समझा ही नहीं है. वह 1926 में महर्षि अरविंद के लिखे विचारों को उद्धृत करते हैं, जहां महर्षि अरविंद ने कहा था, आधुनिक विज्ञान में लोग दो अवधारणाएं पाते हैं, जहां पर्याप्त आध्यात्मिक प्रतिध्वनि है. पहला अणु (एटम). सौर प्रणाली की तरह घूमती संरचनाओं का पिंड है. सभी परमाणुओं में यही तत्व निहित है. अगर सही दृष्टि से इन दो अवधारणाओं पर विचार हो, तो विज्ञान नये खोज की ओर ले जायेगा. उन खोजों की तरफ, जो अविश्वसनीय है. तब ये पुराने स्थापित तथ्य अत्यंत मामूली लगेंगे. महर्षि ने लिखा कि हमारे पुराने वैदिक ऋषि तीन तरह की अग्नि का ज्ञान रखते थे. इसका उन्होंने नाम दिया, साधारण आग – जड़ अग्नि विद्युत (इलेक्ट्रिक) अग्नि तीसरा सौर अग्नि. महर्षि ने यह भी लिखा कि आधुनिक विज्ञान सिर्फ दो अग्नि को ही जानता है. सच यह है कि अणु, सौर प्रणाली की तरह ही है, जो तीसरे खोज की ओर ले जायेगा.

फिर फ्रांक्वा बताते हैं कि महर्षि की यह भविष्यवाणी तब पूरी हुई, जब अमेरिकियों ने पहली बार 1944 में नेवेदा मरूस्थल में परमाणु विस्फोट किया. तब महर्षि अरविंद को 18 वर्षों पहले कैसे यह मालूम था कि सौर ऊर्जा का स्रोत क्या है? फ्रांक्वा ही जवाब देते हैं कि महर्षि अरविंद को यह ज्ञान था. उन्होंने भी सच की अनुभूति की थी क्योंकि 9,000 वर्षों पहले वेद के ऋषियों ने इस सच को खोजा था. पाया था. अंदर की आग को जाना था, जो सौर अग्नि में तब्दील होता है. इस तरह मनुष्य अत्यंत उच्चस्तरीय मानसिक (सुपरामेंटल) अवस्था में पहुंच सकता है. इस प्रसंग में फ्रांक्वा ने जगह-जगह वेदों को उद्धृत किया है. इस सभ्यता का पश्चिमी दुनिया पर कितना गहरा असर रहा, इस पर भी फ्रांक्वा की किताब में एक अध्याय है.

उन्होंने फ्रांस के दार्शनिक पियरे सोनेरथ को उद्धृत किया है. 1782 में उन्होंने लिखा कि प्राचीन भारत ने दुनिया को धर्म दिया. दर्शन दिया. मिस्र (इजिप्ट) और यूनान (ग्रीस) को भारत से ज्ञान मिला. यह भी ज्ञात है कि पाइथोगोरस भारत गये. ब्राह्मणों से पढ़ने के लिए, जो पूरे मानव समुदाय में सर्वाधिक ज्ञान संपन्न थे. 1801 में फ्रांसीसी एंक्विटल ड्यूपेरॉन ने उपनिषदों का फ्रेंच में अनुवाद किया. 1844 में इयूजेफ बनाफ भारतीय बौद्ध धर्म पर किताब लिखी. इस तरह यूरोप में पहली बार पेरिस में संस्कृत अध्ययन की पीठ स्थापित हुई. भारतीय संस्कृति, दर्शन की पढ़ाई होने लगी. नीत्शे ने खुद वेदों को पढ़ा. पुस्तक में नीत्शे का बयान है, बुद्धिज्म और ब्राह्मणवाद … सौ गुना गहरा और तथ्यपरक है. प्राचीन भारत के धर्म और जीवन दर्शन की खूबियां कैसे और कब दुनिया में छा गयी, इसका भी इस पुस्तक में उल्लेख है. इस तरह उन्होंने जर्मनी से लेकर फ्रांस के अनेक पुराने बड़े विचारकों को उद्धृत किया है, जिन्होंने भारत की गहराई व देन को पहचाना.

उन्होंने फ्रांस के अंतिम महान इतिहासकार मिचेट को उद्धृत किया है, ‘भारत से प्रकाश की आंधी और ज्ञान पुंज मिलता है, सही और तार्किक चीजों की नदी…’. वह अंतिम अध्याय में आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को उद्धृत करते हैं. वह हठयोग और ध्यान का स्मरण कराते हैं. इस योग और ध्यान के पीछे आज दुनिया दीवानी है. रविशंकर पूछते हैं, क्या यह सांस लेने की तकनीक का कोई धर्म है? क्या जिस हवा से हम सांस लेते हैं या जो हमारे चारों ओर मौजूद है, वह हिंदू, क्रिश्चियन या मुसलमान हैं? कहने का आशय है कि ज्ञान न तो हिंदुओं का है, न बौद्धों का, न जैनियों का, न क्रिश्चियन लोगों का और न मुसलमानों का. यह ज्ञान भारत ने खोजा. यह अनूठा और अद्भुत है. फ्रांक्वा मानते हैं कि पश्चिम ने सच खो दिया है. पर भारत में आज भी जन्म, मरण, दुख, आत्मा, अनात्मा पर लोग गौर करते हैं, जीवन का मकसद जानना चाहते हैं. जीवन का अंतिम सच ढूंढ़ने को तत्पर रहते हैं. यह पुस्तक यह सोचने पर विवश करती है कि भारत के प्राचीन ज्ञान संपदा को नये ढंग से निरखने- परखने की जरूरत है.

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