पर अंद्रेटा आश्वस्त करता है!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार मई के अंतिम और जून के पहले सप्ताह में अपने हिमाचल-भ्रमण के दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए. कुछ उदास करनेवाले घटनाक्रमों को देखा, तो कुछ ऐसी जगहों और लोगों से भी साक्षात्कार हुआ, जो मनुष्यता और समाज की बेहतरी के लिए जारी सामूहिक प्रयासों के प्रति हमें आश्वस्त करते हैं. चंबा और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 17, 2016 6:31 AM
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
मई के अंतिम और जून के पहले सप्ताह में अपने हिमाचल-भ्रमण के दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए. कुछ उदास करनेवाले घटनाक्रमों को देखा, तो कुछ ऐसी जगहों और लोगों से भी साक्षात्कार हुआ, जो मनुष्यता और समाज की बेहतरी के लिए जारी सामूहिक प्रयासों के प्रति हमें आश्वस्त करते हैं. चंबा और कांगड़ा घाटी के अनेक सुरम्य स्थलों से गुजरते हुए हमें कई डरावने दृश्य भी दिखे. घाटी और पर्वतीय अंचल के गावों-कस्बों में जिस संगठित ढंग से समाज, इतिहास, संस्कृति और धर्म को लेकर तरह-तरह के विद्रूप प्रचारात्मक अभियान चलाये जा रहे हैं, जो चिंताजनक हैं. इसमें कथित धर्म-यात्राएं निकलती हैं और कीर्तन-कथाएं चलती हैं.
इनके जरिये श्रोताओं या उन यात्राओं में शामिल लोगों को स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास से लेकर मौजूदा भारत की समस्याओं पर एक खास ढंग का पाठ पढ़ाया या सुनाया जाता है. ‘गौ प्रतिष्ठा भारत यात्रा’ के आयोजक कुछ ‘दिव्य-ज्ञान प्राप्त लोगों’ ने चंबा के एक भीड़भरे कार्यक्रम में बताया, ‘भारत को स्वतंत्रता दिलाने में गौमाता का बड़ा योगदान था. सारी लड़ाई गौमाता की चर्बी को लेकर शुरू हुई. इससे डर कर अंगरेज भाग गये. इसलिए हमारी सरकार गाय को अब राष्ट्रमाता घोषित करे.’
आजादी की लड़ाई में शहीदे आजम भगत सिंह, आजाद, बिस्मिल, गांधी, नेहरू, सुभाष और पटेल का योगदान गायब! आमतौर पर ऐसी यात्राओं में नेहरू को अधर्मी भी बताया जाता है. ऐसे लोगों ने डाकिया द्वारा घर-घर गंगा जल पहुंचाने की सरकारी योजना का स्वागत करते हुए यह भी फरमाया, ‘सरकार गाय का गोबर घर-घर पहुंचाने की भी व्यवस्था करे. इससे स्वास्थ्य-लाभ होगा.’ आज गंगा सहित अपनी तमाम प्रदूषित नदियों को कैसे बचाया जाये, इसकी तनिक चिंता नहीं है इन्हें! आखिर यह किस तरह का जनजागरण है! बेहतर स्कूल और सुविधासंपन्न अस्पताल मांगने के बजाय यह क्या मांगा जा रहा है!
चंबा के गांवों-कस्बों से गुजरते हुए हम आगे बढ़े. हमें अंद्रेटा पहुंचना था. पालमपुर से करीब 13 किमी की दूरी पर बसा है यह छोटा-सा गांव. सुविधाएं भी ज्यादा नहीं हैं, पर बिजली व सड़क है.
उन दिनों तो बिल्कुल नहीं रही होगी, जिन दिनों यहां नामी-गिरामी कलाकारों ने बसने का फैसला किया. यह कलाकारों-रचनाकारों का गांव है, जो समाज की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहे. अचरज की बात है कि पिछली शताब्दी के तीसरे से पाचवें दशक के बीच इतने सारे हिमाचली नगरों-कस्बों-गांवों को छोड़ते हुए नोरा रिचड‍्र्स, सरदार सोभा सिंह, प्रोफेसर जय दयाल और गुरुचरण सिंह जैसे देश के बड़े कलाकार और विद्वान इसी गांव में आकर बसे.
अंद्रेटा के बुजुर्गों के मुताबिक, सबसे पहले वहां नोरा मेम साहिबा आकर बसीं. फिर उन्होंने सरदार सोभा सिंह और प्रो जय दयाल को यहां आकर बसने के लिए प्रेरित किया. फिल्म अभिनेता कबीर बेदी की मां फ्रेडा बेदी और बीसी सान्याल जैसे बड़े कलाकारों-विद्वानों ने भी यहां काफी समय बिताया.
फिल्म और रंगमंच की मशहूर हस्तियां, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी सहित अनेक लोग यहां अक्सर आया करते थे. शहर के माहौल से बिल्कुल अलग होने के चलते उन्हें यहां अपार शांति मिलती. सोभा सिंह संग्रहालय में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कई प्रमुख कलाकारों-फिल्मकारों के साथ स्थानीय लोगों की तस्वीरें भी मौजूद हैं.
नोरा, सोभा सिंह सहित सभी बड़े कलाकार लाहौर से यहां आये. उन दिनों लाहौर पश्चिम भारत में कला, संस्कृति और वैचारिक आंदोलन का बड़ा केंद्र था. भारत-विभाजन के बाद लाहौर का वह केंद्र बिखर गया. कला और सांस्कृतिक क्षेत्र की कई हस्तियां बंबई, दिल्ली, जालंधर और अमृतसर स्थानातंरित हुईं, तो कुछ इस छोटे से गांव अंद्रेटा आ गयीं.
1930 से 1985-86 तक यह गांव बंबई, दिल्ली, अमृतसर, लाहौर, न्यूयाॅर्क, लंदन और पेरिस से जुड़ा रहा. कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों का कम्यून बना रहा. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान और कलाकारों की आवाजाही बनी रही. 1971 में नोरा की मौत से इसके वजूद को गहरा धक्का लगा. लोग अंद्रेटा को ‘मेम दा पिंड’(मेम साहिबा का गांव) बुलाते थे. नोरा ने अंद्रेटा में कांगड़ा शैली में बनाये अपने मिट्टी-पत्थर के घर- चमेली निवास, ओपेन एयर थियेटर और सारी जायदाद पहले ही पंजाब विवि, पटियाला को सौंपने का फैसला किया था.
आज वह पूरा परिसर विश्वविद्यालय की देखरेख में है. साल में दो-एक बार यहां आज भी रंगकर्म के रंग-बिरंगे उपक्रम होते हैं. सोभा सिंह के निधन के बाद उनके परिजन उनके नाम पर कला दीर्घा और संग्रहालय चला रहे हैं. अंद्रेटा गांव कला, संस्कृति और समाज का वास्तविक तीर्थस्थल है, जिसके कला मंदिरों में दमकते चित्र किसी आकाशदीप की तरह युवा पीढ़ी को रास्ता दिखाते हैं. कला के ये मंदिर हमें आश्वस्त करते हैं. सलाम अंद्रेटा!

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