दूसरी दुनिया बसाने का सुख !

-हरिवंश- यह पुस्तक अनमोल है. कथानक और विषय के संदर्भ में. लीक से हटकर. बचपन में ही कहावत सुनी थी, लीक छाड़ि तीन चले, शायर, सिंह, सपूत. यह किसी सपूत की कथा है. प्रसंग और सवाल वही, जो जीवन में पग-पग पर हम सब फेस करते हैं. बुद्ध ने युवावस्था में ही जरा, जीवन और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 17, 2016 11:29 AM

-हरिवंश-

यह पुस्तक अनमोल है. कथानक और विषय के संदर्भ में. लीक से हटकर. बचपन में ही कहावत सुनी थी, लीक छाड़ि तीन चले, शायर, सिंह, सपूत. यह किसी सपूत की कथा है. प्रसंग और सवाल वही, जो जीवन में पग-पग पर हम सब फेस करते हैं. बुद्ध ने युवावस्था में ही जरा, जीवन और मरण से दरस-परस किया. जिस त्वरा और गहराई से इन सवालों ने उन्हें कुरेदा, उसी अनुपात में वह महान बने. ऐसी अनहोनी चार-पांच हजार वर्षों में शायद कभी होती हो.

इसलिए बुद्ध रोज-रोज नहीं होते. पर वे सवाल हर जगह हैं. हरेक के लिए हैं. पर हम सब इन्हीं सवालों से तालमेल बैठाकर जीने लगते हैं. जीने का व्याकरण गढ़ लेते हैं. जो इस व्याकरण से जितना अलग हुआ, उसी अनुपात में भिन्न या विशिष्ट हुआ. इसी तरह जीवन के स्थापित मापदंडों से जॉन वुड अलग चले. लीक से हट कर. इसी कारण उनकी लिखी पुस्तक अनमोल लगी. पुस्तक का नाम है, लीविंग माइक्रोसॉफ्ट टू चेंज द वर्ल्ड (एन इंटरप्रेन्योर्स ऑडेसि टू एजूकेट द वल्डर्स् चिल्ड्रेन). पुस्तक छापी है, न्यूयार्क स्थित कॉलिंस पब्लिकेशन ने. किताब की भारतीय कीमत है, 661 रुपये.

यह एक सफलतम पश्चिमी युवा का आत्म-वृतांत है. उन्होंने केलॉग स्कूल आफ मैनेजमेंट से एमबीए किया. मैनेजमेंट का विश्व विख्यात सेंटर या दुनिया के सेंटर फॅार एक्सीलेंस में से एक. वहां से पढ़ाई के बाद माइक्रोसाफ्ट में नौकरी मिली, 1991 में. दुनिया की अग्रणी कंपनी माइक्रोसाफ्ट में. जॉन वुड अपने श्रम, कौशल और प्रतिभा से कम समय में माइक्रोसाफ्ट के डायरेक्टर (बिजनेस डेवलपमेंट) पद पर पहुंचे. चीन का काम संभाला. माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनी, बड़ा ओहदा, चीन समेत कई देशों में कंपनी का दायित्व. कम उम्र में ही यश, दौलत और श्रेष्ठ भौतिक सुख. पर इस दुनिया को छोड़ कर एक दूसरी दुनिया बसा ली, जॉन वुड ने.
बचपन में एक हिंदी गाने की पंक्ति सुनी थी. हूबहू याद नहीं, पर भाव स्मृति में है. एक दुनिया उजड़ ही गयी तो दूसरी क्यों बसाते नहीं. भौतिक सफलता के जहां (संसार) को अलविदा कर दूसरे जहां में. यह जहां खुद बनाया. अपनी चाहत और पसंद की दुनिया और मनपसंद काम. यही है जॉन वुड की पुस्तक का मर्म.
1998 में जॉन वुड माइक्रोसॉफ्ट के उभरते सितारे थे. शिखर पर पहुंचनेवाले एग्जीक्यूटिव. उन्हीं दिनों उन्होंने तय किया कि वर्षों से अवकाश नहीं लिया. किसी तरह अवकाश पर निकले और उस वेकेसन (छुट्टी) के अनुभव ने जॉन वुड की जिंदगी बदल दी. वह नेपाल गये. नेपाल के अंदरूनी पहाड़ी इलाकों में. वहां उन्हें प्रेरणा मिली कि विकासोन्मुख देशों में स्कूल खोलें और लाइब्रेरी स्थापित करें. यह बोध या अहसास आग की तरह उनमें पैदा हुआ. काम करने की जिस धुन और आग ने उन्हें माइक्रोसाफ्ट में ऊपर तक पहंचाया, उन्हीं बिजनेस तरकीबों के आधार पर उन्होंने एक नॉन प्रोफिट संगठन (एनजीओ) बनाया. नाम रखा ‘रूम टू रीड’. इस नाम का हिंदी तर्जुमा हुआ, पढ़ने के लिए कमरा या स्कूल घर. यह संगठन स्तब्धकारी रूप से प्रभावकारी हुआ. सिर्फ छह वर्षों में एशिया और अफ्रीका के देशों में 2000 से अधिक स्कूल और लाइब्रेरी जॉन वुड ने स्थापित किये.
पर इस सृजनात्मक आंदोलन की शुरूआत कैसे हुई? जॉन वुड वर्षों के काम के प्रेशर से थक कर छुट्टी पर जाना चाहते थे. कहीं पहाड़, एकांत या जंगल में. अपनी महिला मित्र के साथ. पर अपनी व्यस्तता के कारण महिला मित्र न जा पायीं. पर जॉन निकल पड़े. वह पहुंचे नेपाल. वहां 21 दिन की ट्रेकिंग (पर्वतारोहण) की राह निकल पड़े. पहाड़ों, घाटियों और सुरम्यवादियों के बीच. तीन सप्ताह बिना ईमेल, फोन कॉल, मीटिंग या ऑफिस जाने की भागमभाग से मुक्त होकर. 200 मील पहाड़ी रास्ता पर पैदल यात्र की योजना बनाकर. दसवें दिन वह 18,000 फीट की ऊंचाई पर पहुंचे. वहीं एक ढाबा में बैठकर बीयर पीना चाहा.

एक बालक से मुलाकात हुई, जो अशिक्षित था, पर अत्यंत समझदार, स्मार्ट और तेज. वहीं पशुपति नाम के एक व्यक्ति से भी मुलाकात हुई. पशुपति ने जॉन से कहा, कभी-कभी मैं अपने देश के लिए रोता हूं, क्योंकि मेरी इच्छा है कि मेरे देश का हर बालक अच्छी शिक्षा पाये. लेकिन मैं विफल हो रहा हूं. हर पश्चिमी की तरह जॉन भी अधिक सुनने और जानने को उत्सुक थे. उन्होंने नेपाल की अशिक्षा के बारे में सुना. 70 फीसदी अशिक्षित. फिर पशुपति उन्हें पास में एक स्कूल भी ले गये. वहां एक अध्यापक ने उनसे लाइब्रेरी के लिए पुस्तकें मांगी. जॉन ने हां कह दिया. एक टीचर ने टिप्पणी की. ट्रेंकिंग करनेवाले असंख्य लोग आते हैं और मदद का वायदा कर लौट जाते हैं. करते कुछ नहीं. जॉन से बच्चों ने कहा, आप फिर आयेंगे किताबों के साथ. और इस बात ने जॉन की जिंदगी बदल दी. जॉन दुनिया के अनेक देशों में अपने ढंग के अनूठे अभियान में लग गये. स्कूल बनाने, लाइब्रेरी खोलने और बच्चों को स्कूल भेजने में. जॉन के इस काम में उनके पुराने मित्रों और बड़ी कंपनियों ने उदारता से मदद की.

फिर तो जॉन का यह काम एक आंदोलन ही बन गया. पर उसके पहले जॉन जब स्कूल देख कर हिमालय की ट्रेकिंग के लिए आगे बढ़े, तो उन्हें माइक्रोसाफ्ट का अपना जीवन याद आया. वह अंतरराष्ट्रीय मार्केटिंग में निपुण माने जाते थे. उन पर काम का यह दवाब था कि वह एक साथ अनेक जगहों पर रहे. मसलन शुक्रवार को जोहांनिसबर्ग में, सोमवार को ताइवान में, बुध को कहीं और. प्रजेंटेशन देते हुए, मीटिंग करते हुए, प्रेस से बात करते हुए, फिर यात्रा पर निकलते हुए उन्हें याद आया, आर्थिक दृष्टि से नौकरी तो सर्वश्रेष्ठ है, पर अत्यंत दवाब और तनाव का केंद्र भी. वह याद करते हैं कि नौकरी में मेरा मूलमंत्र था, जब आप मर जाते हैं या दफना दिये जाते हैं, तभी आप सो पाते हैं. 1991 से 1998 तक के सात वर्ष टेक्नोलॉजी उद्योग के उत्थान वर्ष थे. खासतौर से माइक्रोसॉफ्ट के लिए. इस तरह जॉन कहते हैं, मुझें यात्रा में ही लगा कि मैं नौकरी की क्या कीमत चुका रहा हूं?

270 पेजों की यह पुस्तक हर उस युवा को पढ़ना चाहिए, जो जीवन के द्वंद्वों से घिरा है. उपसंहार में वह लिखते हैं, जनवरी 2004 में मैं चालीस वर्ष का हुआ. वह कहते हैं, चालीसवां वर्ष बहुतों के लिए आत्मनिरीक्षण और गहराई से आत्मविवेचन का ठौर होता है. वह लिखते हैं, मुझे उस दिन अवकाश लेने या छुट्टी पर कहीं और जाने का विचार नहीं आया क्योंकि अपने काम में मैं डूबा था. मगन और मुदित. मन से. उस दिन जॉन कार्यालय गये, अपने साथियों से मिले, जो शिक्षा अभियान के काम में लगे हैं. उस रात जॉन के मित्रों ने उनके जन्मदिन पर सैनफ्रांसिस्को के वियतनामी रेस्तरां में पार्टी दी. सिडनी से माइक्रोसाफ्ट के उनके मित्र भी आये. पूछा, कैसा महसूस करते हो? जॉन ने कहा, मेरे लिए आज कोई भी वह चीज करना असंभव है, जो मुझे आंतरिक खुशी न दे. कहा, अगर आप वही काम करते हैं, जिससे आपको आंतरिक लगाव है, अच्छे मित्रों से घिरे हैं, परिवार का स्नेह आपको मिल रहा है, तो आप चालीस, पचास या साठ के हों, क्या फर्क पड़ता है?

जॉन के पास निजी बैंक बैलेंस नहीं है. वह किराये के घर में रहते हैं. अविवाहित हैं. उनके मित्र अपनी लंबी उड़ानों से मिले अतिरिक्त प्वाइंट से प्राप्त टिकट उन्हें यात्रा के लिए उपलब्ध कराते हैं. जॉन 20-22 घंटे की यात्रा कर एशिया, अफ्रीका के उन गरीब मुल्कों में जाकर, अपने अभियान में डूबे रहते हैं. वह कहते हैं, रूम टू रीड अभियान, जनरल इलेक्ट्रिक (दुनिया की सबसे मशहूर कंपनी) की इफीसियेंसी और मदर टेरेसा की करुणा से संचालित है. वह याद करते हैं कि इन स्कूलों और लाइब्रेरियों में लगभग दस लाख बच्चे आज शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. फिर वह जे डब्लू वानगोथे का एक कथन उद्धृत करते हैं.

गोथे ने महान संगीतज्ञ बीथोवेन के ‘फिफ्थ सिंफोनी’ के बारे में लिखा. अगर दुनिया के सारे संगीतज्ञ एक साथ यह धुन बजाने लगें, तो यह धरती अपनी धुरी से खिसक जायेगी. पुस्तक की अंतिम लाइन में जॉन कहते हैं, शिक्षा के बारे में यही महसूस करता हूं. जिस दिन विकासशील देशों के सभी बच्चे एक साथ पढ़ने लगे, फिर अद्भुत घटित होगा.

यह बेमिसाल किताब है. शिक्षा और नौकरी में शीर्ष पर पहुंचे एक युवा की बेचैनी, जो अपने जीवन का मकसद ढूंढ़ता है, धन, दौलत, आर्थिक सुरक्षा, कथित सुख और लक्जरी लाइफ को त्याग कर. अपनी मनपसंद राह चुनकर. अभाव में रह कर, पर अपने लिए एक नयी दुनिया गढ़ कर.

Next Article

Exit mobile version