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बाजार का नया युग

-हरिवंश- यह ज्ञानयुग (नॉलेज एरा) माना जाता है. आशय है कि सूचना संपन्न और ज्ञान संपन्न समाज, देश और इंसान ही इस दौर में आगे रहेंगे. आर्थिक विकास के अलग-अलग चरणों में प्रगति के अलग-अलग प्रतीक रहे हैं. कभी भूमि, निर्णायक तत्व था. तब अधिक से अधिक जमीन का मालिक होना, सामाजिक हैसियत का प्रतीक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 17, 2016 1:26 PM

-हरिवंश-

यह ज्ञानयुग (नॉलेज एरा) माना जाता है. आशय है कि सूचना संपन्न और ज्ञान संपन्न समाज, देश और इंसान ही इस दौर में आगे रहेंगे. आर्थिक विकास के अलग-अलग चरणों में प्रगति के अलग-अलग प्रतीक रहे हैं. कभी भूमि, निर्णायक तत्व था. तब अधिक से अधिक जमीन का मालिक होना, सामाजिक हैसियत का प्रतीक था. उसी तरह आज नॉलेज या स्किल से संपन्न रहना, सूचना समृद्ध होना, प्रगति-सामाजिक हैसियत (सोशल स्टेटस) के प्रतीक हैं. इसी दौर में साफ्टपावर से संपन्न देश नयी ताकत बनकर उभर रहे हैं.

पर इस ज्ञानयुग में इंसान सूचना संपन्न बने कैसे? ज्ञान समृद्ध कैसे हो? कितना पढ़ें? क्या पढ़ें ? इंटरनेट, ज्ञान का एक नया समुद्र स्रोत बन गया है. उधर रोज अध्ययन, शोध और खोज हो रहे हैं. नये-नये तथ्य सामने आ रहे हैं. कितनी चीजें जाने-पढ़े व्यक्ति? एक तरफ लगातार व्यस्त होती जिंदगी. दूसरी ओर लगातार बढ़ता-पसरता ज्ञान का समुद्र. संतुलन कहां और कैसे कायम हो? यह जटिल प्रसंग है.

इस जटिलता या द्वंद्व का एक समाधान, यह पुस्तक पढ़ते हुए समझ में आया. यह छोटी पुस्तिका है. कीमत है, 8.95 डालर. 70 पेजों की पुस्तिका. भारतीय बाजार में 429.60 रूपये में उपलब्ध है. पुस्तिका का नाम है, द इंड आफ कारपोरेट इंपीरियलिज्म. लेखक हैं, प्रो सीके प्रह्लाद और प्रो कीनिथ लाइबरथल. पुस्तिका के कवर पर ऊपर लिखा है, हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू, क्लासिक. दुनिया के जो सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय (सेंटर आफ एक्सीलेंस) हैं, वे प्राय: उन विचारों-आइडियाज पर श्रेष्ठ विचारकों के विचार छापते हैं, जो बदलती दुनिया, बाजार को समझने में मदद करते हैं.

हार्वर्ड बिजनेस प्रेस की अनेक चर्चित पुस्तकें पढ़ी हैं. ये पुस्तकें उन विचारों-आइडियाज पर केंद्रित रहीं हैं, जो इस दुनिया, बाजार, प्रबंधन को नये ढंग से गढ़-बना रहे हैं. बहुत पहले भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में अलग-अलग विषयों पर ऐसा सृजनात्मक प्रयास होता था. मसलन आजादी के दौरान काशी विद्यापीठ में शिक्षा, समाज, राष्ट्र निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बड़े विचारक अपने विचार रखते थे. व्याख्यान देते थे. उनका प्रकाशन छोटी पुस्तिकाओं के आकार में होता था. इस तरह नये विचारों-नये आइडियाज को समाज में फैलाने, ले जाने का मंच, ये विश्वविद्यालय होते थे. इस प्रयास से आजादी की लड़ाई के विचारों को एक नयी ताकत और ऊर्जा मिली.

पर आज भारतीय विश्वविद्यालयों में दुनिया को नये ढंग से प्रभावित कर रहे या गढ़ रहे विचारों पर चर्चा नहीं होती. पश्चिम के समाज इसलिए आगे हैं, क्योंकि वे अपने दौर के महत्वपूर्ण विचारों-आइडियाज, जो दुनिया को नये रूप में गढ़ या बना रहे हैं, उन पर चर्चा करते हैं. व्याख्यान आयोजित करते हैं. इस अर्थ में हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू, बिजनेस और प्रबंधन की दुनिया के मौलिक विचारों से जुड़े साहित्य का 1922 से ही प्रकाशन करता रहा है. प्रबंधन में जिन आइडियाज (विचारों) ने गहराई से दुनिया को प्रभावित किया, बिजनेस रिव्यू क्लासिक सीरीज में उनका प्रकाशन होता है, ताकि लोग उन्हें अपनी निजी लाइब्रेरी में रख सकें.

प्रो सीके प्रह्लाद, हैं तो भारतीय मूल के, पर प्रबंधन में दुनिया के बड़े विचारकों में से एक. उन्होंने कई चर्चित पुस्तकें लिखीं है. वह मिचिगन विश्वविद्यालय के रास स्कूल ऑफ बिजनेस में प्रोफेसर हैं. इसी तरह प्रो कीनिथ राजनीतिशास्त्र, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन के प्रोफेसर हैं. चीन के बारे में उनका व्यापक अध्ययन हैं. ये दोनों दुनिया के शीर्ष प्रबंधन विचारक-विशेषज्ञ हैं. पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि ये दोनों विचारक मानते हैं कि ग्लोबल मार्केट में यह नया फेज या दौर है. इस दौर में कारपोरेट साम्राज्यवाद खत्म हो चुका है.

पुस्तिका का सारांश यह है कि आज चीन, भारत, इंडोनेशिया और ब्राजील के करोड़ों करोड़ लोग बाजार का अंग बनना चाहते हैं. फिर भी मल्टीनेशनल कंपनियां इन उभरते बाजारों में पश्चिम के मध्यवर्गीय अभिजात्य वर्ग की रुचि या पसंद की चीजें ही रखतीं हैं, वे ऐसा क्यों करतीं हैं? इन दोनों प्रबंध विशेषज्ञों के अनुसार इन कंपनियों की नजर में ये नये उभरते बाजार, उनके पुराने पश्चिमी सामानों (प्रोडक्ट) के खपत का बाजार ही दिखाई देते हैं. दोनों कहते है कि यह साम्राज्यवादी माइंडसेट है. इस क्रम में ये विदेशी कंपनियां सामाजिक, आर्थिक पिरामिड के नीचे के बड़े हिस्से को खुद से दूर कर लेती हैं.

तब वे इस अवसर का कैसे लाभ उठा सकती हैं? बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पुराने बिजनेस माडल से नये बाजारों में नहीं टिक पायेंगीं. ये प्रबंधन विशेषज्ञ कहते हैं कि आरंभ में कोकाकोला भारत में पेप्सी से इसलिए पिछड़ गया, क्योंकि उसने प्रचार-प्रसार का अपना परंपरागत रास्ता अपनाया. स्थानीय बाजार की संस्कृति, माइंडसेट या जरूरतों के अनुसार अपने को नहीं ढाला. फिर ये फिएट का उदाहरण बताते हैं कि कैसे फिएट ने ब्राजील के बाजार के अनुरूप नये ढंग का कार डिजाइन किया, उसकी कीमत स्थानीय बाजार के अनुरूप 9000 डालर रखी. फिर बड़ी कामयाबी मिली. इस तरह इन बाजारों में नये-नये प्रयोगों (इनोवेशन)से ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां, अपनी स्थिति मजबूत बना सकती हैं. इसमें वे कोकाकोला, जिलेट, जनरल इलेक्ट्रिक, फिलिप्स, एबीबी जैसी कंपनियों के अनेक महत्वपूर्ण प्रयोगों की चर्चा करते हैं. फिर ये प्रोफेसर बताते हैं कि इन उभरते बाजारों में कैसे आइडियाज ज्यादा प्रभावी और असरदार हो सकते हैं? इसमें वे ग्राहकों की अवधारणा (कस्टमर परसेप्सन) की बात करते हैं. ब्रांड मैंनेजमेंट की स्थिति स्पष्ट करते हैं.

बाजार को बनाने में होनेवाले खर्च (मार्केट बिल्डिंग कास्ट) का उल्लेख करते हैं. फिर प्रोडक्ट डिजाइन और पैकेजिंग की जरूरत स्पष्ट करते हैं. फिर लोकल डिस्ट्रिब्यूसन सिस्टम की चर्चा उठाते हैं. स्थानीय लोगों को महत्व दें या बाहर से विशेषज्ञ बुलायें, इस पर अपने विचार बताते हैं. लोकल पार्टनर और बहराष्ट्रीय कंपनियों के बीच क्या रिश्ता हो, यह भी दोनों स्पष्ट करते हैं. वे बार-बार हिदायत देते हैं कि अपनी सनसेट टेक्नोलाजी (अप्रासांगिक तकनीक) से इन नये बाजारों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अगर मुनाफा कमाना चाहतीं है, तो वे विफल रहेंगीं.

विचार के स्तर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माइंडसेट में परिवर्तन की बात दोनों करते हैं. इनका कहना है कि ये पश्चिमी कंपनियां पश्चिम के मध्यवर्षीय दृष्टि से ही इन देशों के उभरते मध्यवर्ग को देखती हैं, जो गलत है. ये उभरते बाजार नये ढंग के हैं. मसलन लेखक कहते हैं कि आज भारतीय बाजार में पचास से अधिक टूथपेस्ट के ब्रांड हैं. जूतों के 250 ब्रांड, पर सिर्फ पश्चिमी तौर-तरीकों से यह भारतीय बाजार समझा नहीं जा सकता.

यह पुस्तिका दुनिया में बाजार के बदलते स्वरूप-ग्रामर को बहुत साफ-साफ स्पष्ट करती है. इन बाजारों में अगर टिकना है, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को क्या करना होगा, देश की लोकल कंपनियों को क्या करना होगा, ये रणनीति स्पष्ट की गयी है. जो उद्यमी इन बाजारों पर अपना आधिपत्य चाहते हैं, वे क्या-क्या कर सकते हैं? उनके सामने क्या मौके या अवसर हैं, यह चर्चा है. भारतीय परिवेश में भारत के उद्यमियों, निवेशकों को आगे लाने के लिए ऐसे विशेषज्ञों के प्रकाशन और विचार, सामने आयें, तो स्थानीय बाजारों को विकसित होने में मदद मिलेगी. बिना बाजार, उद्यमियों के विकास या प्रसार-फैलाव के, न भारत में बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन हो सकता है, न यह मुल्क आगे बढ़ सकता है. इस दृष्टि से ऐसे प्रकाशनों को जानना, समझना और पढ़ना उपयोगी है.

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