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मॉनसून की आहट और गांव
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान गरमी का पारा उफान पर है, वहीं माॅनसून ने दरवाजा खटखटा दिया है. ऐसे में गांव की बातें कुछ अलग अंदाज में करने का मन कर रहा है. गाम-घर का जीवन मुझे फसल की तरह लगता रहा है. कभी खूब हरा-भरा, तो कभी एकदम मटमैला. माॅनसून की आहट से […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
गरमी का पारा उफान पर है, वहीं माॅनसून ने दरवाजा खटखटा दिया है. ऐसे में गांव की बातें कुछ अलग अंदाज में करने का मन कर रहा है. गाम-घर का जीवन मुझे फसल की तरह लगता रहा है. कभी खूब हरा-भरा, तो कभी एकदम मटमैला. माॅनसून की आहट से खेतों में हरियाली लौट आयी है. पानी की रिमझिम बौछारों से माटी की महक बढ़ गयी है. इस मौसम में अंचल की कथाओं में ढेर सारे कोण खोजने पलथी मार कर बैठ गया हूं.
किसानी करते हुए बरसात में गाम-घर मुझे किताब की तरह लगने लगता है. किताबों में ढेर सारे संवाद की तरह ही अंचल में भी संवाद मिल रहे हैं. मचान पर बतकही का अंदाज नमक-मिर्च की माफिक लग रहा है. सत्तू, पानी और नमक के संग मिर्च के जायकेदार नाश्ते की तरह अंचल खींचता आया है और देखिए न, जब यह किसान अपने अंचल की ओर लौटता है, तो सत्तू-पानी-नमक-मिर्च का व्याकरण खत्म हो चुका होता है. पलायन की समस्या से जूझ रहे अंचल की पीड़ा उसके भीतर टीस मारने लगती है.
अंचल की दुनिया मुझको कबीर की तरह भी लगता रहा है. पहले उसे अंचल में कबिराहा मठ मिलता था, लेकिन अब नहीं. इसके बावजूद अंचल के जीवन को जी रहे मनुखों में उसे दर्शन-धर्म-आस्था-वैराग्य-सूफी-बकबकी-ढीठपन सबकुछ मिल रहा है. कई लोग ऐसे मिले, जिनकी वाणी में उसे जीवन-दर्शन के सारे अध्याय पढ़ने को मिल गये. टीवी पर सफेद कपड़ों में लिपटे प्रवचन देनेवाले बाबाओं को इन जैसे लोगों से संवाद स्थापित करना चाहिए. हालांकि, गांव के लोगबाग को समझने में खूब वक्त लगता है.
अंचल में लोगों से सीधा संवाद स्थापित करने के लिए हर दिन लंबी दूरी तय करनी होती है. इन दूरियों को पाटने के लिए गरमी की दोपहरिया सखी के माफिक सहायता कर रही है. इस बीच मेघ का रंग भी बदलने लगा है. आसमान में बादल घुमड़ने लगे हैं. यात्राओं के दौरान माॅनसून की आहट परेशान भी करती है, लेकिन खेत के लिए पानी जरूरी है. कुछ ही दिनों में धनरोपनी होनेवाली है.
बारिश को लेकर लोगबाग के पास ढेर सारे मुहावरे हैं, जिसे डाकवचन कहा जाता है. इन डाकवचनों पर भी यह किसान कान जमाये हुए है. बातों की लंबी सूची बनती जा रही है. हर दिन नये लोग मिलते हैं, नयी बातें सामने आ जाती हैं.
भूमि, फसल और यादों की दुनिया अंचल में आकर परेशान भी करती है, लेकिन यही तो जीवन का अभिन्न अंग है. शाम ढलते ही किसान लंबी सांस लेता है और आसमान को निहारने लगता है. मेघ ऐसे लग रहे हैं, मानो किसी ने हल चला दिया हो, कुछ टुकड़े सफेद तो कुछ चटख नीले लग रहे हैं और बीच-बीच में तारों की माला तिलिस्मी लगने लगी है. गाम-घर के लोग कहते हैं कि आसमान जब खेत की तरह लगे, तो समझिए बारिश नहीं होगी. मौसम धोखा देगा.
इसी बीच मंगल और बुध को अंचल में लगनेवाला हटिया ‘जीवन का चटखदार रंग’ लगने लगा है. हटिया ग्राम्य जीवन का रंगरेज है, हर कोई इसमें अपने हिस्से का रंग खोजता है और यकीन मानिये हर किसी को उसका रंग मिल ही जाता है. पूर्णिया जिले के एक अंगरेज अफसर बुकानन ने हटिया संस्कृति पर विस्तार से लिखा है. अनाज और मवेशियों पर उन्होंने लिखा है.
गाम-घर में पांव अब जमने लगा है. अंचल की किताब की कितनी कहानियों के तार समझ पाता हूं. यह सब लिखते हुए गुलजार का लिखा याद आने लगता है- ‘सोचा था तुमसे मिले तो पांव जमीन पे पड़ेंगे/ यह क्या पता था फिर से ख्वाबों में उड़ने लगेंगे.’
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