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तब और अब की यात्राएं

कविता विकास स्वतंत्र लेखिका हर यात्रा का वैसे तो अपना आनंद होता है, लेकिन ट्रेन की यात्रा का कुछ अलहदा आनंद होता है. यात्रा पर निकलने का रोमांच सिर्फ नयी जगह देखने का ही नहीं होता, बल्कि ट्रेन से लेकर गंतव्य और फिर वहां से वापसी तक नये यात्रियों से मिलने आदि का भी होता […]

कविता विकास

स्वतंत्र लेखिका

हर यात्रा का वैसे तो अपना आनंद होता है, लेकिन ट्रेन की यात्रा का कुछ अलहदा आनंद होता है. यात्रा पर निकलने का रोमांच सिर्फ नयी जगह देखने का ही नहीं होता, बल्कि ट्रेन से लेकर गंतव्य और फिर वहां से वापसी तक नये यात्रियों से मिलने आदि का भी होता है. यात्रा थका देनेवाली तो होती है, लेकिन उसका रोमांच अरसे तक बना रहता है.

जब मैं यात्रा पर निकली, तो यही सोच मेरे मन में थी. लेकिन, मेरी सोच कितनी पिछड़ी हुई है, इसका आभास तब लगा, जब एसी कोच के उस भरे-पूरे डिब्बे में मेरी पहल करने पर भी किसी से कोई संवाद नहीं बन पाया. एक बुजुर्ग ने अपने बगल वाले पुरुष सहयात्री से पूछा, ‘कहां जा रहे हैं आप?’ इस प्रश्न का उनको बड़ा ही सपाट सा उत्तर मिला, ‘लखनऊ’. बुजुर्ग को आशा थी कि वह सज्जन भी इनका लक्ष्य पूछेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. एक मिनट बाद बुजुर्ग ने स्वयं ही बता दिया, ‘मैं इलाहाबाद में उतर जाऊंगा’. अगले ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी, गोया पूछा ही किसने था!

साइड लोअर की बर्थ वाली महिला ने बताया कि उनका बच्चा बेहद शरारती है, उसे संभालने में यात्रा का मजा ही निकल जाता है. मैंने सोचा, एक यह दौर है, जब एक-दो बच्चे में ही लोग हाय-तौबा कर रहे हैं. एक वह दौर था, जब पांच-सात बच्चों वाले मां-बाप भी ट्रेन में चैन की नींद सोते थे. बच्चे क्या कर रहे हैं, उन्हें कोई फिक्र नहीं होती थी.

आधे घंटे के अंदर ही डिब्बे में मौजूद दो बच्चों ने अलग-अलग दोनों प्लग प्वॉइंट्स में लैपटाप के चार्जर लगा कर गेम खेलने लगे. महिलाओं और पुरुषों की अपनी व्यस्तता थी- कोई व्हाॅट्सएप्प पर, कोई फेसबुक पर, तो कोई ट्विटर पर. अपने-अपने उपकरणों में डूबे हुए कोई मुस्कुराता, तो कोई बमुश्किल हंसी छुपाता. समाजीकरण के सभी पहलू इन आधुनिक यंत्रों में समा गये हैं, इतना कि आभासी आत्मीय बन गये और आत्मीय दूर होते गये हैं.

मुझे याद आता है. तीन दशक पहले जब हम स्लीपर कोच में यात्रा को निकलते थे, तो विंडो साइड में बैठने को लेकर दूसरों के साथ हल्की नोक-झोंक से यात्रा आरंभ होती थी. फिर जब अपनी-अपनी पोटली से परांठे-अचार निकालते थे, तो आस-पास बैठे हुए सभी में बांटते थे. मनोरमा या मनोहर कहानियां की एक प्रति को पूरा डिब्बा पढ़ जाता, भले ही खरीदनेवाला न पढ़ पाये.

एक ही अखबार के सभी पन्ने अलग-अलग बंट जाते, किसी के हाथ केवल क्लासिफाइड पन्ना आता, पर वह उसी में संतुष्ट दिखता था. ट्रेन में बैठे-बैठे कितनी शादियां तय हो जाती थीं. जब अपना-अपना स्टेशन आता, तो बकायदा गले मिल कर विदाई दी जाती थी. सामानों की निकासी में भी लोग एक-दूसरे की मदद करते थे. एक अब की यात्रा है कि लोग बात करने से ऐसा परहेज करते हैं कि कान में इयरफोन लगा कर बैठ जाते हैं. न किसी की सुनो और न किसी से बोलो.

बीते दो-तीन दशक में ही चीजें तेजी से बदली हैं. ऐसा लगता है, जैसे हमने परिवर्तन को नहीं अपनाया, परिवर्तन हम सब में घुस गया. अनुभव बांटने को हजारों फ्रेंड्स सोशल साइट्स पर हैं.

इंस्टाग्राम से होते हुए तसवीरें पल में विश्व-व्यापी हो जाती हैं, लेकिन वे ठहाके, वे मस्तियां कहां मिलेंगी, जिसका एहसास यात्रा के रोमांच को रूबरू सुनाते समय पुनः उन लम्हों को जी लेने में मिलता है. विचारों की तंद्रा टूटी तो देखा, लोगों ने अपने-अपने कूपे के परदे भी लगा लिये हैं, मानो वे ट्रेन में नहीं किसी होटल में ठहरे हों.

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