‘आप’ बदलाववादी या अराजकतावादी!
।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार आप की राजनीतिक-प्रशासनिक कमजोरियां इतनी जल्दी क्यों उजागर हो रही हैं? इसे समझने के लिए ‘आप’ के गठन की पृष्ठभूमि और इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं के सामाजिक-राजनीतिक सोच को समझना होगा.आम आदमी पार्टी (आप) ने दिल्ली में चुनावी सफलता के बाद देशभर में समाज के एक हिस्से में अपने लिए बहुत तेजी […]
।। उर्मिलेश ।।
वरिष्ठ पत्रकार
आप की राजनीतिक-प्रशासनिक कमजोरियां इतनी जल्दी क्यों उजागर हो रही हैं? इसे समझने के लिए ‘आप’ के गठन की पृष्ठभूमि और इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं के सामाजिक-राजनीतिक सोच को समझना होगा.आम आदमी पार्टी (आप) ने दिल्ली में चुनावी सफलता के बाद देशभर में समाज के एक हिस्से में अपने लिए बहुत तेजी से जगह बनायी. बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों से निराश लोगों को उसमें सार्थक राजनीति का चेहरा नजर आया. पार्टी के कुछ नेताओं और उनके विचारों से लोग प्रभावित हुए और उन्हें लगने लगा कि देश में लुप्त होती बदलाववादी राजनीति को शायद ‘आप’ के रूप में नया विकल्प मिल जायेगा.
परंतु ‘आप’ के प्रशंसकों-समर्थकों के बड़े हिस्से में अब मायूसी दिख रही है. नयी पार्टी की नयी सरकार के मंत्रियों के कामकाज और स्वयं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के तौर-तरीकों से लोगों में निराशा दिखने लगी है. राजनीतिक हलकों में तो यह तक कहा जाने लगा है कि आप नेतृत्व किसी तरह सरकार व गवर्नेस से पिंड छुड़ाना चाहता है, ताकि शहीदाना सूरत बना कर आम चुनाव में उतर सकें.
शायद रास्ता तलाशा जा रहा है कि किस तरह सरकार स्वयं गिर जाये या बर्खास्त कर दी जाये! कहा जा रहा है कि आप नेतृत्व जल्द ही कुछ ऐसा फैसला लेगा, जो सबको कुछ समय के लिए स्तब्ध कर दे!
आप की राजनीतिक-प्रशासनिक कमजोरियां इतनी जल्दी क्यों उजागर हो रही हैं? इसे समझने के लिए ‘आप’ के गठन की पृष्ठभूमि और इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं के सामाजिक-राजनीतिक सोच को समझना होगा. इसका उदय लंबे समय तक चले किसी बड़े जनआंदोलन के बाद नहीं हुआ.
भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए लोकपाल के गठन की मांग पर चले जन-अभियान, जिसमें बुनियादी तौर पर शहरी मध्यवर्ग के युवा, रिटायर नौकरशाह और एनजीओ नेटवर्क के लोग बड़े पैमाने पर शामिल थे, के बाद इसका गठन हुआ. राजनीति के मैदान में उतरे आप के ज्यादातर कार्यकर्ता कांग्रेस-भाजपा के नेताओं के मुकाबले निजी जीवन में ज्यादा सादगी-पसंद और प्रतिबद्ध दिखते हैं.
पर राजनीतिक और गर्वनेंस के स्तर पर वे नौसिखुये हैं. कुछ तो अराजकतावादी भी हैं. कोई आश्चर्य नहीं, इनमें कुछेक के कुछ निहित-स्वार्थ भी हों. ले-देकर आप के केंद्रीय सांगठनिक नेतृत्व में अब तीन तरह के लोग हैं- एनजीओ नेटवर्क के लोग, पारंपरिक दलों से निराश-हताश वामपंथी-समाजवादी या दक्षिणपंथी खेमे के पूर्व कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी.
तीसरा खेमा है- प्रोफेशनल्स, कॉरपोरेट-प्रबंधन या विदेश से आनेवाले लोगों का. सामाजिक-श्रेणीबद्धता के हिसाब से पार्टी के ज्यादातर नेता-कार्यकर्ता सवर्ण-मध्यवर्गीय हैं. यह अकारण नहीं है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में एससी-एसटी के लिए आरक्षण का प्रावधान दर्ज करने के बावजूद इस पार्टी का नेतृत्व सामाजिक न्याय के सवाल को अब अपने राजनीतिक-विमर्श का हिस्सा नहीं मानता.
दलित समुदाय से आये इसके कुछ मंत्रियों ने पिछले दिनों यह कह कर अपने नेतृत्व को ‘खुश’ किया कि वे दलित होने के बावजूद आरक्षण को सही नहीं मानते. यही नहीं, वीपी सिंह के जमाने में और फिर 2006-08 के दौरान दिल्ली में हुए आरक्षण-विरोधी आंदोलन (यूथ फार इक्वलिटी) के कई सक्रिय संगठक भी आप नेतृत्व की पहली कतार में शामिल हैं.
पार्टी के मुख्य संगठकों का सोच है कि समाज से भ्रष्टाचार खत्म या कम हो जाये, जो वे जरूर कर देंगे, तो यह सिस्टम बहुत अच्छा है, सब ठीक हो जायेगा. हाथ की लकीरों और भाग्य में आप नेतृत्व की गहरी आस्था है. अपने नारों-आचरण में भी नेतृत्व संकीर्ण और परंपरावादी मानसिकता से ग्रस्त दिखता है.
केजरीवाल जब कहते हैं कि उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए, हथेली की रेखाएं बताती हैं कि उनकी जिंदगी लंबी है, तो इससे उनके सोच का पता चलता है. मीडिया में प्रतिकूल खबरें देख कर वह पांच कमरे के फ्लैट में रहने के फैसले से भाग खड़े होते हैं. वह मीडिया को आज भी अपने लिए बहुत बड़ी ‘कन्स्टीचुएन्सी’ मानते हैं.
आर्थिक नीतियों के स्तर पर तो वे खासे ‘कन्फ्यूज’ हैं. पिछले दिनों जेएनयू के प्रो अरुण कुमार, प्रो आनंद कुमार और योगेंद्र यादव सरीखे समर्थ और विवेकशील लोगों ने पार्टी की सामाजिक-आर्थिक नीतियों का एक प्रारूप बनाया था.
अपने वरिष्ठ साथियों से विचार-विमर्श के बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल ने मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ लाने के शीला दीक्षित के फैसले को पलटा, तो दिल्ली में आम लोगों, छोटे-मंझोले व्यापारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं ने इसका स्वागत किया. लेकिन उसके महज एक दिन बाद केजरीवाल ने साफ किया कि वे सैद्धांतिक तौर पर मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के विरुद्ध नहीं है.
इसके कुछ ही दिनों बाद उन्होंने पार्टी की अर्थनीति तय करने को पृथ्वी रेड्डी की अध्यक्षता में एक नयी कमेटी बना दी, जिसमें शामिल हैं- असीम श्रीवास्तव, आतिशी मारलेना, दिलीप पांडे, लवीश भंडारी, मीरा सान्याल व संजीव आगा. इनमें किसी की पृष्ठभूमि न तो जन-पक्षधर आर्थिक नीतियों के समर्थक की रही है और न वे किसी जन-आंदोलन की उपज हैं. इनमें कई तो बड़ी कंपनियों के सीइओ रहे हैं.
मीरा सान्याल तो हाल तक रॉयल बैंक आफ स्कॉटलैंड की अध्यक्ष रही हैं. प्रो अरुण कुमार, आनंद कुमार, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव जैसे लोगों को इस बार कमेटी से बाहर रखा गया है. क्या यह सब एक खास तरह का राजनीतिक अराजकतावाद नहीं है?
यह अकारण नहीं है कि हाल में केजरीवाल प्रबुद्ध और समझदार नेताओं-कार्यकर्ताओं के बजाय हंगामी शोर और विवाद खड़ा करने में सिद्घहस्त लोगों को पार्टी और सरकार में ज्यादा महत्व दे रहे हैं. सोमनाथ भारती, राखी बिड़लान जैसे मंत्री और कुमार विश्वास जैसे नेता उन्हें ज्यादा कारगर लगते हैं.
अमेठी की रैली में ‘ब्राह्मण का बच्चा’ कह कर अपना परिचय देनेवाले विश्वास को केजरीवाल का विश्वासपात्र माना जाता है. अमेठी में विश्वास अपनी तुलना चाणक्य से कर रहे थे.
मंत्री न बनाये जाने से नाराज आप विधायक विनोद बिन्नी की और बातें चाहे जितनी गलत हों, पर केजरीवाल की कार्यशैली पर उनके सवाल जायज हैं. जिन दिनों दिल्ली में केजरीवाल सरकार के शपथ लेने की तैयारी चल रही थी, एक पत्रकार ने ‘आप’ के प्रवक्ताओं से पूछा, ‘पार्टी मंत्रियों के नाम कब तय करेगी?’, तो जवाब आया, केजरीवाल नाम तय करेंगे.
फिर ‘आप’ वाले कांग्रेस या भाजपा को आंतरिक लोकतंत्र-विहीन, आलाकमान-आधारित पार्टी क्यों कहते हैं? क्या आप के आलाकमान केजरीवाल नहीं हैं? केजरीवाल जनता को ‘स्टिंग’ के लिए प्रेरित करनेवाले दुनिया के संभवत: पहले सत्ताधारी-राजनीतिज्ञ हैं.
इससे साफ है कि वह भ्रष्टाचार को अफसरों-नेताओं या अन्य लोगों का निजी चारित्रिक गुण मानते हैं और भ्रष्टाचार के व्यवस्थागत स्वरूप या चरित्र को नजरअंदाज करते हैं. बड़ा सवाल यह है कि क्या इस तरह के लटकों-झटकों से भ्रष्टाचार मिटेगा और सुशासन आयेगा!